पहले से निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की कुंडा विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह 'राजा भैया' ने लखनऊ के रमाबाई मैदान में एक विशाल जनसमूह को सम्बोधित करके अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास कराया. 'राजा भैया रजत जयंती अभिनंदन समारोह' नामक इस कार्यक्रम में राजा भैया ने अपनी प्रस्तावित नई पार्टी के नाम और एजेंडे की घोषणा करके प्रदेश की राजनीति में एक सियासी सवाल खड़ा कर दिया है. कार्यक्रम स्थल पर पहुंची भीड़ एक तरफ एक अनोखे राजनैतिक ध्रुवीकरण की तरफ इशारा कर रही थी, वहीं दूसरी तरफ राजनैतिक पण्डितों को इस हवा का अंदाजा नहीं लग पाने से कानाफूसी और अफवाहों का बाजार भी गर्म हो चला है.
राजा भैया की यह रैली कई मायनों में खास थी, उनके समर्थकों के जरिए दावा किया गया था कि इस रैली में लगभग तीन से चार लाख लोग जुटेंगे. रमाबाई मैदान से आई तस्वीरों में यह संख्या बल लगभग उतने जनसमूह के होने का इशारा भी कर रहा था, और रैली की तस्वीरें जैसे ही सोशल मीडिया के माध्यम से सत्ता के गलियारों में पहुंची वैसे ही प्रदेश के सियासी हलकों में सुगबुगाहट होने लग गई. समर्थकों को रैली में लाने के लिए बाकायदा एक ट्रेन भी बुक कराई गई थी और राजा भैया के गृह जिले प्रतापगढ़ के लिए अलावा प्रदेश के कई जिलों से आए लोग इस रैली में जमा हुए थे. राजा भैया के खास सिपहसालारों ने इस रैली के लिए प्रदेश के अलग-अलग जिलों के नेताओं को भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी दी थी.
अपराध से इतर राजा भैया का राजनैतिक चेहरा और मीडिया की दूरी
देश और प्रदेश का मीडिया राजा भैया में हर कदम में न्यूज एंगल खोजने के चक्कर में सिर्फ उनके हथियारों के शौक और उन पर आपराधिक मामलों पर प्रकाश डाल कर लोकप्रियता बटोरता आया है. हर चुनाव में टीवी न्यूज चैनल और अखबार उन्हीं पुरानी खबरों को धो-पोछ कर उनकी घुड़सवारी करने या हथियार चलाने की तस्वीरों के साथ चस्पा करके इतिश्री करता आया है.
रही सही कसर मायावती के शासन काल में लगे मुकदमों और हवाई जहाज इत्यादि का तड़का लगा कर मीडिया के जरिए समय-समय पर पूरी की जाती रही है. ऐसे में राजा भैया के असल राजनैतिक जीवन को समझने बूझने से भागते क्षेत्रीय मीडिया को जब तक उनके असली राजनैतिक पहुंच के बारे आभास होना शुरू हुआ तब तक उन्होंने राजनैतिक जीवन के 25 साल पूरे कर डाले और 25 सालों के राजनैतिक जीवन के बाद अगर राजा भैया जैसा कोई राजनीतिज्ञ अपनी पार्टी बना रहा है तो उस पर चर्चा होनी उतनी ही जायज है जितनी शिवपाल यादव की पार्टी बनने पर की जा रही है.
बढ़ता राजनैतिक कद और सियासी दायरा
प्रतापगढ़ के भदरी रियासत के राजा श्री उदय प्रताप सिंह और श्रीमती मंजुल राजे के पुत्र रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया का जन्म 31 अक्टूबर 1967 को पश्चिम बंगाल में हुआ था. इनके पितामह राजा बजरंग बहादुर सिंह, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बनने के अलावा हिमाचल प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर भी मनोनीत हुए थे. राजा भैया के पिता राजा उदय प्रताप सिंह विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मानद पदाधिकारी रह चुके हैं.
राजा भैया अपने परिवार के पहले ऐसे सदस्य हैं जिन्होंने पहली बार सक्रिय राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया है. अपने पहले चुनाव के लिए साईकिल चला कर नामांकन स्थल पर जाने वाले राजा भैया मात्र 26 साल की उम्र में 1993 में पहली बार कुंडा विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर निर्वाचित होने के बाद से लेकर अब तक लगातार इसी सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल करते आ रहे हैं, कुंडा विधानसभा सीट से वे लगातार 6 विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं.
दो विधानसभा क्षेत्र, एक एमएलसी (स्नातक क्षेत्र), एक जिला पंचायत, आठ ब्लॉकों पर प्रभुत्व
उनका राजनैतिक दायरा सिर्फ एक विधान सभा सीट तक सीमित नहीं रहता बल्कि 2004 में उन्होंने अपने करीबी अक्षय प्रताप सिंह को एसपी के टिकट पर लोकसभा में निर्वाचित करवा कर अपने दायरे का एहसास करवा दिया था. कुंडा से सटी सीट बाबागंज से भी पिछले पांच चुनाव से रघुराज प्रताप सिंह के करीबी ही निर्दलीय विधायक निर्वाचित होते आ रहे हैं.
इसके अलावा वर्ष 2010 के मायावती के कार्यकाल को छोड़ दें तो वर्ष 1995 से उनके करीबी ही इस इलाके के जिला पंचायत अध्यक्ष बनते आ रहे हैं. तत्काल प्रभाव में विधान परिषद सदस्य अक्षय प्रताप सिंह समेत बाबागंज विधायक विनोद सरोज, जिला पंचायत अध्यक्ष के अलावा कुंडा, बाबागंज, बिहार, कालांकाकर, लक्ष्मणपुर, मानधाता, संडवा चंद्रिका, सदर ब्लाक में उनके ही खास लोग ब्लॉक प्रमुख हैं.
