सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद जब 76 साल के ए.के. एंटनी 46 वर्षीय राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर रहे थे, तब वे इस वास्तविकता का भी इजहार कर रहे थे कि कांग्रेस पार्टी में अब उनकी उम्र वाले नेताओं का राजनीतिक सूर्य अस्त हो गया है.
आजादी के बाद नरसिंह राव का जमाना छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस पार्टी अमूनन नेहरु-गांधी परिवार की धुरी पर ही घूमती रही है. बताया गया कि कांग्रेस कार्यसिमति की बैठक में सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से भाग नहीं ले सकीं, लेकिन राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने के संबंध में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव से साफ है कि सोनिया गांधी से अनुरोध किया गया था कि वे अनुपस्थित रहें.
पिछले दो साल से यह कहा जा रहा था कि राहुल गांधी को किसी भी क्षण कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. सोनिया गांधी के बीमार होने की वजह से पिछले लगभग डेढ़ साल से राहुल गांधी ही अघोषित कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ही काम कर रहे थे.
जाहिर है अगले कुछ सप्ताह के भीतर राहुल गांधी औपचारिक तौर पर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल लेंगे. साल 2004 में राहुल गांधी के कांग्रेस में प्रवेश के बाद पार्टी के भीतर युवा व पुराने नेताओं के बीच निरंतर तनाव व टकराव की स्थिति रही है.
युवक कांग्रेस के प्रभारी महासचिव के रूप में राहुल ने पार्टी के भीतर सभी स्तरों पर युवा नेताओं को तरजीह देकर कांग्रेस को नया आकार देने की कोशिश की. कांग्रेस के कई पुराने नेता आज भी यह चाहते थे कि सोनिया गांधी ही पार्टी का नेतृत्व करें.
दो दिन पहले ही शीला दीक्षित ने इस तरह का बयान किया था. इसलिए यह तय माना जाना चाहिए कि भाजपा की तरह कांग्रेस पार्टी में भी पुराने नेताओं का मार्गदर्शक मंडल जैसा कुछ गठित होगा.
सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी को चुनावी शिकस्त देकर अपनी राजनीतिक प्रभावशीलता सिद्ध की थी, लेकिन राहुल को 12 साल बाद भी पार्टी के लिए अपनी चुनावी उपयोगिता सिद्ध करनी है.
उनके खाते में चुनावी पराजयों की लंबी फेहरिस्त है. पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में उनको प्रधानमंत्री बनाए जाने की कोशिश हुई थी, पर उन्होंने जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया.
कांग्रेस अध्यक्ष पद के संदर्भ में भी लंबे समय तक उनकी अनिच्छा पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं था. अगले साल के आरंभ में कुछ राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव राहुल की एक और अग्नि-परीक्षा के रूप में देखे जाएंगे.
उत्तर प्रदेश के कांग्रेस नेताओं की यह मांग राहुल के प्रति अविश्वास है कि प्रियंका गांधी पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार करें. 12 साल के सक्रिय राजनीतिक जीवन में राहुल गांधी अपने सभी नुस्खों का इस्तेमाल कर चुके हैं, लेकिन नतीजे अनुकूल नहीं रहे.
कांग्रेस पार्टी के भीतर ही उनकी राजनीतिक क्षमता को लेकर बड़े पैमाने पर अविश्वास की स्थिति है, जिसकी वजह से सांगठनिक स्तर पर उनकी परेशानियां बढ़ेगी. खानदानी नेतृत्व में भरोसा रखनेवाली कांग्रेस पार्टी के भीतर राहुल गांधी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था, इसलिए आज की स्थिति में राहुल पार्टी की ताकत भी है और कमजोरी भी.
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