बादशाह लुई सोलहवें की अगुवाई में फ्रांस में करीब हजार साल से चली आ रही राजशाही का खात्मा हो गया था. शाही खानदान में जन्मे लुई सोलहवें की खूबी ये थी कि वो न तो फैसले लेता था. न किसी की बात सुनता था. सही और गलत सलाह में फर्क करने की सलाहियत भी उसमें नहीं थी. अपने इगो के चक्कर में अक्सर वो सही बात अनसुनी कर देता था. लुई सोलहवें का पूरा दौर विरोधाभासों का दौर था.
जब फ्रेंच समाज उठा-पटक के दौर से गुजर रहा था, तब वो आंखें मूंदे बैठा रहा. दिक्कतें बढ़ती गईं और आखिर में फ्रांस में क्रांति के तौर पर सामने आईं. फ्रेंच इंकलाब की वजह से लुई सोलहवें और उसके वंश का राज खत्म हो गया. जिस वक्त देश मुश्किलों से जूझ रहा था, उस वक्त लुई सोलहवां शिकार पर चला जाता था. फैसला लेने के बजाय मौज-मस्ती को तरजीह देने की आदत ही लुई सोलहवें को आखिर में ले डूबी.
सिमट गई राहुल की सियासी सल्तनत
इतिहास के पन्नों में दर्ज ये शख्सियत हिंदुस्तान की राजनीति के एक अहम किरदार से बहुत मेल खाती है. भारतीय राजनीति के वो शख्स हैं, राहुल गांधी. राहुल गांधी को राजनीति का राजकुमार कहा जाता है. हालांकि उनकी सियासी सल्तनत काफी सिमट गई है. उनकी विरासत का दायरा भी काफी घट गया है. राहुल गांधी के बारे में कहा जाता है कि वो बेमन से राजनीति में हैं. वो अक्सर बड़े और साहसी फैसले लेने से डरते हैं.
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उनकी कोशिश होती है कि यथास्थिति बनाए रखी जाए. राहुल गांधी ऐसे नेता हैं जो फुल टाइम राजनीति को पार्टटाइम करते हैं. जो काम पर जाने से पहले छुट्टी पर चले जाते हैं. वो बड़े से बड़े नेता से मिलने से भी परहेज ही करते हैं. वो वंशवादी विरासत वाले लोगों से घिरे हुए हैं. राहुल गांधी ऐसे ही लोगों को तरजीह देते हैं, जो उनकी चापलूसी करते हैं. ऐसे लोग राहुल को हकीकत से दूर रखने में पूरी ताकत लगाए रखते हैं. कुल मिलाकर ये कहें कि राहुल गांधी भारतीय राजनीति के औरंगजेब या लुई सोलहवें हैं, तो गलत नहीं होगा.
2014 में जब राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे, तब देश के 13 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी. जबकि बीजेपी केवल 7 सूबों में सत्ता पर काबिज थी. अब हिमाचल प्रदेश भी बीजेपी के खाते में चला गया है. 22 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद गुजरात में बीजेपी ने अपनी सरकार दोबारा बना ली. कांग्रेस गुजरात में भी सरकार विरोधी माहौल तैयार करने में नाकाम रही. आज बीजेपी 19 राज्यों में सत्ता में है. वहीं कांग्रेस सिर्फ 4 राज्यों में. नए साल में एक और बड़ा राज्य कर्नाटक उससे छिन जाने का डर है.
खतरा नहीं देख पा रहे 'युवराज'
अब जबकि राहुल गांधी के सामने फ्रेंच क्रांति जैसी सियासी चुनौती खड़ी है, फिर भी वो उसे देख नहीं पा रहे हैं. गुजरात के नतीजे आने के 24 घंटे बाद राहुल गांधी मीडिया से मुखातिब हुए तो वो बेहद कमजोर नेता लगे. उनके मुकाबले पीएम मोदी और अमित शाह की तेजी देखने लायक थी. दोनों नेता पार्टी कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा चुके थे. वो गुजरात की जीत को अपने तरीके से देखने की बातें मीडिया से कर चुके थे.
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राहुल गांधी ने गुजरात में पार्टी के प्रदर्शन को नैतिक जीत बताया. उन्होंने दावा किया कि ये ब्रांड मोदी को करारा झटका है. जिस दिन नतीजे आए उस दिन राहुल गांधी ने मीडिया से बात करने के बजाय स्टार वॉर फिल्म देखने का फैसला किया. शायद उनका बयान इस फिल्म से ही प्रभावित था. तभी तो राहुल गांधी पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं से मिलकर आगे की रणनीति बनाने के बजाय छुट्टी मनाने गोवा चले गए. वहीं बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह गुजरात की जीत के बाद कर्नाटक विजय की रणनीति बनाने के लिए बैंगलुरू में पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रहे थे. उधर राहुल छुट्टी पर थे.
