चुनावी साल में राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने अपना आखिरी बजट पेश कर दिया है. हमेशा की तरह बजट को सत्ता पक्ष ने लाजवाब तो विपक्ष ने वोट हासिल करने की कोशिश करार दिया है. इसमें कोई शक नहीं कि पिछले 4 बजट के उलट वसुंधरा राजे सरकार के इस बजट में चुनावी आहट और हाल के उपचुनावों में मिली करारी शिकस्त से मिला सबक साफ दिखता है.
लेकिन बजट और घोषित की गई योजनाओं का विश्लेषण करें तो बीजेपी का ये दांव हैरान करने वाला है. बीजेपी ने उसी दांव से राजस्थान जीतने की कोशिश शुरू की है, जिस से 4 साल पहले कांग्रेस हारी थी. तब गहलोत सरकार ने चुनावी साल के बजट में घोषणाओं का पिटारा खोल दिया था. इतनी ज्यादा घोषणाएं की गई थी कि कई तो अभी तक अधूरी हैं.
अब वसुंधरा सरकार ने भी चुनावी साल के इस बजट में बंपर घोषणाएं कर दी हैं. किसानों की कर्ज माफी से लेकर गांवों में सड़क बनाने तक, युवाओं को 1 लाख से ज्यादा नौकरियां देने से लेकर नए कॉलेज खोलने तक, व्यापार कल्याण बोर्ड के गठन से लेकर महिलाओं के लिए मेंस्ट्रूअल हाइजीन स्कीम तक और जमीनों की डीएलसी दर घटाने से लेकर शहीद सैनिकों के आश्रितों को मुआवजा बढ़ाने तक, ऐसा कोई वर्ग नहीं छूटा है जिसे रियायतें नहीं दी गई हों.
केंद्र की तरह किसान केंद्रित बजट
2 हफ्ते पहले ही केंद्रीय बजट में गांव, गरीब और कृषि-किसान पर फोकस किया गया था. बिल्कुल यही फॉर्मूला राजस्थान सरकार ने अपनाया है. मुख्यमंत्री ने 50 हजार तक के कृषि ऋणों को माफ करने का ऐलान किया है. इससे 20 लाख किसानों को फायदा होगा. हालांकि राज्य पर इससे करीब 8 हजार करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ेगा. लेकिन वसुंधरा राजे को अच्छी तरह मालूम है कि ये भार आने वाली सरकार के जिम्मे होगा. तो फिर रेवड़ियों के ऐलान से अगर कुछ वोट हासिल हो जाएं तो इससे परहेज क्यों?
सूत्रों ने बताया है कि किसानों की कर्ज माफी की ये घोषणा बजट की मूल कॉपी में शामिल नहीं थी. 1 फरवरी को उपचुनाव नतीजे आने और बीजेपी की जमीन खिसक जाने के बाद आनन-फानन में इसे बजट में शामिल किया गया. इससे पहले फ़र्स्टपोस्ट आपको बता चुका है कि कैसे सीकर में किसान आंदोलन के दौरान कर्ज माफी के वादे को अब केरल मॉडल के बहाने से टाला जा रहा था.
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इसके अलावा, कृषि क्षेत्र में ही 500 करोड़ का फंड समर्थन मूल्य पर खरीद के लिए रखा गया है. उन कृषि कनेक्शनों की भी सरकार को अब सुध आ गई है जिन पर सालों से अघोषित रोक लगी हुई है. एक किसान ने बताया कि 2010 में आवेदन किए जाने के बावजूद अब तक उसके खेत में कनेक्शन नहीं लग पाया है. अभी और कितना समय लगेगा, इसका भी कोई अंदाजा बिजली अधिकारी नहीं देते हैं. हालांकि बजट में अब 2 लाख नए कृषि कनेक्शनों का ऐलान किया गया है.
राजे सरकार ने कृषि आय बढ़ाने के लिए भंडारण क्षमता में भी निवेश की बात कही है. बजट में 5 लाख टन क्षमता के भंडार गृह तैयार करने के लिए 350 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. 40 करोड़ रुपए का फंड यूरिया और डीएपी के भंडारण पर खर्च करने का ऐलान भी किया गया है. पिछले दिनों पूरे देश ने देखा कि राजस्थान में यूरिया खाद की एक-एक बोरी के लिए कैसे किसानों के बीच संघर्ष के हालात पैदा हो गए थे.
इसी तरीके से बल्क मिल्क कूलर की खरीद, बायोगैस प्लांट बनाने जैसी चीजों पर भी अनुदान की घोषणा की गई है. किसानों को लगान से मुक्ति और उन किसानों को सीधे खान आवंटन की घोषणा की गई है जिनके खेत में खनिज पाया जाएगा. 4 हेक्टेयर तक की ऐसी माइनर मिनरल की खान के लिए नीलामी नहीं की जाएगी.
क्या ये घोषणाएं धरती पर उतर सकेंगी?
