राजस्थान बीजेपी प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर ने एक इंटरव्यू में पूछे गए सवाल का जो जवाब दिया है, वो बीजेपी में चल रही उठापटक का बयां करने के लिए काफी है. पिछले काफी दिनों से मीडिया और सत्ता के गलियारों में इस उठापटक को महसूस भी किया जा रहा था. अब लग रहा है कि जो खबरें चल रही थी, वे सिर्फ कयास नहीं बल्कि सच्चाई के अंश से भी भरी थी.
प्रकाश जावड़ेकर से राज्य में टिकट बंटवारे को लेकर पूछा गया था. जावड़ेकर ने कहा कि पार्टी का चेहरा वसुंधरा राजे ही हैं. वोट भी नरेंद्र मोदी और राजे के नाम पर ही मांगे जाएंगे लेकिन जिनके लिए वोट मांगे जाएंगे उन्हे तय करेंगे 'हम'. हालांकि तुरंत उन्होने संभलकर 'हम' को परिभाषित भी किया. 'हम' में उन्होने कोर कमेटी को शामिल किया. यानी समझा जाए कि उम्मीदवारों के चयन का जिम्मा सिर्फ वसुंधरा राजे के पास नहीं होगा.
शायद राजे को इसका पहले से इल्म है. अपनी गौरव यात्रा में बेहद सक्रिय रही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पिछले कुछ दिन से मीडिया के परिदृश्य से गायब सी हो गई हैं. एकाएक ऐसा होने पर दिल्ली और जयपुर के सूत्रों से पड़ताल की गई तो कई रहस्यमय खबरें निकलकर आई. इन रहस्यों पर भरोसा किया जाए तो लब्बोलुआब ये बनता है कि राजस्थान में बड़े नेता ही बीजेपी को हराने में जुट गए हैं.
कर्मचारियों का अहम रोल लेकिन सुध क्यों नहीं ?
सितंबर का पूरा महीना कर्मचारियों की हड़ताल में कुर्बान हो गया था. कर्मचारियों को अपनी मांगों को पूरा कराने के लिए यही मुफीद समय लगा था. कोई भी सरकार कम से कम चुनाव के समय अपने लाखों कर्मचारियों की नाराजगी का रिस्क नहीं ले सकती. अभी 15 साल पहले की ही मिसाल हमारे सामने है. तब कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार से कर्मचारी नाराज थे. सरकार ने उनकी परवाह नहीं की क्योंकि उसे अपने कामों के आधार पर जीत का भरोसा था. लेकिन हुआ वही, जो कर्मचारियों ने चाहा. कांग्रेस हारी और बीजेपी पहली बार अपने दम पर बहुमत लेकर आई.
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इन तथ्यों के बावजूद ऐसा लग रहा है कि बीजेपी जानबूझकर कर्मचारियों की नाराजगी का रिस्क ले रही है. क्यों और कैसे के जवाब से पहले आपको बताते हैं कि चुनाव को कर्मचारी प्रभावित कैसे करते हैं ?
दरअसल, राजस्थान में सरकारी कर्मचारियों को काफी इज्जत से देखा जाता है और समाज में उनका प्रभाव भी है. इतना कि आज भी अनगिनत लोग वोट डालने से पहले गांव के 'मास्साब' (टीचर), 'डॉक्स्साब' (डॉक्टर) या 'कंपोडर साब' (नर्सिंग स्टाफ) से सलाह जरूर लेते हैं.
इसकी बड़ी वजह ये भी है कि राजस्थान में साक्षरता दर अभी भी 66 फीसदी के आसपास है. यानी 34 फीसदी तो निरक्षर हैं ही. जो साक्षर हैं, उनमें भी एक बड़ा वर्ग उन लोगों का है जो राजनीतिक रूप से निरक्षर हैं. इन्हे सेफोलोजिस्ट, वोलटाइल वोटर भी कहते हैं. ये इज्जतदार लोगों की बताई सलाह पर किसी को भी अपना वोट डाल देते हैं. ऐसे लोग औसतन कुल मतदाताओं का 10 फीसदी के आसपास माने जाते हैं. आम तौर पर राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस के बीच 4-5 % से ज्यादा वोटिंग अंतर नहीं होता है. ऐसे में समझा जा सकता है कि सरकारी कर्मचारी सरकार बनाने का खेल कैसे प्रभावित कर सकते हैं.
..लेकिन बीजेपी सरकार कर क्या रही है ?
