शादीपुर, पटियाला इस डेटलाइन से कोई फर्क नहीं पड़ता. यह पंजाब और हरियाणा को जोड़ने वाले पटियाला-कैथल हाइवे से दो किलोमीटर अंदर की ओर छह सौ वोटों वाला एक आम गांव है.
इस गांव के सबसे खास पहलुओं में से एक यह है कि लोगों के पास छुपाने को कुछ नहीं है. खासकर अगर बात राजनीतिक प्राथमिकताओं की हो. ये बात बिलकुल वैसी है जैसे यहां के कुछ घर जिनमें दरवाजे ही नहीं हैं. और उनमें रहने वाले सिर्फ एक परदे से अपनी निजता पर आड़ कर लेते हैं.
पटियाला से दो किलोमीटर की दूरी पर ये गांव मोदी के स्वच्छ भारत अभियान से कोसों दूर हैं.
हैरान कर देने वाली बात लगती है कि तथाकथित समृद्ध पंजाब में लोग ऐसी दयनीय परिस्थितियों में जीने के लिए मजबूर हैं. विकास का अर्थ उनके लिए कुछ नहीं है, फिर भी उनकी उम्मीद अभी जिंदा है और वे अपनी राजनीतिक प्राथमिकता को लेकर खुलकर बात करते हैं.
यह गांव पंजाब के विकास पुरुष सुखबीर सिंह बादल, सर्वशक्तिमान उपमुख्यमंत्री के द्वारा कार्यान्वित विकास के एक नमूने की कमजोर नस को दिखाता है.
सरकारी पैसे से चल रही है अकाली दल की राजनीति
सुखबीर मुख्यमंत्री जी के बेटे के रूप में बिना ताज के मुख्यमंत्री हैं. यह विकास के भेदभावपूर्ण मॉडल का वह उदाहरण है, जिसमे परचा-राजनीति खासी घुली-मिली है.
विकास अनुदान शक्तिशाली अकाली नेताओं के जेबों में रह जाते हैं और सरकार में बैठे हुए लोगों से ये बात छिपी नहीं है. अकाली राजनीति मूल स्तर पर सरकारी पैसे के दम पर ही पलती है. ये वही लोग हैं जिनसे अपेक्षा की जाती है कि ये जनता से जुड़ेंगे.
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इस गांव में जोत ज्यादातर छोटे ही हैं, औसतन दो एकड़ के करीब. पिछले पांच वर्षों के दौरान इस गांव से केवल दो लड़के सरकारी नौकरी पाने में कामयाब रहे हैं और दोनों सेना में हैं. यहां कई आईटीआई प्रशिक्षित कुशल नौजवान रोजगार के अवसर तलाश रहे हैं. उनमें से कुछ तो ड्राइवर बन गए हैं और कटाई मशीन चलाते हैं.
पास के एक गांव में लगभग डेढ़ सौ कटाई मशीने हैं जो कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में काम पर लगी हैं. रोजगार मौसमी है जो कि फसल के समय ही परवान चढ़ता है.
यह कहानी है इस गांव के एक एक संयुक्त परिवार की जो निर्धनता के प्रतिनिधि भी हैं. यहां 70 वर्षीय महिला की आंखें अस्वस्थ हैं. उसके बुढ़ापे की पेंशन के पांच सौ रुपए आने लगे थे लेकिन फिर अचानक रुक गए. ये दो साल पहले की बात है.
कोई भी उन्हें गैस कनेक्शन दिलाने नहीं पहुंचा, जिसका हर ब्लू कार्ड धारक अधिकारी है. उनके पास तो ब्लू कार्ड भी नहीं है. उस छोटी सी जगह में रहने वाले तीनों परिवार भरसक कोशिश करके एक अदद कार्ड के जुगाड़ में भी नाकाम रहे.
