थार के मरुस्थल में रेत का बवंडर और सियासी तूफान आना आम बात है. राजस्थान की सियासत में अगर उठापटक नहीं हो तो वो चुनाव, चुनाव के तौर पर नहीं देखे जाते हैं. इस बार भी राजस्थान के चुनाव में रेगिस्तान में आने वाली तेज 'आंधी' जैसे हालात बनते हुए दिखाई दे रहे हैं. चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक पार्टियां जीत की उम्मीद में अपना हित साधने लगती है. चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीके आज के वक्त में नेता अपनाने लगे हैं. वहीं अगर चुनाव जीतना है तो 'जाति' का बोलबाला काफी उफान पर है. अगर किसी राजनीतिक पार्टी के जातिगत समीकरण सटीक बैठते हैं तो चुनाव में बाजी पक्की मानी ली जाती है और वहीं अगर जातीय समीकरण खिलाफ हो तो चुनाव में पासा पलटते भी देर नहीं लगती है. ऐसे में राजस्थान का चुनाव जाति के लिहाज से काफी अहम माना जाता है. क्षेत्रफल के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा राज्य राजस्थान स्वतंत्र भारत का एक ऐसा प्रदेश है जो अपने शासन के लिए बरसों से जाना जाता है. राजाओं से लेकर महाराजाओं तक का इतिहास इस प्रदेश की मिट्टी में देखने को मिलता है. साल 2018 के लिए राजस्थान में विधानसभा चुनावों का शंखनाद हो गया है. साल 2013 में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के सिर जीत का सहरा बंधा था लेकिन इस बार हवा कुछ अलग है
देश की आजादी के बाद 30 मार्च 1949 को राजस्थान भारत के एक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था. तब से लेकर अब तक राजस्थान की धरती में कई उतार चढ़ाव देखे गए. राजनीति में भी कई सूरमा आए और गए लेकिन राजस्थान की जनता हर बार 5 सालों में सरकार से हिसाब लेना बखूबी जानती है. वहीं वक्त के साथ जैसे-जैसे राजस्थान की आबादी बढ़ी है, वैसे-वैसे यहां का जातीय समीकरण नेताओं के फायदे और नुकसान दोनों की वजह रहा है. अब 2018 के विधानसभा चुनाव में भी राजस्थान का जातीय समीकरण खेल कर सकता है क्योंकि 2013 में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को जनता ने नकार कर राजे को सिहांसन सौंपा था और अब वही जनता राजे की सरकार में हड़ताल करती हुई दिखाई दी है. बेशक इस जनता का गुस्सा सिर्फ किसी घर-परिवार तक नहीं रहता है, बल्कि वो अलग-अलग वर्ग के लोगों में बंट जाता है. यही बंटवारा चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के वोट काटने और वोट बैंक बनाने का सबसे सरल तरीका भी माना जाता है.
राजपूत
अगर बात की जाए राजपूत समुदाय की तो राजस्थान में राजपूतों को भारतीय जनता पार्टी का वोट बैंक माना जाता है. राजस्थान के सबसे बड़े राजपूत नेता भैरों सिंह शेखावत थे जिन्होंने इस जाति के लोगों को बीजेपी से जोड़कर रखा. वर्तमान राजनीति में राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों में से 100 सीटों पर राजपूतों की अच्छी पकड़ मानी जाती है. अगर राजपूत समुदाय का वोट किसी एक पार्टी के पक्ष में चला जाए तो 100 सीटों पर जीत-हार का फैसला करने में ये समुदाय अहम भूमिका निभाता है. ऐसे में देखा जाए तो अगर किसी पार्टी को राजस्थान में राजपूतों का समर्थन हासिल है तो उसकी सरकार बननी लगभग तय मानी जाती है. मौजूदा विधानसभा में राजपूत समुदाय के 25 से ज्यादा विधायक हैं जिनमें 20 से ज्यादा विधायक अकेले बीजेपी से आते हैं. लेकिन इस बार के चुनावों में बीजेपी के लिए राजपूतों का वोट हासिल करना टेढ़ी खीर मानी जा रही है. इसके पीछे की मोटी वजह गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर को माना जा रहा है. दरअसल, गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के विरोध में राजपूत समुदाय के लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन किया था. लोगों का कहना था कि इस मामले में सरकार ने उनका साथ नहीं दिया. ऐसे में इस बार वसुंधरा सरकार के राजपूत वोट भी कटते दिखाई दे रहे हैं. इसके अलावा जैसलमेर में चतुर सिंह एनकाउंटर, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाने से रोकने की वजह से भी राजपूत समुदाय के लोग मौजूदा बीजेपी सरकार से नाराज चल रहे हैं. वहीं अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में सीनियर मंत्री रहे जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया. इसे भी बीजेपी के पारंपरिक राजपूत मतदाताओं की नाराजगी के रूप में देखा जा रहा है.
