राजस्थान में कांग्रेस से 3-0 की शिकस्त खाने के बाद बीजेपी में मंथन का दौर शुरू हो गया है. शुक्रवार को मुख्यमंत्री आवास पर हुई बैठक में वसुंधरा राजे, प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी, संगठन मंत्री चंद्रशेखर, वी. सतीश और पूरी कोर कमेटी ने हार के कारणों पर चर्चा की. लेकिन सूत्रों के हवाले से जो खबरें बाहर आई, उनमें लगा नहीं कि पार्टी ने उन कारणों पर गंभीरता से चर्चा की, जिनकी वजह से वास्तव में हार हुई है. ये जरूर है कि बैठक में आने वाले विधानसभा चुनाव में कमर कस कर मेहनत करने के दावे जरूर किए गए.
बताया जा रहा है कि अजमेर जिले में दो बूथ ऐसे हैं जहां से बीजेपी को एक भी वोट नहीं मिला. ये तब बड़ी हैरानी की बात हो जाती है, जब पिछले कुछ समय में सारा फोकस इसी पर किया गया है कि पार्टी को बूथ लेवल पर मजबूत कैसे किया जाए. पिछले साल जुलाई में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह 3 दिन के जयपुर दौरे पर आए थे. तब शाह ने बूथ मैनेजमेंट और संगठन की मजबूती को ही चुनाव जीतने की मास्टर चाबी बताया था. इसके लिए विस्तारक योजना पर ध्यान देने के निर्देश भी दिए थे. गांवों में आम लोगों को पार्टी से जोड़ने के लिए विस्तारकों को बाइक देने की भी योजना तैयार की गई थी.
क्या खत्म हो रही शाह की जादूगरी?
अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद बीजेपी अब देश के 29 में से 19 राज्यों में सत्ता में है. 10 करोड़ से ज्यादा सदस्यों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भी बन चुकी है. बीजेपी की इस भारी सफलता के पीछे शाह की बूथ प्रबंधन रणनीति को ही बड़ी वजह माना जाता है. लेकिन अब जो ये बात सामने आ रही है कि पूरे गांव से बीजेपी को एक भी वोट नहीं मिला, तो ये पूरी रणनीति पर ही सवालिया निशान लगा देती है. क्या पूरे गांव में बीजेपी का एक भी नेता, कार्यकर्ता या सदस्य नहीं है.
किसी दूरदराज के दक्षिण भारतीय गांव में ऐसा होने पर एकबारगी भरोसा भी किया जा सकता है. लेकिन हिंदी बेल्ट के राज्य में और वो भी मोदीराज में ये असंभव सा ही लगता है. अगर ये असंभव भी संभव हुआ है तो निश्चित रूप से पार्टी के लिए इससे बड़ा आईना कुछ और नहीं हो सकता. बीजेपी के लिए अब कौनसा मंथन बाकी रह जाता है?
एक भी वोट न मिलना तब और शर्मनाक हो जाता है जब 4 साल पहले अलवर पौने 3 लाख और अजमेर पौने 2 लाख वोट से जीता गया हो. ये तब भी शर्मनाक हो जाता है जब सांसद आदर्श ग्राम योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, मुख्यमंत्री आवास योजना, भामाशाह योजना, उज्ज्वला योजना, अंत्योदय योजना, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, मनरेगा, दीनदयाल ग्रामीण कौशल्य योजना जैसी ग्रामीण कल्याण की असंख्य योजनाएं चल रही हों. इसका मतलब तो ये हुआ कि इन योजनाओं से फायदा उठाने के बावजूद वोटर ने बीजेपी को वोट देने लायक ही नहीं समझा, या फिर उसे इन योजनाओं का वास्तव में फायदा ही नहीं मिला.
अगर पूरे गांव में बीजेपी को पसंद करने वाला एक भी वोटर नहीं है तो इसका मतलब ये भी है कि सरकार काम नहीं कर रही. या फिर उस काम का असल फायदा बीच वाले उसी तरह अब भी उठा रहे हैं, जिसकी मिसाल राजीव गांधी दिया करते थे. राजीव गांधी को 30 साल पहले मालूम था कि दिल्ली का 1 रुपया पंचायत में पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे ही रह जाता है. अगर ऐसा है तो ये और भी शर्मनाक है. आखिर खुद को प्रधानसेवक कहने वाले मोदीजी ने जनता को वचन दिया था कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा.
शहरों से भी बजी खतरे की घंटी
बहरहाल, गांवों से ही नहीं बीजेपी के लिए खतरे की घंटी शहरों से भी बजी है और जबरदस्त बजी है. बीजेपी आमतौर पर शहरी पार्टी ही मानी जाती रही है. हिंदी बेल्ट में तो बीजेपी की जीती सीटों का बड़ा हिस्सा शहरों से ही आता रहा है. लेकिन राजस्थान के इन उपचुनावों में पार्टी शहरों में भी बुरी तरह पिछड़ी है. अलवर शहर विधानसभा क्षेत्र आजादी के पहले से संघ परिवार का गढ़ रहा है. इस बार यहां अंतर 25 हजार से भी ज्यादा का दिखा है.