तीन धुंधले अंधेरे कमरे जो वहां तीन परिवारों की शरणगाह हैं, दरवाजों के बिना हैं. प्रकृति के उतार-चढ़ावों से बचाने के लिए वहां कुल मिलाकर मैले परदे हैं, जो उनकी लाज को आड़ देने का काम भी आते हैं.
इन कमरों में वायु-संचार का कोई उपाय नहीं हैं क्योंकि इसमें कोई खिड़की भी नहीं है. अंधेरे कमरे में एक छोटे बल्ब के जलने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है. उसकी हल्की रोशनी से वहां का अंधेरा ज्यादा भारी है. और यही अंधेरापन उनकी जिंदगी पर भी तारी है.
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सैकड़ों साल पुराना वो मिट्टी का चूल्हा भी तीनों परिवारों के बीच इकलौता ही है. हां, शायद परंपरा को भरसक बना के रखा है इन लोगों ने.
ओह, लेकिन इसके ऊपर छत नहीं है और रसोई को एक तिरपाल से ढका गया है. जी हां, दरअसल ये परंपरा को सुरक्षित रखने का नहीं अस्तित्व को सुरक्षित रखने का मामला है. ये परिवार किसी दूसरे ही वक्त के हैं और किसी दूसरे ही ग्रह के लगते हैं. सड़क गंदी है और गांव हमेशा से एक पक्की फिरनी का भी मोहताज है.
यह उस इलाके के हर घर की कहानी है.
और फिर भी वहां विकास है. गांव के एक आधुनिक मकान में उदारता के दर्शन होते हैं जहां किसी सरकारी विभाग द्वारा इसके सामने लगभग सौ फीट की सीमेंटेड सड़क भी बनाई हुई है जो कि आगे जाकर एक ऊबड़-खाबड़ ईंटों वाली सड़क से ही मिलती है.
आगे के घर में रहने वालों ने जहां ये सड़क पहुंची है, अपनी जेब से अपने गेट के सामने इस सड़क को आगे दस फीट और बढ़ाया है. सड़कें ईटों की कतारों वाली हैं और गांव का तालाब गंदगी से पटा पड़ा है.
एक गांव की कहानी? नहीं. कहानी यहां खत्म नहीं होती. ये वो कहानी है जो यहां के तकरीबन हर गांव की है.
यह पिछले दस साल से यहां राज कर रही अकाली दल-भाजपा सरकार है जो विकास के बड़े-बड़े दावे करती है, यहां एक चक्करदार रास्ता बनाने में भी नाकाम रही है.
बादल सरकार टाउन हाल से स्वर्णमंदिर तक तथाकथित आठ सौ मीटर लंबी हेरिटेज स्ट्रीट सजाने में लगी है जो कि देखने में तो शानदार लगती है लेकिन ये हेरिटेज स्ट्रीट आगे जिस किसी दूसरी सड़क से मिलती है, वो भी गंदगी का उतना ही शानदार नजारा पेश करती है.
ये हालत है स्वर्ण मंदिर परिसर के आसपास की लेंस और बाई-लेंस की.
शादीपुर गांव की एक बेंच पर सुस्ताते चार नौजवानों में से एक की तो अलग ही दास्तान है. चेहरे से वो अठारह साल से कम का ही लेता है.
उसकी दाढ़ी ने अभी बढ़ना शुरू ही किया है. उसको जेल में डेढ़ साल बिताने पड़े थे क्योंकि एक स्थानीय अकाली नेता के इशारे पर उसे एक मामले में फंसा दिया गया था. ये है वो पर्चा राजनीति जिसके लिए अकाली शासन कुख्यात है. उस वक्त वो किशोर वय से गुज़र रहा था.उसे आज भी याद नहीं कि उसका कुसूर क्या था. फ्रांज काफ्का की 'ट्रायल'?
ये नौजवान इस सरकार को वोट-आउट करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. ये अपनी पसंद बताने में बिलकुल नहीं हिचकते.
