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लोकतंत्र की हत्या की बात कर रहे राहुल को अपनी पार्टी का इतिहास नहीं पता?

अगर राहुल गांधी को कांग्रेस के इतिहास के बारे में ठीक-ठीक जानकारी होती या उन्होंने इस बारे में पढ़ा होता, तो वह वे दो बयान नहीं देते, जो बीते गुरुवार को उन्होंने दिए

Updated On: May 18, 2018 11:37 AM IST

Sanjay Singh

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लोकतंत्र की हत्या की बात कर रहे राहुल को अपनी पार्टी का इतिहास नहीं पता?

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शायद कभी अपनी पार्टी का इतिहास या इससे जुड़ी बाकी चीजों के बारे में जानने को लेकर परवाह नहीं की है. गांधी-नेहरू परिवार के इस वारिस ने शायद इस तरफ ध्यान नहीं दिया है कि उनके परिवार के बड़े-बुजुर्ग यानी परनाना जवाहर लाल नेहरु, दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली मनमोहन सिंह सरकार का राज्यों में सरकारों के गठन को लेकर किस तरह का रवैया रहा है.

राहुल गांधी के जेहन से शायद यह बात गुम हो गई है कि किस तरह से ऊपर जिक्र किए गए उनके परिवार के सदस्यों ने सत्ता में रहते हुए प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को सरकार बनाने नहीं दिया, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को सत्ता से बेदखल किया और अगर कुछ नहीं बन पड़ा तो इन लोगों की अगुवाई वाली केंद्र की सरकारें विधानसभा भंग करने से भी बाज नहीं आईं.

कांग्रेस पार्टी के अतीत के कारनामों पर भी गौर करें राहुल

अगर राहुल गांधी को कांग्रेस के इतिहास के बारे में ठीक-ठीक जानकारी होती या उन्होंने इस बारे में पढ़ा होता, तो वह वे दो बयान नहीं देते, जो बीते गुरुवार को उन्होंने दिए. कुछ वक्त पहले ही अपनी मां सोनिया गांधी से कांग्रेस की कमान अपने हाथों में लेने वाले राहुल ने पहला बयान ट्विटर पर दिया, जबकि दूसरी टिप्पणी एक सार्वजनिक सभा के दौरान की.

राहुल गांधी ने ट्विटर पर कहा, 'बीजेपी के पास साफ तौर पर संख्या बल नहीं होने के बावजूद कर्नाटक में सरकार बनाने को लेकर पार्टी का गैर-वाजिब हठ हमारे संविधान का मजाक उड़ाने जैसा है. '

इसके अलावा, जब वह अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत करने रायपुर पहुंचे, तो वहां पर उन्होंने अपने आक्रोश के स्तर को और बढ़ाते हुए देश के न्यायपालिका की तुलना पाकिस्तान के इस सिस्टम के साथ की. रायपुर में आयोजित कांग्रेस की रैली में राहुल गांधी ने कहा, 'यह शायद पहली बार है जब आपने सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों को मीडिया में जाते हुए और लोगों को संबोधित कर यह कहते सुना कि हमें आपकी जरूरत है, हम लोगों पर दबाव डाला जा रहा है, हमें धमकी दी जा रही है और हम अपना काम नहीं कर पा रहे हैं. भारत जैसे लोकतांत्रिक मुल्क में शायद पहली बार ऐसी घटना हुई है, लेकिन तानाशाही हुकूमतों में इस तरह की चीजें काफी आम हैं. ऐसा पाकिस्तान में हुआ है. इसके अलावा, अफ्रीका के कुछ अन्य देशों में भी ऐसा देखने को मिला है. कुछ जनरल (ऐसे देशों में) आते हैं और प्रेस को भगा देते हैं, लेकिन भारत में पिछले 70 साल में पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है.'

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पहले हम संविधान का मजाक बनाए जाने संबंधी कांग्रेस अध्यक्ष की टिप्पणी के बारे में बात करते हैं. दरअसल, अगर वह (राहुल गांधी) कांग्रेस के इतिहास में थोड़ा सा झांकेंगे, तो उन्हें संविधान का मजाक बनाए जाने के कई बेरहम उदाहरण मिलेंगे.

जवाहर लाल नेहरु ने बिना वजह बर्खास्त कर दी थी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार

अब हम 1957 के घटनाक्रम को याद करते हैं, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने पहली बार केरल में विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी और ई. एम. एस. नंबूदरीपाद राज्य के मुख्यमंत्री बने थे. कम्युनिस्टों की पहली चुनी गई सरकार महज दो साल तक चली. देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने राज्य में 'संविधान तंत्र की खराब हालत' का हवाला देते हुए नंबूदरीपाद की अगुवाई वाली तत्कालीन राज्य सरकार को बर्खास्त कर केरल में कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन लगा दिया और उसके बाद राज्य की विधानसभा को भंग करने का भी ऐलान कर दिया.

केंद्र में इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार के दौरान यानी 1982 में हरियाणा के राज्यपाल जी. डी. तापसे ने देवी लाल (बीजेपी के समर्थन से) को सरकार बनाने से रोकने और कांग्रेस के भजन लाल को मुख्यमंत्री के तौर पर तैनात करने के लिए संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा काम किया. हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल ने दरअसल उस वक्त संवैधानिक गड़बड़ी के मामले में नीचे गिरने का नया रिकॉर्ड बनाया था. तत्कालीन राज्यपाल तापसे की कृपा से किसी तरह के प्रोटोकॉल का पालन किए बिना भजन लाल को हरियाणा के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई थी. ऐसे में देवी लाल राज्यपाल की हरकत से इस कदर नाराज हो गए कि वह तापसे पर हाथ चलाने से खुद को रोक नहीं पाए.

