आज के दौर में अमित शाह राजनीति के सबसे चतुर खिलाड़ियों में आगे की पंक्ति में माने जाते हैं. 2014 के बाद जिस तरह से उनके नेतृत्व में बीजेपी का विस्तार हुआ है, उसके बाद किसी सबूत की गुंजाइश नहीं बचती. लेकिन राजनीति को ऐसा क्षेत्र माना जाता है जहां दावे के साथ किसी बात पर जोर देना खतरे से खाली नहीं रहता. हालिया समय मे वैसे भी हम एसपी-बीएसपी और लालू-नीतीश जैसे कई मेल-बेमेल राजनीतिक गठजोड़ों के चश्मदीद रहे हैं.
अब ये दावा कि अमित शाह आज के दौर के चाणक्य हैं, तो ये भी राजस्थान में आकर फुस्स होता दिख रहा है. राजस्थान ऐसा इलाका रहा है जहां अकबर, औरंगजेब और मराठा भी पूर्णरूपेण जीत हासिल नहीं कर सके. इस बार आज के दौर के चाणक्य की नीति को नाकाम किया है वसुंधरा राजे सिंधिया ने.
प्रदेशाध्यक्ष का पद बना शतरंज की बिसात
महारानी के नाम से विख्यात वसुंधरा ने ऐसा दांव खेला है कि शाह से न निगलते बन पा रहा है और न ही उगलते. दरअसल, पिछले हफ्ते राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी से इस्तीफा ले लिया गया था. जनवरी में हुए उपचुनाव में करारी हार के बाद से ही संगठन और सरकार में फेरबदल की चर्चाएं आम थीं. हालांकि फिलहाल सरकार में फेरबदल की तो क्या कहें, संगठन में ऐसी कोशिशों से ही लेने के देने पड़ गए हैं.
अशोक परनामी को हटाकर केंद्रीय नेतृत्व, मोदी सरकार में कृषि राज्य मंत्री और जोधपुर सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहता था. हाईकमान ने परनामी से इस्तीफा ले भी लिया. ये अलग बात है कि ऐसा करने में हाईकमान को खासे पसीने आ गए. परनामी से इस्तीफा लेना कितना परेशानी भरा रहा, ये इसी बात से समझा जा सकता है कि आज-कल, आज-कल करते हुए पूरे 3 महीने निकल गए.
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दरअसल, अशोक परनामी वसुंधरा राजे गुट के माने जाते हैं. ऐसे में उपचुनाव में हार के नाम पर अगर परनामी को हटाया जाता तो ये सीधे-सीधे वसुंधरा को जिम्मेदार ठहराने वाली बात होती. परनामी का हटना वसुंधरा की कम होती शक्ति का प्रतीक होता. वसुंधरा राजनीति की कच्ची खिलाड़ी नहीं हैं. इसीलिए उन्होंने भी अपने तरकश के सारे तीरों को निकाल लिया.
तरकश के सारे तीरों का हो रहा इस्तेमाल
पहले वसुंधरा गुट की तरफ से ये मांग उठाई गई कि पार्टी संगठन में फेरबदल का आधार उपचुनाव की हार ही है तो फिर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को विशेष छूट क्यों? बात में दम था लेकिन नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान से खफा नहीं था. इसलिए एमपी को प्रायोरिटी लिस्ट में नहीं रखा गया था. पर बात तर्कपूर्ण थी तो मजबूरी में ही सही मध्य प्रदेश में भी प्रदेशाध्यक्ष को बदलना पड़ा.
हालांकि वसुंधरा राजे को इसकी उम्मीद नहीं थी. इस तीर से भी परनामी की परेशानी दूर न होने पर जातिवाद का मुद्दा उठाया गया है. अब आगे आये हैं बीकानेर के कद्दावर बीजेपी नेता देवी सिंह भाटी. प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर अमित शाह की पहली पसन्द के तौर पर गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आते ही राजपूत समुदाय से ही आने वाले भाटी ने विरोध का झंडा थाम लिया.
देवी सिंह भाटी का तर्क है कि गजेंद्र सिंह के प्रदेशाध्यक्ष बनने पर जाट वोट बीजेपी से कांग्रेस की तरफ शिफ्ट हो सकते हैं. भाटी ने गजेंद्र सिंह को ऐसा नेता बताया जिनकी सांसद बनने से पहले कोई पहचान नहीं थी. भाटी के मुताबिक गजेंद्र सिंह की छवि जाट विरोधी की रही है. यही नहीं भाटी ने प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर नेतृत्व की पसंद नंबर 2 अर्जुन मेघवाल को भी नीच दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ी. भाटी के मुताबिक, मेघवाल ऐसे नेता हैं जो दलितों के 100 वोट भी नहीं दिला सकते.
