बीते करीब 10 सालों में प्रियंका गांधी को कांग्रेस का चेहरा बनाने की मांग कई बार उठ चुकी है. जब-जब शीर्ष नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को लगा कि राहुल गांधी फेल हो रहे हैं तो प्रियंका को पार्टी कि जिम्मेदारी देने की बात उठने लगती है. इलाहाबाद के कांग्रेस कार्यकर्ता तो न जाने कितनी बार ऐसे पोस्टर लगा चुके हैं. उनकी मांगों को राष्ट्रीय मीडिया ने भी खूब तवज्जो दी.
यह किसी भी एक ठीक-ठाक समझ रखने वाले आदमी के लिए आश्चर्य की बात हो सकती है कि आखिर क्यों देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को ऐसी महिला के हाथ पार्टी की कमान सौंपने का मंशा है, जिसने जीवन में हमेशा राजनीति में न आने की बात कही. ठीक ऐसा ही राहुल गांधी के साथ भी है कि यूपीए 1 और 2 के दौरान लगातार कहा जाता रहा कि राहुल बड़ी जिम्मेदारी संभालेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राहुल ने कोई मंत्रीपद नहीं संभाला. 2010 की यूपीए सरकार में वे जिम्मेदारियों से बचते रहे.
प्रियंका से ज्यादा रॉबर्ट वाड्रा सुर्खियों में रहे
यूपीए सरकार के दौरान प्रियंका गांधी से ज्यादा उनके पति रॉबर्ट वाड्रा सुर्खियों में रहे हैं और वो भी हर बार गलत वजहों से. कई राजनीतिक जानकारों का मानना है कि प्रियंका के राजनीति में न आने के कई कारणों में एक यह भी है. इसके अलावा खुद भी प्रियंका गांधी हमेशा राजनीति में ऩ आने की बात कहती हैं.
फर्स्ट पोस्ट के पॉलिटिकल एडीटर संजय सिंह कहते हैं कि प्रियंका को लेकर भी एक भ्रम का माहौल तैयार किया गया है. इसमें संदेह नहीं है कि अमेठी और रायबरेली में उनसे लोगों का एक जुड़ाव तो है. लेकिन ये जुड़ाव वोट में तब्दील हो जरूरी नहीं है. आप 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखिए. दोनों जिलों की कुल 12 सीटों पर कांग्रेस को 2 सीटें ही आईं थीं. आप बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे देखिए. राहुल गांधी जीते तो जरूर लेकिन उस हनक से नहीं जैसे पहले जीतते आए थे.
संजय सिंह इस में ये भी जोड़ते हैं कि राजनीति में राहुल और सोनिया गांधी का एक परिपक्व नेता के तौर पर न उभरना और पार्टी नेतृत्व की से आम कार्यकर्ता की दूरी भी बार-बार इस मांग के उछलने का प्रमुख कारण है. दूसरा अगर प्रियंका को लाना ही है तो इंतजार क्यों किया जा रहा है. संभव है पार्टी नेतृत्व को भी यह भय हो कि प्रियंका आने के बाद वह चमत्कार न दिखा सकें जिसकी उम्मीद की जा रही है. तो सिर्फ जनता को मोटिवेट करने के लिए यह मांग बार-बार उठवाई जाती है.
अब नहीं मिलते गांधी सरनेम पर वोट
पीटीआई इमेज
इस पर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह कहते हैं कि देखिए नेता वो होता है जो जिसमें वोट ला सकने की काबिलियत हो. पिछले कुछ सालों का देश में हुआ राजनीतिक घटनाक्रम बताता है कि गांधी सरनेम के आधार पर वोट मिलना बंद हो गया है. पार्टी आत्मावलोकन भी नहीं कर रही है. बीते विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद पार्टी कार्यकर्ता छिटका हुआ है. लेकिन पार्टी की डूबती नैया को पार कराने के लिए प्रियंका गांधी को खेवनहार बनाने की कोशिश हो रही है.
प्रदीप सिंह कहते हैं कि देखिए युवा नेता के तौर पर राहुल गांधी फेल हो चुके हैं. 2011 में हुए अन्ना आंदोलन के दौरान भी लोगों ने युवा राहुल की बजाय एक अधेड़ अन्ना हजारे पर अपना विश्वास जताया था. इसके अलावा प्रियंका के राजनीतिक जीवन में आते ही कोई संदेह नहीं कि विपक्षी पार्टियां उनका मामला उठाएंगी. ये भी एक मुश्किल तो है ही. प्रियंका अगर देखने में खूबसूरत महिला हैं तो लोग उनके देखने आ सकते हैं लेकिन वोट तो तभी आएगा जब कोई जननेता हो.
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