देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुख्यालय पर 7 जून को आयोजित होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने की स्वीकृति प्रदान कर दी है. आरएसएस का अपने कार्यक्रम में कांग्रेसी बैकग्राउंड वाले पूर्व राष्ट्रपति को बुलाना ये साबित करता है कि संघ अपना आधार उपयुक्त प्रतिष्ठित शख्सियतों के माध्यम से मजबूत करना चाहता है. प्रचलित मान्यताओं के विपरीत, आरएसएस-कांग्रेस के संबंधों के बीच के उतार चढ़ाव वाले इतिहास में दोनों एक दूसरे को फायदा पहुंचाते रहे हैं.
हालांकि इसके बाद भी प्रणब की राजनीतिक और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा मायने रखती है. इसके लिए आपको सीएसडीएस-लोकनीति के द्वारा हाल ही में ‘राष्ट्र का मूड’ विषय पर देश भर में कराए गए सर्वे के निष्कर्ष पर ध्यान देना होगा. इस सर्वे में संकेत दिया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी अकेले सत्ता में आने लायक सीटें नहीं जीत पाएगी.
प्रणब मुखर्जी 2019 चुनाव परिणाम के बाद खींचतान की राजनीति में अहम रोल निभा सकते हैं
ऐसे में अगर अगले साल देश में खंडित जनादेश मिला तो स्वभाविक है कि मुखर्जी जैसे लोगों की अहमियत बढ़ जाएगी. मुखर्जी जैसे लोग 2019 चुनाव परिणाम के बाद खींचतान की राजनीति में अहम रोल निभा सकते हैं.
इस मामले में राष्ट्रपति आर वेंकटरमण के कार्यकाल का उदाहरण लिया जा सकता है. वेंकटरमण 1987-1992 तक राष्ट्रपति रहे थे और इस दौरान देश में वोटरों ने लगातार खंडित जनादेश दिया. 1989 और 1991 में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने के कारण देश को गठबंधन की सरकार को स्वीकर करना पड़ा. उस दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने देश में एक राष्ट्रीय सरकार की संकल्पना के लिए गंभीर प्रयास किए थे.
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने गठबंधन सरकार बनायी जिसको लेफ्ट और राइट दोनों धड़ों का समर्थन था लेकिन उन्होंने 'नेशनल गवर्नमेंट' बनाने से इंकार कर दिया था. उसी तरह से 1991 में पी.वी.नरसिम्हा राव ने लेफ्ट के सहयोग से अपनी अल्पमत की सरकार बनायी और पूरे पांच तक चलायी. इन दोनों मौकों पर मुखर्जी ने बहुत नजदीक से ये पूरा घटनाक्रम देखा क्योंकि मुखर्जी के न केवल वेंकटरमण से बल्कि वीपी सिंह और नरसिम्हा राव के साथ भी अच्छे संबंध थे.
जहां तक आरएसएस का सवाल है, इस साल अप्रैल की शुरुआत में संघ प्रमुख मोहत भागवत ने जोर देकर कहा था कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसे स्लोगन केवल राजनीतिक शब्द मात्र है. भागवत का ये कथन मायने रखता है. पुणे के अपने भाषण में भागवत ने कहा था, 'ये आरएसएस की भाषा नहीं है. मुक्त शब्द का राजनीति में इस्तेमाल किया जाता है. हम लोग किसी को अलग करने की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते हैं'.
सोनिया ने 2004 में सतरंगी गठबंधन खड़ा कर बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया था
पर्दे के पीछे भागवत के बयान ने राजनीतिक जगत में काफी रुचि पैदा की. आरएसएस जो कि देश की राजनीति, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में गहरी रुचि रखता है, वो नहीं चाहता है कि सोनिया गांधी अपने बेटे को राजपाट दिला कर उसे राजनीति रूप से स्थापित करने के लिए 2004 वाली स्थिति फिर से खड़ी कर दें. सोनिया ने 2004 में एक सतरंगी गठबंधन खड़ा कर के अगले 10 वर्षों तक बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया था.