इधर मेघालय में उनके कई विधायकों ने पार्टी छोड़ दी. इससे एक और राज्य में कांग्रेस के हाथ से सत्ता जाने का खतरा मंडराने लगा. राज्य की मुकुल संगमा सरकार अब कुछ ही दिनों की मेहमान मालूम होती है. राहुल की गैरमौजूदगी की वजह से ट्रिपल तलाक बिल पर भी कांग्रेस कनफ्यूज दिखी. लोकसभा में तो कांग्रेस ने ट्रिपल तलाक बिल का समर्थन किया. लेकिन राज्यसभा में ट्रिपल तलाक बिल पर कांग्रेस का स्टैंड एकदम बदला हुआ दिखा. एक साथ दो नावों की सवारी कोई अच्छी रणनीति नहीं होती. लेकिन हमेशा की तरह राहुल गांधी इस मसले पर भी कोई फैसला नहीं ले पाए. जबकि इस मौके पर उन्हें आगे बढ़कर पार्टी की कमान संभालनी चाहिए थी.
राहुल गांधी को समझना होगा कि इस वक्त भारत की 65 फीसद आबादी 35 साल से कम उम्र की है. वोटर का ये तबका अभी ये तय नहीं कर पाया है कि वो 2019 में किसे वोट देगा. जबकि इसी वोटर ने पहले 2014 में और फिर 2017 में बीजेपी की जीत में अहम रोल निभाया था. सोशल मीडिया जैसे ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर बेहद सक्रिय ये वोटर 2019 के चुनाव में भी बेहद अहम साबित होंगे.
वोटर भी नहीं पहचान पा रही कांग्रेस
रोजगार और अर्थव्यवस्था की हालत पर गंभीरता से विचार करने के अलावा ये वोटर पहचान को लेकर भी बेहद जागरूक हैं. वो सत्ताधारी पार्टी के साथ भी जा सकते हैं, अगर वो उन्हें तवज्जो देती है. इसी वजह से इन वोटरों ने 2014 में बीजेपी और मोदी को झोली भर-भर के वोट दिया था. इन मतदाताओं ने लुटियंस जोन के राजनेताओं की एक बात नहीं सुनी. चायवाला कहकर मोदी का अपमान करने वालों को इन्हीं वोटरों ने सबक सिखाया था. इन लोगों ने वंशवादी राजनीति को नकार कर न्यू इंडिया की उम्मीदों को पूरी करने के लिए वोट दिया था.
लेकिन क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी इन बातों को समझ पाई है? सोनिया और राहुल गांधी को चाहिए था कि वो राज्य स्तर के नेताओं को आगे करके चुनाव लड़ते. जैसे कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब में कर दिखाया. अगर गुजरात में भी कांग्रेस ने ये रणनीति अपनायी होती, तो वहां के चुनाव भी मोदी बनाम राहुल गांधी नहीं होते. ऐसे मुकाबले के नतीजे हमें पहले से पता होते हैं.
ऐसे मैच में अक्सर बीजेपी ही भारी पड़ती है. अगर गुजरात में कांग्रेस ने किसी लोकप्रिय नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया होता, तो शायद नतीजे कुछ और होते. लेकिन कांग्रेस ने उधार के तीन युवा नेताओं पर अपना दांव खेला. अगर पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार घोषित किया होता, तो मुकाबला विजय रूपाणी बनाम वो नेता होता. कांग्रेस के लिए हालात और बेहतर होते. तब शायद कांग्रेस गुजरात का गढ़ जीतने में भी कामयाब हो जाती.
ट्रूडो की बेहद सस्ती नकल
नई दिल्ली के लुटियंस जोन के बहुत से दरबारी राहुल गांधी को कनाडा के पीएम जस्टिन ट्रूडो जैसा नेता बताते हैं. राहुल गांधी, जस्टिन की बेहद सस्ती नकल हैं. उनमें गंभीरता नहीं है. वो काबिलियत को तरजीह नहीं देते. जबकि कांग्रेस के पास इतनी शानदार राजनैतिक विरासत है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ हारने की वजह से लोग और वोटर राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेते. असल में राहुल गांधी हार से सबक नहीं लेते. ये बात लोगों को ज्यादा नागवार गुजरती है. सोशल मीडिया पर राहुल गांधी की सक्रियता बढ़ी है. लेकिन अभी भी उनकी बातों से सामंतवाद की बू आती है.
ऐसा लगता है कि वो अपने सामंतों को ओहदे और खिलवतें बांट रहे हैं. आज के भारत में ऐसी राजनीति के लिए जगह नहीं है. युवा वोटर को ये बात पसंद नहीं आती. अगर राहुल गांधी ये बात नहीं समझ पाते हैं, तो उनके करियर में तरक्की के आसार कम ही हैं. उनके सियासी करियर का खात्मा भी लुई सोलहवें जैसा ही होगा. अफसोस की बात ये ज्यादा होगी कि राहुल गांधी के साथ सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की सियासत का भी खात्मा हो जाएगा. ठीक उसी तरह जैसे कि हजार साल पुरानी फ्रांस की राजशाही का वहां की क्रांति से खात्मा हो गया था. और इसके लिए वहां का आखिरी बादशाह लुई सोलहवां सबसे ज्यादा जिम्मेदार था.
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