राजस्थान की जनता को अपना जनादेश सुनाए हुए पूरे 11 दिन हो गए हैं. लेकिन आमने-सामने के युद्ध में बीजेपी को हराकर सत्ता में पहुंची कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. पहले 3 दिन तक मुख्यमंत्री के नाम को लेकर रस्साकशी का दौर चला. 17 दिसंबर को मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने शपथ ले ली. लेकिन पिछले 4 दिन से उनके बीच अपने सिपहसालारों यानी मंत्रिपरिषद को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है.
चुनाव से पहले टिकटार्थियों ने दिल्ली में डेरा डाला था. टिकट बंटवारे की पूरी कवायद को दिल्ली में निपटाया गया. बाद में राज्य के मुख्यमंत्री को लेकर पूरी लड़ाई दिल्ली में ही लड़ी गई. अब मंत्री पदों के लिए विधायकों के बीच लॉबिंग की जंग भी दिल्ली में ही लड़ी जा रही है. मंत्री पद के इच्छुक विधायक दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं.
राजस्थान का मंत्री पद, दिल्ली में दौड़
20 और 21 दिसंबर को राजस्थान के मंत्रिपरिषद के लिए दिल्ली में बैठकों का दौर चला. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट, पर्यवेक्षक के सी वेणुगोपाल और एआईसीसी सचिव भंवर जितेंद्र सिंह ने कई दौर की बैठकों में विभिन्न नामों पर चर्चा की. इन बैठकों में जितेंद्र सिंह समन्वयक की भूमिका में नजर आए.
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11 दिसंबर को चुनाव परिणाम के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री और अलवर से सांसद रहे जितेंद्र सिंह अचानक लाइमलाइट में आ गए. दरअसल, उनकी मध्यस्थता से ही गहलोत और पायलट के बीच मुख्यमंत्री पद की जंग में बीच का रास्ता निकाला जा सका था. पायलट ने मुख्यमंत्री पद से कम कुछ भी मंजूर न होने का स्पष्ट ऐलान कर दिया था. तब आखिर में जितेंद्र सिंह ही उन्हें डिप्टी सीएम पद के लिए राजी कर पाने में सफल रहे थे. बताया जा रहा है कि दोनों गुटों के बीच अब भी मध्यस्थ सूत्र वही हैं.
200 सदस्यीय विधानसभा में कुल 30 मंत्री नियुक्त किए जा सकते हैं. गहलोत और पायलट के बीच 15-15 मंत्री पदों पर सहमति बनी थी. पिछले हफ्ते प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पायलट ने कहा था कि करोड़पति एक नहीं दो-दो हैं तो उसका मतलब यही था कि पदनामों (मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री) के अलावा बाकी शक्तियां दोनों बराबरी में ही इस्तेमाल करेंगे. लेकिन अब पेंच एक दूसरे के गुटों से बनने वाले संभावित मंत्रियों के नामों पर आपत्ति को लेकर है.
अपने नहीं दूसरे के मंत्री पर गतिरोध
बताया जा रहा है कि दोनों गुटों ने अपने-अपने चहेते विधायकों के नाम प्रस्तावित कर दिए हैं. अब राहुल गांधी की सहमति मिलते ही इनकी घोषणा कर दी जाएगी. संभावना है कि सोमवार यानी 24 दिसंबर को इन्हें शपथ भी दिला दी जाए.
गतिरोध दो-एक नामों को लेकर बना हुआ है. पायलट जयपुर के सिविल लाइन्स से विधायक प्रताप सिंह खाचरियावास को हर हाल में मंत्री बनाना चाहते हैं. जबकि गहलोत को वे फूटी आंख नहीं सुहाते. ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव परिणामों के बाद उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के समर्थन में बयान दिया था.
दूसरी ओर, गहलोत जयपुर के ही झोटवाड़ा से विधायक चुने गए लाल चंद कटारिया को मंत्री बनाना चाहते हैं. चुनाव से काफी पहले कटारिया ने गहलोत को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में ऐलान करने की मांग की थी. खुद गहलोत ने भी उनकी शख्सियत सीएम के लायक चेहरों के बराबर बताई थी. कटारिया यूपीए-2 में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री भी रह चुके हैं. लेकिन दिक्कत ये है कि कटारिया को सचिन पायलट पसंद नहीं करते हैं. इस तरह अपने गुट के नामों को लेकर नहीं बल्कि दूसरे खेमे के नामों को लेकर अड़चनें बनी हुई हैं.
मुख्यमंत्री की मुश्किलें और भी हैं!
गहलोत और पायलट के बीच जब पद को लेकर खींचतान चल रही थी, तब पायलट के निवास पर 17 विधायक पहुंचे थे. बाद में अपुष्ट सूत्रों ने ये संख्या 25 बताई. इसका अर्थ ये लगाया गया कि 99 में से बाकी 74 विधायक गहलोत के समर्थन में हैं. अब गहलोत के सामने ये संख्या भी एक चुनौती नजर आ रही है.
इतने विधायकों में से सिर्फ 15 को चुनना खासा मुश्किल भरा काम तो है ही. इसके अलावा, गहलोत को कांग्रेस की टिकट न मिलने पर बागी होकर जीते और उनके समर्थन का ऐलान करने वाले विधायकों को संतुष्ट करना भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. इस तरह के कम से कम आधा दर्जन विधायक तो हैं ही मसलन, दूदू विधायक बाबू लाल नागर, खंडेला विधायक महादेव सिंह या गंगानगर विधायक राजकुमार गौड़. हालांकि, इन लोगों को निगमों या बोर्डों में राजनीतिक नियुक्तियां दी जा सकती हैं. या फिर संसदीय सचिव बनाया जा सकता है जैसे गहलोत ने ही 2008 में किया था. लेकिन इसमें भी पायलट अड़चन लगा सकते हैं.
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ये भी खबरें आ रही हैं कि फिलहाल 30 में से 17 या 18 मंत्री ही बनाए जाएं. बाकी मंत्रियों की नियुक्ति लोकसभा चुनाव के बाद तक टाल दी जाए. इससे विधायकों के बीच असंतोष को कम किया जा सकेगा क्योंकि बचे हुए दर्जन भर पद सबको परफॉरमेंस देते रहने के लिए लालायित करते रहेंगे. बताया जा रहा है कि पार्टी हाईकमान ने राज्य से 25 में से 20 लोकसभा सीट जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है. 2014 में कांग्रेस के पास यहां एक भी सीट नहीं थी.
बहरहाल, कांग्रेस के इस अंदरूनी झगड़े में राज्य की जनता बेहाल होती जा रही है. भामाशाह स्वास्थ्य योजना का रिन्यूएल लेट हो गया. यूरिया की सप्लाई की व्यवस्था बिगड़ रही है. किसान कर्ज माफी की घोषणा हो गई है लेकिन वास्तविक लाभार्थी को लेकर तस्वीर साफ नहीं हो पा रही है. बीजेपी नेता तो अब ये भी कहने लगे हैं कि मुख्यमंत्री को जब अपने मंत्री चुनने की भी स्वतंत्रता नहीं है तो 5 साल कैसा कामकाज होगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है. आशंका है कि गहलोत और पायलट के 2 पावर सेंटर कहीं जनता को सुशासन देने के बजाय शासन हथियाने में ही न उलझे रहें.
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