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साल 2014 में पटियाला लोकसभा सीट आम आदमी पार्टी द्वारा जीती गई चार सीटों में से एक थी. हालांकि, डॉ धरमवीर गांधी, जिन्होंने अरविंद केजरीवाल के खिलाफ विद्रोह कर दिया था और फतेहगढ़ साहिब हरविंदर सिंह खालसा से अपने साथी सांसद के साथ एक साल से अधिक समय के लिए निलंबित कर दिए गए थे. उनका पटियाला के इस क्षेत्र में ज्यादा असर नहीं है.
यहां के लोग अपनी बदनसीबी के बाद भी सियासी लोगों से नफरत नहीं करते. उनको पता है कि उन्हें किसके पसंद करना है और किसे वोट करना है . उनके मन में विद्वेष तो है पर क्रोध नहीं. नौजवानों को नौकरी चाहिए.
सत्तर साल की महिला को आर्थिक मदद चाहिए. मकानों को दरवाज़े चाहिए. वे उन दलों से पूरी तरह से परिचित हैं जो पांच मारला प्लाट देने का वादा करके उनको अपने एक घर का सपना बेच रहे हैं और उन दलों से भी जो ये सपना बेच रहे थे.
उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है. विकास किसी दिन उनके दरवाजे तक भी पहुंच सकता है. शायद यही कारण है कि ये तीन कमरे जो तीन परिवारों के लिए घर बने हुए हैं, बिना दरवाजों के जिए जा रहे हैं. शायद, दरवाजे विकास की राह रोक देते...
फिर वहां फॉर्महाउस भी हैं जो कि समृद्धि का प्रदर्शन कर रहे हैं. गांव में किसी ने भी खेती के क्षेत्र में गहराती समस्याओं की बात नहीं की. नौजवान नौकरी चाहते हैं.
आप उनसे ड्रग्स के बारे में सकते हैं. इस गांव में नहीं. यहां तो कोई भी इन नौजवानों के उम्मीद से जगमगाते चेहरे देख कर इसका अनुमान लगा सकता है.
गांव में यहां सबको अच्छी तरह से पता है कि कौन किसको वोट करेगा और सबसे अच्छी बात तो ये है कि अपनी-अपनी विरोधी पसंदों के बाद भी इनका आपस में इस विषय पर कोई विरोध नहीं है.
अस्तित्व के लिए संघर्ष ही यहां बुनियादी मुद्दा है. ये वो गांव है जो कि अगली सरकार के लिए एजेंडा तय कर सकता है.
ये गांव गांव की कहानी है
1997 से पांच बार चुने गए और मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल अपने ही लाम्बी निर्वाचन क्षेत्र में लोगों के कोप के भाजन बन रहे हैं. उन्होंने बतौर अकाली 1957 में कांग्रेस से गठबंधन करके पहला चुनाव लड़ा था और अपने राजनीतिक जीवन के सफर की शुरुआत की थी. तब से अब तक बादल एक ही बार हारे हैं. 1992 में बादल ने अकाली दल द्वारा बहिष्कार के कारण चुनाव नहीं लड़ा था.
91 वर्षीय ये अकाली नेता, जिसे प्रार्थना और राजनीति के सर्वोच्च मंच अकाली दल द्वारा फख्र-ए-कौम पंथ रतन का सर्वोच्च सम्मान दिया गया है, लोगों के इस विरोध का अपमान के साथ सामना कर रहा है.
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी, दोनों ही अकाली दल-भाजपा गठबंधन की जगह लेने के लिए होड़ कर रहे हैं. हालांकि, आम आदमी पार्टी मुख्य रूप से बठिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट, मोगा, संगरूर जिले और लुधियाना में एक हिस्से को मिलाकर मालवा गढ़ में मजबूत है. बाकी 69 सीटों में आने वाले जिले जैसे पटियाला, रोपड़, मोहाली और फतेहगढ़ साहिब, मालवा के हिस्से नहीं हैं.
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