आप प्रणब मुखर्जी को तो कांग्रेस से निकाल सकते हैं. लेकिन, क्या आप कांग्रेस को प्रणब मुखर्जी के अंदर से निकाल सकते हैं? इस सवाल का जवाब आपको तब मालूम हो जाएगा, जब आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में गुरुवार को दिए गए प्रणब मुखर्जी के भाषण को सुनेंगे.
इस भाषण की कई बातें बेहद खास रहीं. पहली बात तो ये कि अपने भाषण की शुरुआत में संघ के पदाधिकारियों का नाम लेने के सिवा पूर्व राष्ट्रपति ने आरएसएस शब्द का इस्तेमाल पूरे भाषण में एक बार भी नहीं किया. दूसरी अहम बात ये कि प्रणब ने अपने भाषण में जहां कई बार जवाहरलाल नेहरू समेत कई नेताओं का विस्तार से जिक्र किया, वहीं उन्होंने संघ के नेताओं या उनके विचारकों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. न सावरकर, न मूंजे, न हेडगेवार न ही अपने बंगाली भद्रलोक से ताल्लुक रखने वाले दूसरे मुखर्जी यानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जिक्र प्रणब मुखर्जी ने किया.
प्रणब मुखर्जी का संबोधन सियासत की मास्टरक्लास
संघ के उन भावी प्रचारकों को संबोधित करते हुए प्रणब मुखर्जी ने नेहरू की बातों का जिक्र किया. जबकि संघ के लोगों के लिए भारत के पहले प्रधानमंत्री और उनके विचाार उनकी अपनी विचारधारा के खिलाफ हैं. उनका नाम लेना भी अभिशाप है. उनके सामने प्रणब मुखर्जी ने नेहरू के विचार रखे. ये कुछ वैसे ही था कि ब्राजील के शहर रियो में फुटबॉल के महान खिलाड़ी पेले पार्टी दें और उस पार्टी में पड़ोसी देश अर्जेंटीना के महान फुटबॉलर डिएगो मैराडोना की तारीफ में कसीदे पढ़े जाएं! लेकिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के भाषण की खूबसूरती ही यही थी कि उन्होंने अपनी बात इस खूबसूरती से संघ के मुख्यालय में रखी, जैसे कि 1986 में मैराडोना ने 'हैंड ऑफ गॉड' के नाम से मशहूर गोल के जरिए हारी हुई बाजी जीती थी, और जिसके मुरीद उनके विरोधी भी हो गए थे.
संघ मुख्यालय में प्रणब मुखर्जी का संबोधन सियासत की मास्टरक्लास था. इसमें सम्मान था, अनुशासन था और बेहद सभ्य तरीके से, बिना कोई समझौता किए हुए सहिष्णुता, बहुलता और भारतीय संविधान के प्रति आस्था की अपनी विचारधारा को प्रणब मुखर्जी ने सामने रखा. और उन्होंने ऐसा करने से पहले संघ के संस्थापक हेडगेवार को भारत मां का महान सपूत बताकर अपने होने वाले भाषण की धार को पहले ही नरम कर दिया था. लेकिन जब उन्होंने भाषण दिया तो संघ का एक बार भी जिक्र नहीं किया.
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संघ का एक जबरदस्त मेहमान
सार्वजनिक जीवन में दिखावा काफी अहम है. जो लोग प्रणब मुखर्जी की मानसिकता को समझना चाह रहे थे, उनके लिए इस कार्यक्रम की शुरुआत में ही एक अहम संकेत था. जिस वक्त कार्यक्रम शुरू हुआ और भगवा झंडा फहराया गया, तो, संघ के हजारों स्वयंसेवक और पदाधिकारी सफेद कमीज, खाकी पैंट और चौड़े बेल्ट लगाए हुए बेहद सम्मान के साथ खड़े हुए और ध्वज प्रणाम किया. गणवेश धारी स्वयंसेवकों की भीड़ में धोती और अचकन पहने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भीड़ में अल्पसंख्यक मगर एकदम अलग लग रहे थे. उन्होंने न ध्वज प्रणाम किया और न ही वो भीड़ से प्रभावित हुए. अपनी विचारधारा से बिल्कुल अलग एक संगठन के कार्यक्रम में वो संवेदनहीन रूप से खड़े हुए ध्वजारोहण के मूक दर्शक मात्र थे.