हर वर्ग के लिए योजनाएं तो खूब हो गई. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या करोड़ों-करोड़ की ये योजनाएं धरातल पर भी आ पाएंगी? अब वर्तमान सरकार के पास समय ही कितना बचा है जो इन योजनाओं को पूरा किया जा सकेगा? इससे भी ऊपर ये सवाल कि क्या सरकार के पास ये सब धरातल पर उतारने के लिए जरूरी पैसा है भी?
नए वित्तीय वर्ष और चुनाव होने के समय के बीच बमुश्किल 7-8 महीने का वक्त बचेगा. राजस्थान में आमतौर पर नवंबर में चुनाव होते हैं. इससे कम से कम 2 महीने पहले आचार संहिता भी लागू हो जाती है. आचार संहिता में काम की रफ्तार वैसे भी धीमी ही देखी जाती है. तो इन 6 महीने में सरकार अचानक गियर बदलकर टॉप स्पीड कैसे पकड़ेगी. वो मंत्री, अधिकारी, कर्मचारी अचानक उसेन बोल्ट की स्पीड में कैसे आ जाएंगे जो साढ़े 4 साल से निष्क्रिय से हैं.
कोई इस सरकार से पूछे कि अगर जनता की इतनी फिक्र थी तो पिछले 4 बजट में इन योजनाओं, अनुदानों और रियायतों की घोषणाएं क्यों नहीं की गई? कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट भी यही सवाल उठाते हुए कहते हैं कि उपचुनाव की हार के बाद बीजेपी को मजबूरन लोकलुभावन बजट बनाना पड़ा है. पायलट के शब्दों में कहें तो सरकार का रवैया साफ दर्शा रहा है कि इन बजट घोषणाओं के पूरा होने की कोई गारंटी नहीं है.
निजी तौर पर मुझे हैरानी होती है कि वसुंधरा सरकार उन्ही कदमों पर क्यों चल रही है जिन पर चलकर गहलोत सरकार 2013 में हार चुकी है? पिछली सरकार ने भी 4 साल तक निष्क्रिय रहकर चुनावी साल में बंपर घोषणाओं के सहारे चुनाव जीतने का सपना देखा था. राजनीति में ये जरूर कहा जाता है कि जनता की याददाश्त शॉर्ट टर्म मेमोरी सिंड्रोम जैसी होती है. लेकिन 2013 में तमाम घोषणाओं के बावजूद जनता ने कांग्रेस को सिर्फ 20 सीटों पर समेट कर दिखा दिया कि 21वीं सदी में जनता को निरा मूर्ख भी न समझा जाए.
बजट में वोट बैंक की मजबूरी
जिन घोषणाओं पर सबसे ज्यादा हैरानी हुई, उनमें एक भैरों सिंह शेखावत अंत्योदय स्वरोजगार योजना और सुंदर सिंह भंडारी ईबीसी स्वरोजगार योजनाएं शामिल हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे के उदय के बाद पुराने दौर के नेताओं के बुरे दिन सबने महसूस किए हैं. पुराने नेताओं के लिए इससे बुरे हालात क्या होंगे कि जिन भैरों सिंह शेखावत के बूते राजस्थान में बीजेपी अपना आधार बना पाई, उन्ही शेखावत की समाधि बनाने के लिए ही राजे सरकार ने आनाकानी की.
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वसुंधरा राजे को राजस्थान का सिरमौर बनाने में भैरों सिंह शेखावत का हाथ रहा है लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद राजे पर उनके ही दामाद को परेशान करने का आरोप लगा. पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह हों या जयपुर से लगातार 6 बार एक लाख से ज्यादा वोट से जीतने वाले गिरधारी लाल भार्गव हों, भंवर लाल शर्मा या फिर एक समय पार्टी के चाणक्य कहे गए रामदास अग्रवाल, हरिशंकर भाभड़ा, ललित किशोर चतुर्वेदी.. उन नेताओं की फेहरिस्त बड़ी लंबी है, जो राजे के उदय के बाद उपेक्षित किए गए.
अब चुनावी मजबूरी की वजह से राजे सरकार को भैरों सिंह शेखावत के नाम पर योजना लागू करनी पड़ी है. अजमेर और अलवर लोकसभा सीट और मांडलगढ़ विधानसभा सीट उपचुनाव में राजपूतों ने बीजेपी के खिलाफ वोट देकर पार्टी को घुटनों तक झुकने पर मजबूर कर दिया है. राजपूतों को मनाने के लिए ही शायद भैरों सिंह शेखावत के नाम पर अंत्योदय योजना की घोषणा की गई है. पिछले महीने प्रधानमंत्री भी बाड़मेर मे राजपूत नेताओं की तारीफ कर चुके हैं.
पैसा है नहीं, सपने शेख चिल्ली के
अगर आंकड़ों की बात करें तो वसुंधरा राजे की बाजीगरी साफ दिखती है. कोई नया टैक्स नहीं लगाया गया है. उदय योजना के तहत पहले ही डिस्कॉम के कर्ज का भार सरकार पर भारी हो चुका है. अब किसानों की कर्ज माफी और दूसरी रियायतें कैसे और कहां से पूरी की जाएंगी, इसका कोई रोडमैप पेश नहीं किया गया है. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अकसर पिछली गहलोत सरकार को राज्य पर बढ़े कर्ज भार के लिए दोष देती रहती हैं. लेकिन मौजूदा वित्तीय स्थिति को देखते हुए लगता है उन्होने भी कर्ज के अलावा दूसरा रास्ता नहीं अपनाया है.