2 लोकसभा और एक विधानसभा के लिए ये उपचुनाव हुए थे. यानी कुल 17 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस और बीजेपी की परीक्षा थी. लेकिन बीजेपी सारी की सारी 17 विधानसभाओं में पिछड़ गई. 2013 विधानसभा चुनाव में में ये सीटें बीजेपी ने जीती थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी इनपर भारी बढ़त मिली थी. लेकिन 4 साल बाद अब इन 17 सीटों पर कांग्रेस के 4 लाख 35 हजार वोट बढ़ गए हैं.
इस बार उन 3 लाख 31 हजार मतदाताओं ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया, जिन्होने 2014 में भगवा पार्टी में भरोसा जताया था. तीनों सीटों पर कुल मिलाकर बीजेपी की 2 लाख 93 हजार से ज्यादा वोट से हार हुई है. ऐसे में लोग तो यहां तक सवाल उठा रहे हैं कि क्या मोदी का जादू भी खत्म हो गया है.
हालांकि राजस्थान में हर 5 साल में सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है. 1993 में राष्ट्रपति शासन के बाद हुए चुनाव को छोड़ दें तो 1985 से ही हम देख रहे हैं कि कोई मुख्यमंत्री अपनी सरकार की वापसी नहीं करवा सका है. ये बात हर नेता के जेहन में रहती है. पिछले दिनों देवस्थान मंत्री राजकुमार रिणवां ने जो बयान दिया, उसका मजमून ये था कि जब हारना ही है तो हम काम भी क्यों करें.
लेकिन काम न करना और सिर्फ शोशेबाजी करना ही शर्मनाक हार की सबसे बड़ी वजह बनता दिख रहा है. इस पर हम पिछले लेख में चर्चा कर चुके हैं. अब मैं आपको कई ऐसे कारणों पर ध्यान दिलाना चाहूंगा जिनकी चर्चा बीजेपी का कोई मंत्री और संगठन पदाधिकारी मंथन मीटिंग में करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
भ्रष्टाचारियों को बचाने वाला काला कानून
2017 में वसुंधरा सरकार ने भ्रष्ट लोकसेवकों को बचाने वाले एक काले कानून को पारित कराने की कोशिश की. चौतरफा विरोध के बावजूद पूरी सरकारी मशीनरी ने इसे सही सिद्ध करने में ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया. हालांकि मीडिया और जनदबाव में इसे मजबूरन सेलेक्ट कमेटी को भेजना पड़ा. हाईकोर्ट ने भी इस पर सरकार की खिंचाई की. इस अध्यादेश की अवधि पूरी हो गई है. लेकिन आगे लागू न किए जाने का ऐलान नहीं किया गया है.
इस काले कानून के मुताबिक किसी लोकसेवक पर भ्रष्ट आचरण के आरोप हों, तब भी न उसकी शिकायत की जा सकती है, न कोर्ट उसकी जांच का आदेश दे सकता है और न मीडिया ही उसकी पहचान उजागर कर सकता है. राजस्थान की 7 करोड़ जनता ने एकसुर में इसका विरोध किया था. फिर बीजेपी को वोट कैसे मिलते?
सरकारी संपत्तियों की येन-केन-प्रकारेण बिक्री
2013 में चुनावी नतीजों वाले दिन मैं जयपुर स्थित सचिवालय में कुछ अधिकारियों और साथी पत्रकारों से चर्चा कर रहा था. एक सीनियर अधिकारी ने बातों-बातों में कहा कि देखना अब अखबारों में प्रॉपर्टी के फुलपेज विज्ञापन आने लगेंगे. हैरानी की बात देखिए कि अगले दिन से ही ऐसा दिखने भी लगा जबकि 2008 के बाद से ही प्रॉपर्टी बाज़ार में भारी मंदी दिख रही थी.
2003-2008 के राजे सरकार के कार्यकाल में प्रॉपर्टी बाज़ार में इतनी तेजी आई थी कि जमीन खरीदकर अपना घर बनाना आम आदमी के बूते से बाहर की बात हो गई थी. लेकिन 2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद काले धन और बेनामी संपत्तियों को लेकर सख्ती होने से प्रॉपर्टी बाज़ार में अपेक्षित तेजी नहीं आ पाई.
कांग्रेस नेता आरोप लगाते हैं कि इसकी भरपाई के लिए ही सरकार ने सरकारी संपत्तियों से पैसा बनाने पर फोकस किया. समय-समय पर ऐसे प्रस्ताव लाए गए, जिनका व्यापक जनविरोध हुआ मसलन, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों को पीपीपी मोड पर देना, सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड पर देना, कर्मचारियों को तनख्वाह के नाम पर रोडवेज की जमीनें बेचना, सरकारी जमीन से अतिक्रमण हटाने की बजाय उसे अतिक्रमियों को ही बेच देना जैसे प्रस्ताव.