चुनाव से सिर्फ 2 महीने पहले सरकारें कर्मचारियों की जायज-नाजायज मांगें मान ही लेती हैं. लेकिन वसुंधरा राजे सरकार ने कर्मचारियों को अपने हाल पर छोड़ दिया है. रोडवेज कर्मचारियों को बता दिया गया है कि सातवें वेतन आयोग को लागू करने की उनकी मांग को नहीं माना जा सकता है. इसकी दो वजह बताई गई हैं कि रोडवेज एक कार्पोरेशन है और इस तरह वे सरकारी कर्मचारी नहीं हो सकते. दूसरे, रोडवेज पहले ही सैकड़ों करोड़ रुपए के घाटे में है.
यहां तक कि जयपुर में चलने वाली लो-फ्लोर बस सर्विस के कई ड्राइवर-कंडक्टरों को तो सस्पेंड तक कर दिया गया है. सस्पेंशन और सख्ती के डर से फिलहाल तो ये कर्मचारी काम पर लौटने लगे हैं. लेकिन इनके दिमाग में क्या चल रहा होगा, उसे कोई भी समझ सकता है.
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इसी तरह, पंचायत कर्मचारियों, आशा कर्मियों, नर्सिंग स्टाफ और दूसरे मंत्रालयिक कर्मचारियों का भी कोई 'सम्मान' सरकार ने नहीं रखा है. कोढ़ में खाज की बात ये कि पिछले दिनों एक सर्कुलर भी जारी कर दिया गया. इस सर्कुलर के मुताबिक इन कर्मचारियों को हड़ताल के दिनों का कोई पैसा नहीं मिलेगा. एक तरह से इन दिनों में कर्मचारी विदआउट पे माने जाएंगे.
ऐसे में क्या कर्मचारी बदला नहीं निकालेंगे? राज्य में करीब 9 लाख सरकारी कर्मचारी हैं. अगर इनके परिवार वालों को जोड़ लें तो करीब 40-45 लाख वोट बनते हैं. गांवों में इतने ही वोट ये प्रभावित करने की ताकत भी रखते हैं. तो सवाल ये है कि सरकार आखिर इतने बड़े समूह को नाराज क्यों कर रही है? क्या वसुंधरा गुट ही बना रहा बीजेपी विरोधी माहौल?
राजे और केंद्रीय नेतृत्व में सबकुछ ठीक नहीं
ऊपर हमने आपको बताया कि कैसे एकाएक मुख्यमंत्री के शांत बैठ जाने की खबरें चल रही हैं. दरअसल, वसुंधरा राजे और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के बीच सबकुछ ठीक नहीं है. पहले प्रदेश अध्यक्ष को लेकर मामला गर्माया. किसी तरह सुलझा तो अमित शाह और वसुंधरा राजे के अलग-अलग कार्यक्रमों पर लोगों का ध्यान गया और फिर जिस तरह अमित शाह ने अपनी टीम को राजस्थान में सक्रिय किया है, उसने भी वसुंधरा को खासा धक्का पहुंचाया है.
राजस्थान प्रभारी के रूप में वसुंधरा राजे केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की नियुक्ति चाह रही थी. लेकिन पार्टी ने प्रकाश जावडेकर को लगा दिया. इससे पहले, अमित शाह ने राजे विरोधी ओम माथुर को भी अघोषित रूप से राजस्थान में 'इन्वॉल्व' कर दिया है (प्रदेशाध्यक्ष मदन लाल सैनी भी माथुर गुट के ही माने जाते हैं). बाद में टिकटों का फैसला करने के लिए शाह ने केंद्रीय मंत्रियों गजेंद्र सिंह शेखावत और अर्जुन मेघवाल को अहम जिम्मा सौंप दिया. विधानसभा वार अलग-अलग टीमों से सर्वे कराया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इस सर्वे का टिकट वितरण में महत्त्वपूर्ण रोल रहेगा.
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कुल मिलाकर बात ये कि टिकट वितरण में वसुंधरा राजे या उनके गुट की तो चलने से रही. जबकि 2003 और 2013 के चुनावों में टिकट वितरण का पूरा काम वसुंधरा राजे के निर्देशन में ही किया गया था. बताया जा रहा है कि इससे राजे गुट को इस बार जीतने की स्थिति में मुख्यमंत्री बदले जाने की आशंका हो गई है. राजनीति का एक सिद्धांत ये भी है कि अगर थाली आपके आगे से हटाने की कोशिश की जा रही हो तो उसे बिखेर दें, इससे पहले कि वो दूसरे के सामने सजाई जाए. चर्चा है कि तो क्या वसुंधरा सरकार भी कर्मचारियों को 'थाली बिखरने' के लिए ही नाराज कर रही है?
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