जाट
राजस्थान की राजनीति में जाटों का शुरू से जलवा देखने को मिला है. राज्य के शेखावटी क्षेत्र (सीकर, झुंझुनूं, चूरू) के साथ ही पश्चिमी राजस्थान कहने जाने वाले मारवाड़ (बारमेड़, नागौर) में इस समुदाय की पकड़ है. राजस्थान में जाटों का काफी चतुर समुदाय के वोटर के तौर पर देखा जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस समुदाय के लोग वक्त की नजाकत देखकर वोट करते हैं. ऐसा कहा जा सकता है कि लहर जिस ओर होगी, इस समुदाय का वोट उसी तरफ होगा. हालांकि पारंपरिक तौर पर जाट समुदाय को कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता है. लेकिन अब ये समुदाय बीजेपी और कांग्रेस दोनों के बीच बंट गया है. जाट समुदाय एक खेतिहर जाति है. कांग्रेस ने जागीरदारी प्रथा खत्म कर जाटों को जमीन का मालिकाना हक दिलवाया था. जिसके कारण ये कांग्रेस का वोट बैंक बना. लेकिन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर आरक्षण दिलवा दिया. तब से इस जाति के वोट बीजेपी को भी जाने लगे. इसके अलावा राजस्थान में अशोक गहलोत पीछे की कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि जाट समुदाय अशोक गहलोत को पसंद नहीं करते हैं. इसके कारण भी जाटों का राजस्थान में कांग्रेस की तरफ झुकाव कम हुआ है. पीछे के वक्त में काफी जाट नेता बीजेपी में शामिल हुए थे, ये सोचकर की बीजेपी में उनकी सुनी जाएगी लेकिन बीजेपी में इस समुदाय के कद्दावर नेता भी अलग-थलग पड़े हुए हैं. इनमें बाड़मेर से सांसद सोनाराम चौधरी का नाम आगे है. राजस्थान में बीजेपी को राजपूतों की पार्टी मानी जाती है. ऐसे में जाट समुदाय इस बात से भी थोड़ा दबाव में देखे जाते हैं. हालांकि इस बार फिर जाट समुदाय चुनाव में कुछ खेल कर दें, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है.
गुर्जर
परंपरागत रूप से गुर्जर का समर्थन भारतीय जनता पार्टी को हासिल है. लेकिन इस समुदाय के सबसे बड़े नेता सचिन पायलट कांग्रेस के नेता हैं. दरअसल, साल 1980 में गुर्जर समुदाय के राजेश पायलट कांग्रेस के टिकट पर भरतपुर से सांसद चुने गए और बीजेपी के लिए यहीं से मामला गड़बड़ाना शुरू हो गया. पहले राजेश पायलट और अब सचिन पायलट के होने से गुर्जर समुदाय का वोट बैंक बीजेपी से कांग्रेस की तरफ शिफ्ट होता देखा जा रहा है क्योंकि गुर्जर समुदाय अब सचिन पायलट को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ देखने की आस लगाए हुए हैं. इसके अलावा बीजेपी से नाराजगी का एक कारण गुर्जर समुदाय के पास यह भी है कि बीजेपी गुर्जरों को आरक्षण दिलाने में भी असफल रही है. समय-समय पर गुर्जर आंदोलन भी बीजेपी की सरकार में हुए हैं लेकिन उनकी बातों और मांगों को हर बार अनदेखा ही किया गया. हालांकि गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान किरोड़ी सिंह बैंसला ने अगुवाई की थी. किरोड़ी सिंह बैंसला बीजेपी की टिकट पर लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं. ऐसे में एक और कांग्रेस से सचिन पायलट हैं तो दूसरी और बीजेपी से किरोड़ी सिंह बैंसला हैं. दोनों बड़े नेता हैं और ऐसे में गुर्जर समुदाय का वोट दोनों पार्टियों के बीच बंट भी सकता है.
मीणा
राजस्थान में गुर्जर और मीणा समुदाय को एक दूसरे का विरोधी माना जाता है. ऐसे में जहां गुर्जर परंपरागत रूप से बीजेपी के साथ माने जाते हैं तो मीणा परंपरागत रूप से कांग्रेस की तरफ देखे जाते हैं. लेकिन राजनीति में उथल-पुथल न हो तो वो राजनीति नहीं मानी जाती है. अब जहां गुर्जर कांग्रेस की तरफ जा रहे हैं तो वहीं बीजेपी मीणा समुदाय को अपनी ओर खींचने में लगी है. साल 2008 में किरोड़ी लाल मीणा ने वसुंधरा राजे के साथ मतभेद के चलते बीजेपी छोड़ दी थी. अब मीणा वोटरों को लुभाने के लिए बीजेपी ने किरोड़ी लाल मीणा को दोबारा पार्टी में शामिल किया है. किरोड़ी लाल मीणा की मीणा सुमदाय के लोगों के बीच अच्छी पकड़ मानी जाती है. वोटर्स इनके पीछे-पीछे वोट देने को राजी हो जाते हैं. ऐसे में किरोड़ी लाल मीणा का बीजेपी में शामिल हो जाने से मीणा समुदाय के वोट का फायदा बीजेपी को मिल सकता है.
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