शाह-महारानी के बीच टशन आखिर क्यों?
प्रदेशाध्यक्ष को बदलने का मुद्दा इतना जटिल हो चुका है कि 6 दिन बाद भी नए नाम की घोषणा नहीं हो सकी है. हालांकि गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम लगभग तय माना जा रहा है. मोदी-शाह की वे पहली पसंद हैं. लेकिन वसुंधरा राजे के चलते अभी तक आधिकारिक घोषणा नहीं हो पा रही है.
दरअसल, मोदी-शाह की जोड़ी राजस्थान में वसुंधरा के इतर नया शक्तिशाली नेतृत्व खड़ा करना चाहती है. ये नेता ऐसा हो जो कम से कम 20-30 साल आगे की दशा और दिशा तय कर सके. इसीलिए अपेक्षाकृत युवा शेखावत पर दांव खेला जा रहा है. फिर इन्हें आगे करके राजपूतों की नाराजगी को दूर करने की कोशिश भी है. शेखावत अपने सांगठनिक कौशल के लिए भी जाने जाते हैं.
राजे के लिए परेशानी का सबब यही है. शायद वे नहीं चाहतीं कि राजस्थान में फिलहाल उनका विकल्प तैयार हो. चुनाव से सिर्फ 6 महीने पहले वे यहां दूसरा शक्ति केंद्र भी नहीं चाहती. वे जानती हैं कि नए प्रदेशाध्यक्ष के रूप में ये टिकट वितरण में उनकी शक्तियों को कम करने की कोशिश ही है. अशोक परनामी राजे गुट के नेता हैं. लिहाजा परनामी के होने से टिकट वितरण में सिर्फ और सिर्फ राजे की ही चलती. राजे की कोशिश ये भी है कि अगर परनामी नहीं तो अरुण चतुर्वेदी या उनके गुट के किसी और नेता को ही प्रदेशाध्यक्ष बनाया जाए.
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हालांकि ये पहली बार नहीं है जब वसुंधरा राजे ने केंद्रीय नेतृत्व को आंखें दिखाई हो. 2009 में भी तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे की अदावत काफी लंबी चली थी. फिर 2013 चुनाव से पहले गुलाब चंद कटारिया के चुनावी यात्रा निकालने पर भी राजे और केंद्रीय नेतृत्व में तनातनी हुई थी. पिछले 3 साल में ये भी कई बार सुना गया कि दिल्ली में अमित शाह ने 2-2 दिन तक वसुंधरा राजे को मिलने का वक़्त ही नहीं दिया.
बीजेपी के बवाल पर कांग्रेस की नजर
इधर बीजेपी में दिल्ली से जयपुर तक बवाल मचा हुआ है. कांग्रेस इसमें अपने लिए खुश होने के बहाने ढूंढ रही है. दोनों तरफ ये समझ जा रहा है कि सरकार बनाने का रास्ता जातीय गुणा-भाग से ही सुलझेगा. हालिया उपचुनावों में राजपूत-ब्राह्मण कार्ड का प्रयोग सफल होने से कांग्रेस उत्साहित है. अशोक गहलोत की अपनी जाति के लिए पहली बार की गई टिप्पणी भी इसी रणनीति का हिस्सा है.
विधानसभा चुनाव में अब महज 6 महीने का वक़्त बचा है. लेकिन कांग्रेस अपनी रणनीति बनाने से पहले बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष का नाम जानना चाह रही है. एक सीनियर कांग्रेस नेता ने ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में बताया कि अगर गजेंद्र सिंह प्रदेशाध्यक्ष बनते हैं तो फिर उनके यहां किसी जाट या ब्राह्मण को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जा सकता है. वैसे भी, 2 अप्रैल की एससी/एसटी रैली के बाद ब्राह्मण, वैश्य और राजपूत ज्यादा राजनीतिक भागीदारी के लिए लामबंद हो रहे हैं.
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जाट और ब्राह्मण जैसी जातियां केंद्र और राज्य सरकार में राजपूतों की अधिक नुमाइंदगी पर भी नाराजगी जताती रही हैं. ओबीसी जातियों को भी अपनी कम भागीदारी का रोष है. बहरहाल, मौजूद उठापटकों को देखते हुए लग रहा है कि आने वाला चुनाव और इससे पहले का समय काफी संघर्षपूर्ण रहने वाला है.
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