इसी बात से एक संकेत एकदम साफ था कि प्रणब मुखर्जी इससे अलग झंडे और अलग राष्ट्रगान के अनुयायी हैं. हालांकि न ही वो झंडा फहराया गया और न ही वो राष्ट्रगान गाया गया. प्रणब मुखर्जी ने साफ संकेत दिया कि वो इस आयोजन के प्रतिभागी नहीं, सिर्फ मेहमान हैं, जिसकी अपनी विचारधारा है. प्रणब मुखर्जी ने जता दिया था कि वो विनम्र और सलीकेदार होंगे, मगर उस आयोजन के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाएंगे.
संघ के विपरीत बहुलता, सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता की बात
ऐसे में जब पूर्व राष्ट्रपति ने भारतीयता, राष्ट्रवाद और देशभक्ति के बारे में बात की, तो उनके खयाल संघ की विचारधारा से बिल्कुल अलग थे. मुखर्जी ने अपने श्रोताओं को याद दिलाया कि भारत तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों के मेल से बना है. मुखर्जी ने कहा, 'भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों के मेल-जोल और साथ रहने से बनी है. आधुनिक भारत को कई भारतीय नेताओं ने परिभाषित किया है और ये भारतीयता किसी नस्ल या धर्म से नहीं जुड़ी है'.
संघ के कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद की भट्टी में तपकर निकले स्वयंसेवकों के लिए अपने संगठन के मुख्यालय में उस भारत के निर्माण की प्रक्रिया को सुनना जो तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों के मेल से बना है, बिल्कुल ही नया तजुर्बा रहा होगा. प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में बहुलता और सहिष्णुता को भारत की आत्मा बताया. उन्होंने धर्म के नाम पर भारतीयता को परिभाषित करने की कोशिश को सिरे से खारिज कर दिया. पूर्व राष्ट्रपति ने बताया कि जनता के कल्याण में ही शासक की भलाई है. यकीनन, पूर्व राष्ट्रपति ने ये विचार संघ और उसके सहयोगी संगठनों को ध्यान में रखकर ही व्यक्त किए होंगे.
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प्रणब मुखर्जी के शब्द ही मायने रखेंगे
अगर कांग्रेस के नेताओं में सियासी समझदारी है, तो वो संघ का न्योता कुबूल करने पर प्रणब मुखर्जी के खिलाफ की गई अपनी बयानबाजी के लिए खुद को कोस रहे होंगे. आखिर में प्रणब मुखर्जी ने खुद को धर्मनिरपेक्षता, बहुलता और सहिष्णुता के उन्हीं आदर्शों के दूत के तौर पर पेश किया, जिनकी अलंबरदार कांग्रेस खुद को कहती रही है. अब अगर कांग्रेस के नेता इस बात को अच्छे से भुना सकते हैं, तो उन्हें इस बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए कि ये एक नेहरूवादी नेता का साहस ही है कि वो प्रतिद्वंदी के गढ़ में जाकर अपने दिल की बात बेखौफ होकर कर सका. जैसा कि रणदीप सुरजेवाला ने कहा भी कि कांग्रेस को संघ को सीख देनी चाहिए कि वो पूर्व राष्ट्रपति की सीख को माने और उनके बताए रास्ते पर चले.
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कांग्रेस का ये सोचना बिल्कुल गलत है कि पार्टी के पूर्व कद्दावर नेता ने संघ मुख्यालय जाकर उसकी विचारधारा पर मुहर लगाने का काम किया है और इससे पार्टी को नुकसान होगा. पूर्व राष्ट्रपति की बेटी की ये सोच भी गलत है कि संघ इस कार्यक्रम में प्रणब की मौजूदगी को इस तरह से भुनाएगा कि उसकी विचारधारा को एक नेहरूवादी नेता ने सही बताया. पल-पल की खबर बताने और ट्वीट के जरिए दुनिया तक पहुंचने के इस दौर में इस कार्यक्रम की सिर्फ एक तस्वीर स्थाई होगी. खाकी पतलून पहने हजारों लोगों की भीड़ में सफेद धोती पहने हुए खड़ा एक शख्स, जो संघ के भगवा मुख्यालय में बिल्कुल अलग था. फिजां में सिर्फ प्रणब मुखर्जी के शब्द गूंजेंगे, जिसमें उन्होंने उस भारतीयता की बात की, जिसकी प्रेरणा उन्हें नेहरु से मिली थी.
कांग्रेस को आज प्रणब मुखर्जी पर गर्व होना चाहिए. पार्टी का उनके प्रति अविश्वास और निंदा भी कांग्रेस को प्रणब मुखर्जी के भीतर से नहीं निकाल सके.
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