पूर्व वित्त मंत्री माणिक चंद सुराणा के मुताबिक बजट में 17,454 करोड़ रुपए के राजस्व घाटे की भरपाई पूंजीगत खाते से की जा रही है. पिछले सालों के घाटे को पूरा करने और विकास की योजनाओं को चलाने के लिए 1 लाख 77 हज़ार करोड़ रुपए का पब्लिक लोन लिया गया है. सिर्फ इस ऋण पर ही करीब 20 हजार करोड़ रुपए ब्याज बन जाता है. ऐसे में आने वाली सरकार के लिए हालात कितने मुश्किल होने वाले हैं, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता.
आमतौर पर घाटे का बजट विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के अनुकूल माना जाता है. लेकिन राजस्थान में दिनोंदिन बढ़ता घाटा फिक्र की बात होता जा रहा है. मौजूदा वित्त वर्ष में घाटे का जितना अनुमान था, वास्तव में उसका डेढ़ गुणा पहुंच चुका है. पूंजी खाते से फायदा भी इस वित्त वर्ष में कम ही माना जा रहा है. राजकोषीय घाटे का अनुमान भी 28 हजार करोड़ रुपया आंका गया है.
खुद सरकार मान रही है कि बिजली कंपनियों के कर्ज की वजह से अतिरिक्त भार आ गया है. सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों की वजह से भी सरकार को ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है. रही-सही कसर कम होते राजस्व ने पूरी कर दी है. 2017-18 में राजस्थान सरकार को उत्पाद शुल्क के साथ ही खनिज और पेट्रोलियम से होने वाली आय में भी कमी आई है. हालांकि जीएसटी के चलते सरकार को राजस्व में कुछ राहत मिली है.
आगे अच्छे दिन हैं, सुस्ती तो छोड़ो!
बढ़ता कर्ज नई सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है. लेकिन इसी बीच एक अच्छी खबर भी आई है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वैज्ञानिकों और भूगर्भ शास्त्रियों ने कन्फर्म किया है कि राजस्थान के मेवाड़ और वागड़ इलाके में सोने अकूत भंडार भरे पड़े हैं. जीएसआई के महानिदेशक एन कुटुंब राव के मुताबिक उदयपुर और बांसवाड़ा जिलों में जमीन से सिर्फ 300 फीट नीचे 11.48 करोड़ टन सोने के डिपॉजिट्स मिले हैं.
पिछले दशकों में राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में काला सोना यानी क्रूड ऑयल के भंडार खोजे गए थे. जैसलमेर, बाड़मेर में कच्चे तेल और गैस के ये भंडार देश के सबसे बड़े भंडारों में से एक हैं. हालांकि इनके दोहन में कहीं न कहीं लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का अंश साफ महसूस किया गया. सीमा के उस पार पाकिस्तान में तेल के भंडार बंटवारे के कुछ साल बाद ही खोज लिए गए थे. जबकि भारत में ये 20वीं सदी के आखिर में खोजे जा सके.
इतना ही नहीं, 2005 में संजोई गई रिफाइनरी की संकल्पना के शिलान्यास में ही 8 साल लग गए. 2013 में तब की कांग्रेस सरकार ने जल्दबाजी में नींव का पत्थर लगवाया. 2018 में एक बार फिर रिफाइनरी का शिलान्यास ही हो सका, जबकि इस समय तक इसे काम भी शुरू कर देना चाहिए था. अब बजट पेश करते हुए मुख्यमंत्री ने सिर्फ रिफाइनरी के बूते ही पश्चिमी राजस्थान के दुबई बन जाने और राजस्थान में 1 लाख नई नौकरियों के सृजन का दावा किया है. ये अलग बात है कि 4 साल पहले ऐसे ही दावे तब के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी किए थे. लेकिन राजस्थान में रियासतकालीन सुस्ती का दौर 70 साल बाद भी खत्म होता नहीं दिखता.
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बहरहाल, एक बात साफ है कि जागरुकता के इस दौर में नतीजे ही जीत दिला सकते हैं. हवाहवाई घोषणाएं या आखिरी समय की सक्रियता से सहानुभूति अर्जित नहीं की जा सकती. राजस्थान में वैसे भी एंटी इंकमबैंसी फैक्टर हावी रहता है. पिछले 30 साल में भैरों सिंह शेखावत के अलावा दूसरा कोई मुख्यमंत्री अपनी सरकार की वापसी नहीं करवा सका है. ऐसे में अशोक गहलोत की ये टिप्पणी सटीक लगती है कि वसुंधरा राजे अब आसमान से तारें तोड़ लाएं तो भी वे वोटर के मन की थाह नहीं ले पाएंगी.
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