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प्रियंका गांधी में सोनिया और इंदिरा का कितना असर है...

प्रियंका अपने पिता की मौत के बाद जब मां की नियमित तौर पर देखभाल कर रही थीं, तो उस वक्त वह ऐतिहासिक घटनाओं की भी गवाह बन रही थीं

Updated On: Jan 25, 2019 08:17 AM IST

Soumashree Sarkar

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प्रियंका गांधी में सोनिया और इंदिरा का कितना असर है...

प्रियंका गांधी वाड्रा और उनकी दादी इंदिरा गांधी के बीच साफ तौर पर दिखने वाली समानाओं के बारे में काफी कुछ लिखा गया है. दोनों के बाल एक जैसे हैं, चेहरा का नीचे की तरह झुकाव भी काफी कुछ मिलता-जुलता है और दोनों को एक ही तरह से समर्थकों का अंधा प्यार भी हासिल रहा है. हालांकि, इंदिरा और प्रियंका के बीच एक और प्रमुख बात है, जिससे इन दोनों शख्सियतों के तार एक तरह से जुड़े हुए है- वे दोनों शायद नेहरू-गांधी परिवार की ऐसी सदस्य हैं, जिन्हें कांग्रेस में नेतृत्व की भूमिका स्वीकार करने में ज्यादा संकोच नहीं रहा है. सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने वाली नेहरू-गांधी परिवार की चौथी महिला हैं प्रियंका

प्रियंका की बीते बुधवार को कांग्रेस महासचिव पद पर नियुक्ति के साथ ही वह सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने वाली नेहरू-गांधी परिवार की चौथी महिला बन गईं. उन्हें पार्टी की तरफ से पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी बनाया गया है. जाहिर तौर पर प्रियंका राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहली निश्चित जिम्मेदारी पूरी करने आई हैं. अपने पिता और माता के उलट उन्होंने दुख के माहौल और लहर में पार्टी में भूमिका को नहीं स्वीकार किया है. इसके बजाए प्रियंका गांधी ने एक निश्चित राजीतिक मकसद पूरा करने के लिए राजनीति में एंट्री ली है. चुनाव प्रचार को लेकर अपनी सहजता के बारे में स्पष्ट संकेत देते हुए प्रियंका गांधी ने 2012 में खुलकर कांग्रेस पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाने के बारे में अपनी इच्छा जताई थी.

आम तौर पर राजनीतिक परिवारों के उत्तराधिकारियों द्वारा इस बारे में दिखने वाले संकोच और हिचकिचाहट को छोड़ते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा था, 'अगर राहुल गांधी मुझसे प्रचार करने को कहते हैं, तो मैं पूरी सक्रियता के साथ अपनी यह भूमिका निभाऊंगी.' गौरतलब है कि उनके पिता राजीव गांधी अपनी मां इंदिरा गांधी की मौत जैसी दुखी की घड़ी में एक तरह से मजबूरी में कांग्रेस पार्टी के नेता बने. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तनावपूर्ण माहौल में सिखों के खिलाफ बड़े पैमाने पर दंगे हुए. राजीव गांधी की तरह से निभाई गई भूमिका की कइयों ने आलोचना की, जबकि कुछ लोगों की तरफ से उन्हें तारीफ मिली. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद बेहद प्राइवेट शख्सियत रहीं सोनिया गांधी ने कुछ वर्षों बाद ही सही, लेकिन आखिरकार कांग्रेस नेतृत्व की भूमिका को स्वीकार किया जिसे एक तरह से वैसी पार्टी में स्वाभाविक आरोहण माना जा सकता है, जो पहले से ही वंशवाद को लेकर काफी सहज रही है.

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इसके बाद धीरे-धीरे दिल्ली स्थित सोनिया गांधी का घर- 10, जनपथ कांग्रेस के असली मुख्यालय के रूप में बदल गया. कांग्रेस के औपचारिक मुख्यालय 24, अकबर रोड में भूमिका का कोई मतलब नहीं है, अगर पार्टी के किसी नेता की पहुंच जनपथ के पते तक नहीं है. जाहिर तौर पर उसके बाद से फिर से कांग्रेस पार्टी की पार्टी की बागडोर लगातार नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में ही है. जेवियर मोरो की विवादास्पद किताब 'द रेड सारी' में उस घटनाक्रम का विस्तार से जिक्र है, जब सोनिया गांधी को लगा कि उनकी जिंदगी बदलने वाली है. साथ ही, इसमें सोनिया गांधी की भावनाओं का भी चित्रण है, जिसे कुछ ही लोगों ने देखा है. हालांकि, 2008 में यह किताब भारत के बुकस्टोर्स से पूरी तरह गायब हो गई यानी एक तरह से यह अनाधिकारिक तौर प्रतिबंधित हो गई.