इतिहास ऐसे वाकयों से भरा पड़ा है कि इंदिरा गांधी ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के मामले में संविधान के अनुच्छेद 356 के गलत इस्तेमाल और केंद्र व राज्यों में कुर्सी हथियाने और बचाए रखने के लिए दल-बदलने संबंधी गतिविधियों को अंजाम देने में संविधान की मर्यादा का कितना खयाल किया या इस तरह की गड़बड़ियों पर कितना ध्यान दिया.

इंदिरा गांधी को खुश करने के लिए संविधान को ताक पर रख देते थे राज्यपाल

इंदिरा गांधी के शासन काल में रामलाल जैसे राज्यपालों ने इस बात को लेकर एक तरीके से केस स्टडी के लिए गुंजाइश बना दी कि केंद्र सरकार में मौजूद राजनीतिक बॉस की निजी सनक को संतुष्ट करने के लिए किस तरह से संवैधानिक नियमों की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं. रामलाल ने अगस्त 1984 में बिना वक्त गंवाए एन. टी. रामाराव की अगुवाई वाली आंध्र प्रदेश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जबकि एन. टी. रामाराव के पास राज्य विधानसभा में स्पष्ट बहुमत था. इसके बाद एक गुमनाम से शख्स एन. भास्कर राव को राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई, लेकिन चतुर और चुनौतियों से निपटने की अपार क्षमता वाले एन. टी. रामाराव ने इंदिरा गांधी को अपना फैसले पलटने पर मजूबर कर दिया और तेलुगूदेशम के इस नेता (रामाराव) की मुख्यमंत्री के पद पर फिर से नियुक्ति हुई.

जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए रोमेश भंडारी ने तमाम नियम तोड़ डाले थे

साथ ही, इस बात में कोई शक नहीं हो सकता कि देश में आपातकाल लगाया जाना भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दौर रहा है. 1990 के दशक के उत्तरार्ध में उत्तर प्रदेश में एक राज्यपाल (कांग्रेस से जुड़ाव वाले) थे, जिनका नाम रोमेश भंडारी था. उन्हें भी संविधान की मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं था. भंडारी ने रातोंरात उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सरकार को बर्खास्त कर दिया था और इसके तुरंत बाद जगदम्बिका पाल (ऐसा शख्स जिसे खुद पर ही भरोसा नहीं था) को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी. इस मामले पर हाई कोर्ट ने भंडारी को जमकर आड़े हाथों लिया और पहली बार अदालत के आदेश पर विधानसभा में कंपोजिट फ्लोर टेस्ट हुआ.

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कल्याण सिंह ने विश्वास मत की इस प्रक्रिया में जीत हासिल की थी और उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. दरअसल, जब सरकार बनाने के एक से ज्यादा दावेदार हों, तो राज्यपाल द्वारा बहुमत परीक्षण के लिए इस प्रक्रिया के तहत वोटिंग की कार्यवाही को अंजाम दिया जाता है. जगदम्बिका पाल सिर्फ एक दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे थे और अदालत के निर्देशों के मुताबिक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की सूची में उनके नाम का जिक्र नहीं है.

हस्ताक्षर के लिए मास्को भेजा था फैक्स

इसके बाद सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली केंद्र की मनमोहन सिंह की सरकार के कुछ राज्यपालों ने बीजेपी या उससे जुड़े गठबंधन को सत्ता में आने से रोकने के लिए संवैधानिक मर्यादा, नीति संबंधी मामलों और नैतिक मापदंडों के तमाम स्तरों का उल्लंघन किया. इनमें बिहार में राज्यपाल रहे बूटा सिंह और झारखंड में इस पद पर तैनात रहे सैयद सिब्ते रजी जैसे प्रतिनिधि शामिल थे. इन दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिकाओं को लेकर काफी तल्ख टिप्पणी की थी. बिहार के मामले में तो मनमोहन सिंह की सरकार के लिए जबरदस्त शर्मिंदगी की स्थिति पैदा हो गई थी. उस वक्त विधानसभा भंग करने के आदेश से संबंधित नोटिफिकेशन पर तत्कालीन राष्ट्रपति ए. पी. जे. कलाम के हस्ताक्षर के लिए आदेश को फैक्स के जरिए मास्को भेजा गया था (कलाम उस वक्त मास्को में थे).

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जहां तक राहुल गांधी द्वारा भारतीय न्यायपालिका की तुलना पाकिस्तान के ऐसे सिस्टम से करने का सवाल है, तो यह कहना पर्याप्त होगा कि हाल में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने दो बार आधी रात में जजों का चैंबर खोलकर बाकायदा सुनवाई की है- एक घटनाक्रम के तहत सर्वोच्च अदालत ने आतंकवादी याकूब मेनन की फांसी को रोकने के लिए 30 जुलाई 2015 को इस तरह की सुनवाई की. तीन जजों की बेंच ने सुबह में 3 बजे उस याचिका पर सुनवाई की थी; दूसरे मामले में 17 मई 2018 को तीन जजों की बेंच सुप्रीम कोर्ट में रात के 2 बजे बैठी (इस अदालत की कार्यवाही सुबह 5.30 बजे खत्म हुई), जिसका मकसद उस याचिका पर सुनवाई करना था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के बी एस येदियुरप्पा को कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने से रोकने की मांग की गई थी. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान में ऐसा नहीं होता है.

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