विपक्ष का आरोप है कि चूंकि स्वास्थ्य केंद्रों, स्कूलों और रोडवेज के पास पुराने जमाने से बेशकीमती जमीन और इंफ्रास्ट्रक्चर है. इसलिए अपने चहेतों को ये संपत्तियां बेचने का रास्ता बनाया गया. स्कूलों को पीपीपी मोड पर देने की योजना को ही देखेंगे तो आप समझ जाएंगे कि वसुंधरा राजे सरकार के इरादे क्या हैं. प्रस्ताव बनाया गया कि स्कूल निजी संचालकों को सौंपे जाएंगे. इसके बदले संचालक 75 लाख रुपए का निवेश करेगा. ये रकम सरकार उसे 12% ब्याज के साथ लौटाएगी. स्टाफ आदि का सारा खर्च संचालक को ही उठाना होगा.
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ये प्रस्ताव कितना बेतुका है अब ये देखिए. जयपुर के पास कोटपूतली की सीनियर सैकंडरी स्कूल मुख्य बाजार में बनी हुई है. इस स्कूल के तहत एक बगीचा, 2 बड़े सभागार, 10 बीघा से ज्यादा जमीन और 50 से ज्यादा कमरे हैं. अगर 75 लाख में किसी को इतनी संपत्ति मिल जाए तो 5 साल में ही वो कई करोड़ कमा लेगा. एक करोड़ से ज्यादा तो उसे सरकार ही वापस कर देगी.
निजी संचालक बगीचे को मैरीज गार्डन के रूप में इस्तेमाल करेगा. खेल मैदान में स्पोर्ट्स क्लब के जरिए कमाएगा, सभागारों को आयोजनों के लिए किराए पर देगा. बच्चों से मनचाही वसूली करेगा और बेरोजगारी के आलम में सस्ता स्टाफ रखेगा. ये समझ से परे है कि जब सरकार ब्याज समेत पैसा वापस कर रही है तो खुद ही क्यों नहीं निवेश कर रही. गांवों में इस योजना का भारी विरोध हो रहा है लेकिन फिक्र किसे है?
इसी तरह, कर्ज़ माफी के मुद्दे पर किसानों से भी वादाखिलाफी की गई है. अन्य बीजेपी शासित राज्यों में किसानों के कर्ज़ माफी की घोषणा होने के बाद राजस्थान में भी ये मांग उठी थी. आंदोलन खत्म करने के लिए सरकार ने घोषणा भी कर दी. अब इसमें केरल मॉडल का पेंच फंसाया गया है. जानकार बताते हैं कि ये लागू हुआ तो न किसान का पूरा कर्ज़ माफ़ होगा और न ही पूरे किसानों को फायदा मिलेगा. फिर किसान परिवार बीजेपी को क्यों वोट देगा. लेकिन फिक्र किसे है?
नेगेटिव इमेज के बावजूद नेतृत्व परिवर्तन नही
जनता के बीच मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की इमेज लगातार नकारात्मक होती जा रही है. समय-समय पर नेतृत्व परिवर्तन की मांग भी इसी वजह से उठती है. लेकिन पता नहीं कि वो कौनसी घुट्टी है जो वसुंधरा राजे केंद्रीय नेतृत्व को पिलाने में कामयाब रही हैं. उन्हे हर बार फ्री हैंड दे दिया जाता है. नेतृत्व परिवर्तन की बात तो छोड़िए, जयपुर दौरे पर अमित शाह ने सरकार की समीक्षा करने तक से इनकार कर दिया था. अभी जनवरी में प्रधानमंत्री भी बाड़मेर में जमकर तारीफ करके गए हैं.
संगठन में वसुंधरा राजे की पकड़ कितनी मजबूत है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि राजस्थान बीजेपी की वेबसाइट पर प्रदेशाध्यक्ष या पार्टी के कामकाज के बजाय वसुंधरा राजे की तारीफों के पुल कहीं ज्यादा हैं. प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी के लिए यहां तक कहा जाता है कि वे वसुंधरा के 'मनमोहन सिंह' हैं.
संगठन से सरकार तक अहंकार ही अहंकार नजर आता है. आलम ये है कि आलोचना न प्रदेश नेतृत्व सुनना चाहता है और न ही केंद्रीय नेतृत्व. राजस्थान पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी ने बताया कि अमित शाह के पूछने पर जब उन्होने आने वाले चुनाव में बीजेपी की सीटें घटकर 30-35 रह जाने का अंदेशा जताया तो शाह चिढ़ गए.
ये अहंकार ही है जिसने संघ को भी पार्टी से दूर कर दिया है. जयपुर में मेट्रो के लिए मंदिर तोड़ने पर सरकार ने संघ की नहीं सुनी. पहलू खान हत्या मामले में बीजेपी विधायक पर ही संघ स्वयंसेवकों को जेल मे डलवाने के आरोप लगे. ये भी तो अहंकार ही है जब प्रदेशाध्यक्ष खुद कहें कि बीजेपी को दो-तीन हार से कोई फर्क नहीं पड़ता. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में तो पार्टी को बचा लिया लेकिन क्या राजस्थान का किला बच पाएगा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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