बुकस्टोर्स में इस किताब की वापसी कांग्रेस पार्टी के सत्ता में हटने यानी 2015 में ही मुमकिन हुई. आउटलुक में इस किताब का एक उद्धरण कुछ इस तरह पेश किया गया था- 'प्रियंका दौड़कर अपनी मां के कमरे में गईं और पूरी शिद्दत के साथ उनके लिए इनहेलर और अन्य दवाएं ढूंढने लगीं. जब वह बैठक के कमरे में आईं तो उन्होंने देखा कि सोनिया गांधी कुर्सी पर बैठी हुई थीं और उनकी हालत बेहद खराब थीं. उनकी आंखें बेसुध थीं, उनका मुंह खुला था और सिर एक तरह झुका हुआ था और वह सांस लेने की कोशिश कर रही थीं. उन्हें लगा कि उनकी मौत करीब है.'

priyanka gandhi

प्रियंका अपने पिता की मौत के बाद जब मां की नियमित तौर पर देखभाल कर रही थीं, तो उस वक्त वह ऐतिहासिक घटनाओं की भी गवाह बन रही थीं- देश के प्रमुख की मौत और देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी में भविष्य का नेता तैयार होना. गांधी परिवार से संबंधित एक पुराने वीडियो में इंदिरा गांधी अपने घर के फ्लोर से कोई छोटा-मोटा सामान हटाते हुए नजर आती हैं, ताकि राहुल गांधी (जो उस वक्त बच्चे थे) के चलने में बाधा नहीं हो. यह वीडियो यह भी दिखाता है कि प्रधानमंत्री उस पार्टी के मुखिया के लिए रास्ता साफ कर रही हैं, जिसकी वह कभी प्रमुख रही थीं.

सक्रिय राजनीति में नहीं होने पर भी अहम मौकों पर सक्रिय रहीं प्रियंका

जहां तक प्रियंका का सवाल है, तो उनकी जिंदगी में घरेलू मामला बेहद राष्ट्रीय रहा है, राजनीतिक माहौल और जनता की राय की अहमियत कभी कम नहीं हुई. वह ज्यादातर महत्वपूर्ण मौकों पर नजर आईं- 1998 में तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में अपनी मां के साथ भी वह दिखीं, जहां उनके पिता की हत्या हुई थी. इसके अलावा, हर लोकसभा चुनाव से पहले अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की तरफ से उनकी सक्रियता हमेशा देखने को मिली और 2008 में उन्होंने जेल में अपने पिता की हत्या के लिए जिम्मेदार शख्सियत से मुलाकात की. वेलोर में नलिनी श्रीहरन के साथ अपनी मुलाकात के बारे में उन्होंने पीटीआई को कुछ यह बताया था, 'यह बेहद निजी दौरा था और पूरी तरह से मेरी निजी पहल पर यह मुलाकात हुई थी'. साथ ही, उन्होंने मीडिया से अपनी निजता का सम्मान करने का भी अनुरोध किया गया था. उनकी मां सोनिया गांधी भी कई बार मीडिया से इस तरह की गुजारिश कर चुकी हैं.

प्रियंका गांधी की तरफ से ऐसा किए जाने की वजह शायद यह भी रही होगी कि उन्होंने बहुसांस्कृतिक भारत में इटालियन मूल को लेकर अपनी मां पर दशकों तक हमला देखा है. हालांकि, प्रियंका ने जवाबी हमले के तहत कभी भी इस तरह का अनुकरण करने का प्रयास नहीं किया.

अपने भाई के साथ चुनाव प्रचार और चुनावी मंच पर अपनी मां के साथ प्रियंका हमेशा विनम्र और मिलनसार अंदाज में ही नजर आईं. भाषण देने का उनका अंदाज लोगों से बातचीत करने जैसा है और इस मामले में मां से प्रियंका गांधी की ज्यादा तुलना के लिए गुंजाइश नहीं है. प्रियंका गांधी की भाषण शैली में स्पष्टता और अनौपचारिता नजर आती है.

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इंदिरा और प्रियंका में वादे से को लेकर भी समानता

अमेठी में चुनाव प्रचार के दौरान युवा प्रियंका के पलटवार में दृढ़ता और निरंतरता देखी जा सकती है. उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए पूछा, 'यह इंदिरा जी का कर्मस्थल है. यह हमारा गौरव है. वह सिर्फ मेरी दादी मां नहीं, बल्कि ऐसी महिला थीं, जिन्होंने भारत में बदलाव लाया. वैसी महिला, जिन्होंने भारत के लिए, आप सब के लिए आंसू बहाए. आप किस तरह से उन पर शक कर सकते हैं?' उनसे दोगुने उम्र के पुरुष भीड़ में अनुशासित और चुपचाप उनकी बातें सुन रहे थे.

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ब्रिटिश पत्रकार जॉनाथन डिंबलबाय को 1978 में दिए गए इंटरव्यू में इंदिरा गांधी का विद्रोही अंदाज नजर देखने लायक है. इंदिरा गांधी से डिंबलबाय ने जब 1975 में इमरजेंसी लगाए जाने के पीछे उनके मकसद के बारे में पूछा तो उन्होंने इसी तरह के अंदाज में जवाब दिया था. जाहिर तौर पर प्रियंका गांधी का अंदाज भी ऐसा ही नजर आता है.

इंदिरा गांधी ने उस वक्त बेहिचक और निर्भीक अंदाज में कहा था, 'लोगों ने देखा है कि मैंने विकास किया है. उन्होंने देखा है कि मेरी उनसे (जनता से) सहानुभूति है. मेरे चुनाव हारने (1977) के बाद एक महीना के अंदर लोग फिर से मेरे समर्थन में आने लगे.'

सबसे दिलचस्प बात यह है कि इंदिरा गांधी इस इंटरव्यू में कहती हैं कि उनका फिर से प्रधानमंत्री बनने का कोई इरादा नहीं है. प्रियंका गांधी ने 2009 में एनडीटीवी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वह इस बात को लेकर सुनिश्चित हैं कि वह राजनीति में नहीं आएंगी. संयोग से इंदिरा और प्रियंका दोनों अपने बयानों से पलट गईं. इंदिरा गांधी 1980 में प्रधानमंत्री बनीं और बीते बुधवार को बीजेपी के दो दिग्गजों- नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को चुनौती देते हुए प्रियंका को कांग्रेस की तरफ से पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया.

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