जो लोग देश की राजनीति पर करीब से नजर नहीं रखते हैं उन्हें कांग्रेस और आरएसएस को संबंधों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. हालांकि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने आरएसएस की आलोचना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन कई मौकों पर उन्होंने संघ परिवार की तारीफ भी की थी. खास करके स्वतंत्रता के बाद जब पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर हमला कर दिया था तो उस समय स्वंयसेवकों ने वहां जाकर मदद की थी.
नेहरू ने आरएसएस की उस समय सराहना की थी. उसी तरह से 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भी आरएसएस के द्वारा की गयी सेवाओं को नेहरु ने न केवल सराहा बल्कि उन्होंने 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में संघ के स्वंयसेवकों को हिस्सा लेने कि लिए भी आमंत्रित किया.
ये कहा जाता है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उस समय राजीव गांधी ने तत्कालीन संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस के साथ गोपनीय मीटिंग भी की थी. मीटिंग का परिणाम ये निकला कि बीजेपी के राजनीतिक परिदृश्य में रहने के बाद भी आरएसएस के कैडरों ने लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी और कांग्रेस का समर्थन किया. इतना ही नहीं राजीव गांधी ने बालासाहेब के छोटे भाई भाऊराउ देवरस से अलग अलग जगहों पर कम से कम आधा दर्जन बार मुलाकात की थी.
आरएसएस का कांग्रेस को समर्थन इंदिरा के निधन से पहले दिखने लगा था
आरएसएस का कांग्रेस को समर्थन तो इंदिरा के निधन से पहले ही दिखने लगा था. और ये साबित भी हुआ उस समय के वरिष्ठ संघ विचारक नानाजी देशमुख के एक आर्टिकल से जो कि उस समय एक हिंदी पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ में 25 नवंबर 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ था. चुनावों से एक महीने से भी कम समय रहने के दौरान प्रकाशित इस लेख के अंत में देखमुख लोगों से राजीव को आशीर्वाद और सहयोग देने की अपील करते हैं.
नानाजी ने इंदिरा के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा था, 'आखिरकार उन्होंने इतिहास के पन्नों में अपना नाम स्थायी रुप से महान शहीद के रुप में दर्ज करा ही लिया. उन्होंने निर्भीकता और दक्षता की बदौलत उत्पन्न उत्साह के साथ एक दशक से ज्यादा समय तक देश को आगे बढ़ाने में सफलता प्राप्त की. उनमें अकेले ये क्षमता थी कि वो भ्रष्ट और विभाजित समाज के द्वारा उत्पन्न अनैतिक राजनीतिक व्यवस्था को चला सकें'.
इससे पहले इंदिरा बहुसंख्यक समुदाय के साथ अपने संबंधों को सुधारने के लिए विश्व हिंदू परिषद की ‘एकात्म यात्रा’ जिसे गंगा जल यात्रा के नाम से भी जाना जाता था, उसकी शुरुआत करने का निमंत्रण स्वीकार कर चुकी थीं.
कांग्रेस अध्यक्ष और अपने पूरे प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में नरसिम्हा राव पर आरएसएस के प्रति नरम रहने का आरोप लगता रहा. यहां तक 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने से पहले भी राव संघ के शीर्ष नेतृत्व के संपर्क में थे और वो विवादित अयोध्या मामले का हल कोर्ट के बाहर निकालना चाहते थे. जब 1994 में राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) संघ प्रमुख बने तो उस समय कांग्रेस के एक वर्ग में एक चुटकुला खूब चला था. वो था 'अरे राव साहब फिर रह गए'.
