लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान जिस वक्त राहुल गांधी का भाषण चल रहा था, फेसबुक और ट्विटर पर प्रतिक्रियाओं की बरसात हो रही थी. यह बात साफ थी कि पूरा देश सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता के भाषण को बहुत गंभीरता से ले रहा है.
भाषण को लेकर सोशल मीडिया पर एक बड़े तबके की प्रतिक्रिया सकारात्मक थी. लोग यह मान रहे थे कि राहुल गांधी कम्युनिकेटर के तौर पर पहले से बेहतर हुए हैं. वे तथ्यपरक ढंग से अपनी बात रख रहे हैं और उनकी शैली में उसी तरह की आक्रमकता है, जो भारत में राजनीति करने वाले किसी शख्स में होनी चाहिए.
लेकिन अचानक आया कहानी में एक ट्विस्ट. भाषण देते-देते राहुल गांधी ने यह कहा कि नरेंद्र मोदी भले ही उनसे नफरत करें लेकिन उनके मन में प्रधानमंत्री को लेकर कोई दुर्भावना नहीं है. इसके बाद राहुल अति नाटकीय तरीके से पीएम की सीट तक पहुंचे और उनसे गले लग गये.
राहुल लगातार कहते आए हैं कि भारतीय राजनीति में नफरत बहुत बढ़ गई है, यह नफरत कम होनी चाहिए. इस लिहाज से गले लगने के उनके तमाशाई कदम को भी बहुत से लोगों ने एक बेहतर पहल माना. लेकिन राहुल ने अचानक पास बैठे एक कांग्रेसी सांसद को देखकर आंख मारी और उसके बाद कहानी पूरी तरह बदल गई.
अनाड़ी से खिलाड़ी बनना अभी बाकी है
`झप्पी और कनखी’ प्रकरण से पूरा मीडिया रंगा हुआ है. लेख का विषय इस कहानी को और आगे बढ़ाना नहीं बल्कि इस बात का विश्लेषण है कि छवि को लेकर लगातार संघर्षरत राहुल गांधी किस दिशा में जा रहे हैं. क्या राहुल गांधी अपनी ब्रांडिंग की सबसे बड़ी समस्या यानी विश्वसनीयता के संकट से अब भी उसी तरह जूझ रहे हैं?
यह धारणा लंबे अरसे तक कायम रही कि राहुल अपनी राजनीति को लेकर गंभीर नहीं हैं या अब तक वे कुछ ऐसा करने में नाकाम रहे हैं, जिसकी वजह से उन्हे गंभीरता से लिया जाये. राजनीतिक परिपक्वता के अलावा कंसिस्टेंसी यानी निरंतरता उनकी एक बड़ी समस्या रही है. किसी एक मुद्दे पर वे बहुत प्रभावशाली नज़र आते हैं लेकिन उसके बाद कुछ ऐसा होता है कि उनकी तमाम मेहनत पर पानी फिर जाती है. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ.
थोड़ा पीछे लौटकर देखें तो समझ में आता है कि इमेज को लेकर राहुल गांधी लगातार अंतर्विरोध से घिरे रहे हैं. एक राजनेता के रूप में अपनी ब्रांडिंग को लेकर वे कभी भी बहुत आश्वस्त नहीं रहे हैं. वे सबकुछ आजमा कर देखना चाहते हैं. पहले वे एक खास तरह की इमेज के लिए काम करते हैं और कामयाबी नहीं मिलती तो कुछ और आजमाने की कोशिश करते हैं.
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2009 के चुनाव में यूपीए की सफलता का सेहरा राहुल गांधी के सिर बांधा गया. इसके बाद से कांग्रेस में उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की कवायद शुरू हुई. उसी वक्त से मीडिया ने ब्रांड राहुल पर पैनी नजर रखनी शुरू की. उनकी बॉडी लैंग्वेज और उनके हर बयान का पोस्टमार्टम किया जाने लगा.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का वह दूसरा टर्म था. लंबे अरसे से पीएम इन वेटिंग रहे विपक्षी नेता लालकृष्ण आडवाणी भी 75 पार कर चुके थे. ऐसे में कांग्रेस के थिंक टैंक ने सोचा कि बुजुर्गों के दबदबे वाली भारतीय राजनीति में अगर राहुल को एक फायर ब्रांड यंग लीडर के रूप में पेश किया गया तो युवा मतदाताओं पर इसका अच्छा असर पड़ेगा.