कल्याण सिंह, स्वर्गीय राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और मुलायम सिंह यादव समेत अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में भी मंत्री रह चुके राजा भैया के सियासी चेहरे के पीछे उनके समर्थक और उनके चाहने वाले अभिभावक का चेहरा देखते हैं. ऐसे में प्रतापगढ़ के अलावा प्रदेश के अन्य इलाकों में राजपूतों के अलावा अगड़ी और पिछड़ी जातियों में राजा भैया के समर्थकों की ठीक ठाक संख्या है.
बचा-खुचा काम उनके प्रारंभिक शैक्षिक जीवन के दोस्त और लखनऊ विश्वविद्यालय में उनके साथ शिक्षा प्राप्त कर चुके लोगों की लम्बी फेहरिस्त पूरी करती है. प्रदेश भर में उनके समर्थक बड़े गर्व से राजा भैया के जरिए किए एहसानों और मदद की कहानियां बताते और सुनाते रहे हैं और पिछले एक साल से उनके वयोवृद्ध पिता राजा उदय प्रताप सिंह के जरिए प्रतापगढ़ रेलवे स्टेशन से गुजरने वाली रेलगाड़ियों के यात्रियों के बीच नियमित रूप से वितरित किया जा रहा जलपान भी मीडिया की नजर में आने के बावजूद समाचारों में जगह नहीं बना पाया है.
आखिर क्या होगा 'जनसत्ता' के आने से
राजा भैया के नए राजनैतिक दल के सियासी समर में उतर जाने के बाद लखनऊ के सियासी हलकों में कुछ सवाल तैर रहे हैं. राजनीति के माहिर खिलाड़ी राजा भैया सीधे तौर पर बीजेपी से लड़ाई न लड़ कर एसपी-बीएसपी से नाराज लोगों को लामबंद करने में चुपचाप लगे हुए हैं. इस भीड़ में बीजेपी से नाराज अगड़ी जातियों के अलावा एसपी-बीएसपी से नाराज पिछड़े वर्गों से आने वाले कुछ समुदाय भी शामिल हैं.
एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि वे इलाहाबाद, प्रतापगढ़ और जौनपुर जैसे इलाकों में ऐसे उम्मीदवार भी उतार सकते हैं जिससे बीजेपी को सीधा फायदा होने की उम्मीद है. इसके अलावा प्रारंभिक चर्चा इस बात पर ज्यादा है कि राजा भैया के माध्यम से अगड़ी जातियों के बीच पिछले कुछ महीनों से चल रहे एससी एसटी एक्ट से उपजे विरोध को पिछड़ी जातियों के साथ समीकरण बना कर जोड़ने और दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के मतों के विपक्ष में एक नया ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो सकते हैं और ऐसे में बीजेपी को सीधा नुकसान होने की भी उम्मीद है.
राजा भैया की रैली में हुई भीड़ और राजनैतिक समीकरणों के कारण लखनऊ में नवभारत टाइम्स के राजनैतिक संपादक और उत्तर प्रदेश को विगत दो दशकों से करीब से देख रहे वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सिंह बताते हैं 'यह कहना गलत नहीं होगा कि राजा भैया के समर्थकों की अच्छी खासी संख्या कई सालों के बाद आज लखनऊ के सियासी गलियारों में चर्चा का विषय थी लेकिन लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और इतने कम समय में यह भीड़ मतदाताओं में तब्दील हो पाएगी कि नहीं इसमें अभी संशय है.'
सिंह आगे बताते हैं कि 'राजा भैया का प्रभाव एक क्षेत्र विशेष में ही है, ऐसे में मतदाता लोकसभा चुनावों में वोट देते समय स्थानीय दलों से अधिक तरजीह दोनों राष्ट्रीय पार्टियों समेत एसपी-बीएसपी गठबंधन को अधिक देगा. लेकिन अगर राजा भैया की तरफ से यह लामबंदी अगले विधान सभा चुनावों तक जारी रही और अगर उन्होंने स्थानीय दलों के साथ मिलकर किसी साझे मोर्चे का रुख किया तो वे विधानसभा चुनावों में एक बड़ी शक्ति बन कर उभरेंगे और ऐसे दलों की गोलबंदी का मुजाहिरा आज ही देखने को मिला है जब शिवपाल यादव ने उन्हें पुष्प स्तबक औक एक पत्र के माध्यम से शुभकामना संदेश भेज कर दोस्ती के दरवाजों को खुला रखा है. देखना होगा कि यह सियासी दोस्ती अपने साथ और कितने घटक दलों को जोड़ती है लेकिन तब तक इंतजार करना ही राजा भैया के लिए श्रेयस्कर है.'
2019 के लोकसभा चुनाव 2014 से अलग होंगे इस बात पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है. उत्तर प्रदेश की राजनीति की गंगा में अगले तीन चार महीनों में बहुत पानी बहने वाला है, ऐसे में आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी समेत एसपी-बीएसपी को भी क्षेत्रीय क्षत्रपों को साध कर चुनाव लड़ने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है. देखना होगा कि इस तमाम राजनैतिक रस्साकशी का दूरगामी लाभ राजा भैया को मिल पाता है या नहीं, लेकिन तब तक उनके नाम और प्रभाव के कारण सियासी केतली में होने वाला उबाल आने वाली कड़कड़ाती सर्दियों में गर्माहट लाने के लिए काफी होगा.
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