प्रणब को राष्ट्रपति बनाने के सोनिया गांधी के फैसले पर सवाल उठाए थे
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के 10 जनपथ के साथ संबंधों के बारे में कोई भी अंजान नहीं है. कांग्रेस में ही कई लोग ऐसा मानते हैं कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनने के पूर्णतया योग्य थे और अगर उन्हें मौका दिया जाता तो वो देश के बेहतरीन प्रधानमंत्रियों के रुप में अपना नाम इतिहास के के पन्नों में दर्ज करा सकते थे. कई लोग थे जो कि प्रणब को 2012 में राष्ट्रपति बनाने के सोनिया गांधी के फैसले पर सवाल उठा चुके थे. खुद प्रणब मुखर्जी ने अपनी जीवनी में ये स्वीकार किया था कि उन्हें 2012 में लगा कि सोनिया मनमोहन को किनारे कर के उन्हें यूपीए सरकार का प्रधानमंत्री नियुक्त करनी चाहती हैं.
कांग्रेसियों को लगता था कि सोनिया का प्रणब के प्रति ठंढ़ापन प्रणब के साथ राजीव के साथ रुखे संबंधों को लेकर था. मुखर्जी को 1984 राजीव का अनादर करने के आरोप में कांग्रेस से निष्कासित किया जा चुका है.
जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो प्रणब राजीव गांधी के साथ बंगाल में थे. दोनों एक ही प्लेन में दिल्ली वापस लौटे थे. इस पूरी घटना का एक पक्ष ये है कि इस घटना से मुखर्जी टूट गए थे और दुख की वजह से वो विमान के टॉयलेट में जाकर रोए थे. इसके बाद आंखों में आंसू लिए वो विमान की पिछली सीट पर बैठ गए. जबकि इस घटना का दूसरा पक्ष कांग्रेस में ही उनके विरोधियों का है जिनके अनुसार वो राजीव के खिलाफ साजिश रचने में जुटे हुए थे. इसके अलावा एक और कहानी बतायी जाती है, जब राजीव ने केयरटेकर प्रधानमंत्री को लेकर सवाल किया तो मुखर्जी ने वरिष्ठता पर जोर दिया था. प्रणब के जवाब को पीएम की कुर्सी की लालसा समझा गया.
मजेदार बात ये है कि सोनिया गांधी के नजदीकी सूत्रों के मुताबिक वो मुखर्जी के राष्ट्रपति पद के पांच वर्षों का कार्यकाल को उल्लेखनीय नहीं मानते हैं. 10 जनपथ में उन्हें यथास्थिति बनाए रखने वाला माना गया और उन्हें शंकर दयाल शर्मा, के आर नारायणन और एपीजे अब्दुल कलाम की श्रेणी से अलग ऐसा राष्ट्रपति माना गया जो कि अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने में विफल रहा.
प्रणब मुखर्जी से अभी भी राष्ट्रीय राजनीति में मौजूं बने रहने की गुजारिश
रिटायरमेंट के बाद मुखर्जी से मिलने के लिए उनके 10, राजाजी मार्ग आवास पर कई लोग पहुंच रहे हैं. ये माना जा रहा है कि उनसे मिलने वाले अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कि राहुल गांधी के सतरंगी गठबंधन को सफलतापूर्वक चलाने या फिर कांग्रेस पार्टी को फिर से मजबूत करने की उनकी क्षमता पर संदेह करते हैं. ये ही राजनीतिक वर्ग ऐसा है जो कि पर्दे के पीछे से मुखर्जी को अभी भी राष्ट्रीय राजनीति में मौजूं बने रहने की गुजारिश कर रहा है.
प्रणब मुखर्जी के संघ के निमंत्रण को स्वीकार करने के पहले इन गतिविधियों पर भी ध्यान देना जरुरी है. हो सकता है कि पूर्व राष्ट्रपति इस निमंत्रण के माध्यम से फिर से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पर विचार कर रहे हैं. ये भी संभव है कि वो नवीन पटनायक जैसे तीसरे मोर्चे के समर्थक और राहुल गांधी की क्षमता पर संदेह करने वाले बेचैन कांग्रेसियों से आगे विचार विमर्श करें.
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