2009 से लेकर 2014 तक राहुल की पूरी ब्रांडिंग एंग्री यंगमैन की रही. याद कीजिये 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा का चुनाव. मंच पर खड़े राहुल गांधी का आस्तीन चढ़ाकर पूछना- क्या आपको गुस्सा नहीं आता? आपको गुस्सा आना चाहिए. याद कीजिए समाजवादी पार्टी का मेनिफेस्टो बताते हुए राहुल गांधी का अपनी जेब से एक कागज निकालना और उसे मंच पर फाड़ना. कुछ इसी अंदाज में राहुल गांधी ने अपनी ही केंद्र सरकार के अध्यादेश को कचरा बताते हुए उसे रद्दी की टोकरी में फेंकने की बात कही थी.
लेकिन यह एंग्री यंगमैन इमेज काम नहीं आई. राहुल के जबरदस्त कैंपेन के बावजूद एक-एक करके तमाम विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पिटती चली गई. 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक गिरावट के साथ कांग्रेस 43 सीटों पर पहुंच गई.
नाकाम एंग्री यंगमैन से 'प्रेममार्गी' तक
जाहिर है, एंग्री यंगमैन के तौर पर राहुल के ब्रांडिंग की कोशिशें पूरी तरह नाकाम हो गईं. लोकसभा चुनाव में करारी हार का असर यह हुआ कि कांग्रेस बहुत समय के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य से लगभग गायब हो गई.
इस बीच राहुल ने अपने इमेज की री-ब्रांडिंग की कोशिशें शुरू की. सिस्टम से नाराज एंग्री यंगमैन अब इस बात से उदास रहने लगा कि समाज और राजनीति में बहुत कड़वाहट घुल चुकी है. राहुल ने हर जनसभा में यह कहना शुरू किया कि वे इस नफरत को मिटाना चाहते हैं. गुजरात के अपने पूरे कैंपेन में राहुल ने यह बात कई बार दोहराई. उनके यही तेवर कर्नाटक कैंपेन में भी नज़र आए. प्रेममार्गी के रूप में राहुल गांधी के अवतार की सबसे बड़ी बानगी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान देखने को मिली जब वे प्रधानमंत्री मोदी से गले लग गए.
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अगर एक राजनेता के रूप में राहुल गांधी परिस्थितियों को भांप रहे हैं और यह महसूस कर रहे हैं कि राजनीतिक विरोध तेजी से निजी शत्रुता में बदलती जा रही है तो यह यकीनन वे परिपक्व हो रहे हैं.
यह सच है कि मौजूदा राजनीति का जो तेवर है, वह इससे पहले कभी नहीं दिखा. लेकिन यह भी सच है कि राहुल में आए इस बदलाव को दुनिया ब्रांडिंग की एक कोशिश के नाकाम होने के बाद नई इमेज गढ़ने की पहल के रूप में देख रही है. राहुल गांधी के नए नवेले सेंस ऑफ ह्यूमर को भी इसी कोशिश का हिस्सा माना जा सकता है.
राहुल गांधी कभी अपने मजाकिया स्वभाव के लिए मशहूर नहीं रहे. लेकिन ट्विटर पर अब वे कुछ अलग अंदाज दिखा रहे हैं. उनके वन लाइनर में अब एक नई धार है. यह पूछा जाने लगा कि उनके ट्वीट्स कौन लिखता है तो इसके जवाब में राहुल ने अपने फेवटेर डॉगी `पिडी’ का वीडियो पोस्ट करके कहा कि यही मेरे मैसेज लिखता है. सिर्फ सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि जनसभाओं में भी राहुल `शाह जादा खा गया’ जैसे शब्दों की बाजीगरी वाले नारे उछालने लगे. यकीनन यह एक तरह का बड़ा बदलाव है, जिसके तहत राहुल खुद को तथ्यपरक बात करने वाले एक हाजिर जवाब नेता के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं.
सेक्यूलरिज्म के साथ शिवभक्ति का कांबो
इमेज मेकओवर में एक और पहलू सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ झुकाव भी है. कांग्रेस पार्टी घोषित तौर पर सेक्यूलरिज्म की हिमायती रही है. इसका मतलब यह है कि आस्था एक निजी मामला है और राजनीति को इससे अलग रखा जाना चाहिए.
लेकिन राहुल गांधी यह महसूस कर रहे हैं कि हिंदू धर्म से दूरी कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रही है और विरोधी उनकी पार्टी पर मुस्लिम परस्त होने का लेवल चिपका रहे हैं. इस इमेज को बदलने के लिए राहुल इस कदर धार्मिक हुए कि चुनावी सभा में अपने मंच पर वे नारियल फोड़ने और अगरबत्ती जलाने लगे.
