लोकतंत्र के मैदान पर सियासी महाभारत जारी है. अपने अपने तरीके से खुद को पांडव और कौरव बताने की होड़ भी जारी है. कांग्रेस के 84वें अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि ‘बीजेपी और आरएसएस कौरवों की तरह सत्ता के लिए जंग लड़ रही है तो कांग्रेस पांडवों की तरह सच्चाई के लिए लड़ रही है.’ पिछले कुछ महीनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार कहा था कि वो गीता पढ़ रहे हैं. कांग्रेस के 84वें अधिवेशन के दौरान उनके संबोधन में गीता का ज्ञान भी दिखा. लेकिन उसमें कर्म के फल के प्रति चिंता भी दिखी.
नए अध्यक्ष के लिए और देश के तमाम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए भी ये संबोधन बेहद खास था. लोग राहुल के एक-एक शब्द को गहराई से समझने और करीब से सुन रहे थे. लेकिन तकरीबन 45 मिनट के भाषण में राहुल कभी कांग्रेस से दूर तो कभी पीएम मोदी के पास दिखे. उन्होंने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जोश भरने की पुरजोर कोशिश की लेकिन बीजेपी-आरएसएस का डर भी गिनाते रहे. उन्होंने कांग्रेस की सत्ता में वापसी करने की ललकार भी भरी लेकिन सत्ता के संघर्ष को जीतने का मंत्र बताने में चूक भी गए.
राहुल ने कहा कि कांग्रेस पांडवों की तरह सच्चाई के लिए लड़ रही है. सवाल उठता है कि आखिर पांडवों के प्रतीक के तौर पर कांग्रेस को आगे रखकर राहुल क्या बताना चाहते हैं? क्या कांग्रेस के साथ साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अन्याय हुआ? क्या वो सत्ता के वनवास या फिर कांग्रेस के ‘अज्ञातवास’ को पांडवों से जोड़कर देख रहे हैं? सत्ता में आज बीजेपी अगर उन्हें कौरव नजर आ रही है तो बीजेपी को सत्ता का सिंहासन सौंपने वाली भी जनता-जनार्दन ही है.
कांग्रेस को देशभर में एकजुट और मजबूत करने के लिए राहुल ने इस अधिवेशन में कई मंत्र तो दिए लेकिन एक ठोस रणनीति या फिर सटीक दिशा नहीं दिखी. सवाल ये भी है कि वो पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच दशकों से खड़ी 'बर्लिन की दीवार' को किस तरह से गिराएंगे?
राहुल भले ही साफगोई से ये बात स्वीकारें कि आखिर के कुछ सालों में कांग्रेस देश की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकी लेकिन सिर्फ इतने भर से भरपाई नहीं हो सकती है. राहुल को सोचना होगा कि जिस कांग्रेस का आज वो नेतृत्व कर रहे हैं वो सत्तर साल में सिमटते हुए कहां से कहां पहुंच गई.
सिर्फ स्टेज को खाली रखकर ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में जोश नहीं भरा जा सकता है. कांग्रेस को सोचना होगा कि आखिर वो क्या वजहें हैं कि जिनकी वजह से कांग्रेस के अधिवेशन की तस्वीर 84वें अधिवेशन तक बदलती चली गई. आज स्टेज को खाली रखकर कार्यकर्ताओं को संदेश देना पड़ रहा है. एक वो भी वक्त था जब एक से बढ़कर एक कांग्रेसी नेताओ की वजह से स्टेज गौरवान्वित होता था. स्टेज पर बैठे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को देखकर पिछली पंक्ति के कार्यकर्ताओं में उनके जैसा बनने का सपना पला करता था. स्टेज का ये खालीपन रणनीति कम बल्कि शून्यता को ज्यादा प्रदर्शित करता है.
राहुल ने अधिवेशन में कहा कि कांग्रेस शेरों की पार्टी है. इसके बावजूद संख्याबल में कभी देश की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने वाली कांग्रेस को यूपीए गठबंधन की छांव में अपना राजनीतिक वजूद बचाना पड़ा. दस साल के एकछत्र शासन के बाद साल 2014 के चुनाव में हार के बावजूद कांग्रेस की रणनीति में कोई परिवर्तन नहीं आया. इतनी बड़ी हार को सिर्फ अहंकार बताकर खारिज नहीं किया जा सकता. उसके बाद गुजरात में भी प्रदर्शन में सुधार सत्ता में बदलाव नहीं ला सका. त्रिपुरा में नंबर दो पर रहने वाली पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर सकी.
कांग्रेस को हार की हताशा से बाहर निकालने के लिए वो बीजेपी को ही लगातार हारने वाली पार्टी कह गए. वो ये भूल गए कि यूपी के जिन उपचुनावों में बीजेपी को हार मिली है वहां कांग्रेसी उम्मीदवारों की जमानत भी जब्त हुई है.
जहां मोदी ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के अभियान की पूर्णता की तरफ बढ़ रहे हैं तो कांग्रेस अभी भी बीजेपी पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के आरोप लगाकर राजनीति की पुरानी चालों का सहारा ले रही है. खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए मंदिरों के पुजारियों को कांग्रेस-बीजेपी में बांट कर राहुल ने बीजेपी को एक नया मुद्दा भी दे दिया है.
कांग्रेस को ये समझना होगा कि धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण देने के लिए वो हिंदुओं की आस्था को अनजाने में ही आहत करने काम नहीं करें क्योंकि साल 2014 की चुनावी हार पर एंटोनी रिपोर्ट ने हिंदुओं से दूरी को ही हार की वजह माना था. बीजेपी ने तभी राहुल के भाषण पर पलटवार करते हुए कहा है कि जिस पार्टी ने श्रीराम के अस्तित्व पर सवाल उठाएं हों वो अब सत्ता में आने के लिए खुद को पांडव बता रही है.
राहुल को कांग्रेस के भविष्य के लिए कौरव-पांडव के इतिहास से बाहर निकलना होगा क्योंकि अब हस्तिनापुर भी समय से बहुत आगे जा चुका है. कांग्रेस के रणनीतिकार इस बात पर मंथन करें कि यूपी उपचुनाव हारने के बाद बीजेपी कर्नाटक चुनाव न जीत ले. क्योंकि इससे पहले मध्यप्रदेश में चित्रकूट का उपचुनाव हारने के बाद बीजेपी ने गुजरात का चुनाव जीता तो राजस्थान का उपचुनाव हारने के बाद त्रिपुरा में लेफ्ट का किला भी ढहाया.
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