राहुल के कर्मकांडी हिंदू होने के सबूत के रूप में कांग्रेस ने जनेऊ वाली उनकी तस्वीर पेश की. इतना ही नहीं राहुल ने शिवभक्त होने का दावा करते हुए कैलाश मानसरोवर जाने की इच्छा जताई. संसद तक में राहुल ने खुद को शिवभक्त बताया.
राहुल का यह नया अवतार बीजेपी को डरा रहा है. योगी आदित्यनाथ जैसे नेता उनके हिंदू होने पर सवाल उठा रहे हैं तो प्रधानमंत्री मोदी भी बदले में खुद को शिवभक्त बता रहे हैं. राहुल के इस नये तेवर से धर्मनिरपेक्ष राजनीति का कितना नुकसान हो रहा है, यह एक अलग सवाल है लेकिन यकीनन कांग्रेस को फायदा हो रहा है.
राहुल की शख्सियत में एक और बदलाव यह है कि अब वे नरेंद्र मोदी से उन्हीं की शैली में दो-दो हाथ करने की कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं. वे जनसभा में मोदी का मजाक उड़ाते नजर आते हैं. कई बार उनके अंदाज में मिमिक्री करने की भी कोशिश करते हैं. यह अलग बात है कि कभी-कभी दांव उल्टा पड़ चुका है. उनके कई बयानों को बीजेपी के सोशल मीडिया सेल ने इस तरह पेश किया कि राहुल को नुकसान उठाना पड़ा.
बॉडी लैंग्वेज में भी खासा बदलाव आया है. लेकिन उनका सार्वजनिक आचरण समय-समय पर उनकी पार्टी के लिए असमंजस की स्थिति पैदा करता है. लोकसभा में मोदी से गले मिलने के बाद आंख मारना एक उदाहरण है. इससे पहले इफ्तार की दावत में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ टेबल शेयर करते हुए मोदी के फिटनेस वीडियो का मजाक उड़ाना भी कुछ ऐसा ही मामला था. कई राजनीतिक प्रेक्षकों ने यह महसूस किया कि बेशक राहुल गांधी प्रधानमंत्री के फिटनेस वीडियो का मजाक उड़ाते लेकिन पूर्व राष्ट्रपति के सामने ऐसा करने से उन्हें बचना चाहिए था.
थोड़ा लेफ्ट-थोड़ा राइट, थोड़े गर्म तो थोड़े नर्म, थोड़े सेक्यूलर और पूरे कर्मकांडी. आखिर सवाल यह है कि राहुल गांधी को देखा किस रूप में जाए? नये पुराने राजनेताओं की अपनी-अपनी शैलियां जग-जाहिर हैं. लेकिन ब्रांड राहुल किसी एक दिशा में जाता हुआ नहीं दिख रहा है. वे सबकुछ थोड़ा-थोड़ा आजमा रहे हैं, जनता को जो पसंद आये वही अच्छा.
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तो क्या यह मान लिया जाए कि अपनी इमेज को लेकर अंतर्विरोधो में घिरे राहुल गांधी की लोकप्रियता की गाड़ी अटक गई है? ऐसा मानना नादानी होगी. राहुल गांधी ने पिछले चार साल में एक उपलब्धि जरूर हासिल की है. अब तक यह माना जाता था कि वे महत्वपूर्ण मौकों पर गायब हो जाते हैं. लेकिन पिछले एक साल में भारतीय राजनीति में राहुल सक्रिय उपस्थिति लगातार बनी हुई है. वे अपनी मां सोनिया गांधी के इलाज के लिए विदेश गये तब भी उन्होंने इसकी जानकारी सोशल मीडिया पर दी.
अगर प्रधानमंत्री मोदी विशाल रैली और रोड शो के जरिए अपनी राजनीतिक ताकत का इजहार करते हैं तो राहुल आवाम से सीधे जुड़ने में यकीन रखते हैं. भीड़ में घुसकर लोगों से हाथ मिलाना, फोटो खिंचवाना और सीधे किसी वोटर के घर पहुंच जाना राहुल के ये कुछ चिर-परिचित अंदाज हैं, जो उन्हे वोटरों के करीब लाते हैं. मीडिया का एक तबका बेशक राहुल गांधी के खिलाफ हो और सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ चाहे जितने कैंपेन चलें, देखा जाये तो इन बातों का उन्हें फायदा ही हो रहा है.
झप्पी और कनखी वाले पूरे प्रकरण में राहुल को भी उतना ही मीडिया कवरेज मिला जितना प्रधानमंत्री मोदी को. बीजेपी भले ही यह दावा करे कि वह राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेती लेकिन खुद प्रधानमंत्री ने राहुल पर निशाना साधने में अच्छा-खासा वक्त खर्च किया. यकीनन कांग्रेस समर्थकों को इन बातों पर खुश होना चाहिए.
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )
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