आम बोलचाल में एक बहुत प्रचलित शब्द है वनरघुड़की. शब्द से स्पष्ट है कि इसका नाता वानरों से है. और घुड़की का अर्थ है-कुछ कर नहीं सकते तो हेठी तो बघार ही सकते हैं. मौजूदा सत्र में ‘अविश्वास प्रस्ताव’ वनरघुड़की से ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन कभी-कभी घुड़की भी अपना असर दिखा देती है. वह भी तब जब सामने खड़ा व्यक्ति निसहाय हो और निहत्था भी.
केंद्र की मोदी सरकार प्रचंड बहुमत के बाद भी निसहाय दिख रही है क्योंकि विरोधियों ने सारे खटकरम शुरू कर दिए हैं, जो बीजेपी ने 2014 के आम चुनावों में किए थे. झूठ का सहारा, वह भी दंभ के साथ. यह कहते हुए कि मौजूदा सरकार फेल है, हम आए तो फलां कर देंगे, ढिमका कर देंगे. सरकार हमें कुछ नहीं दे रही, सारा पैसा इधर का उधर जा रहा है, वगैर, वगैरह.
मुद्दे नहीं हैं इसलिए यह प्रस्ताव
लेकिन क्या यह जायज है जो सरकार को घेरने के लिए अविश्वास प्रस्ताव जैसे ‘हथियार’ उठाए जाएं. वह भी तब जब अपनी संख्या का अंदाजा हो. ऐसा नहीं हो सकता कि विपक्ष प्रस्ताव के हश्र से अनजान हो. पर वक्त जो न कराए. चुनाव सिर पर है और विपक्ष को मुद्दों के लाले पड़े हैं. मुद्दे हैं भी तो हर साल की तरह बासी. वही गरीबी, वही बेरोजगारी, वही किसानी समस्या और वही भ्रष्टाचार. विपक्ष भी इन मुद्दों से आजिज आ गया है. उसे कुछ नया चाहिए जो लोगों का ध्यान खींच सके. जान लीजिए, अविश्वास प्रस्ताव उसी का नमूना है.
274 बनाम 54 की जंग
राजनीति में ऐसा शायद ही दिखता है जब दो कट्टर विरोधी पार्टियां एक प्लेटफॉर्म पर आएं लेकिन आंध्र प्रदेश में ऐसा हुआ है. विशेष राज्य के दर्जे की मांग को टीडीपी और वाईएसार कांग्रेस एक सुर में बोल रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी दे दिया है. दोनों पार्टियां अपने-अपने नोटिस पर समर्थन जुटाने के लिए विपक्षी पार्टियों को लामबंद कर रही हैं.
यह जानते हुए कि नोटिस मंजूर होने पर भी लोकसभा में प्रस्ताव औंधे मुंह गिर जाएगा क्योंकि सत्तारूढ़ बीजेपी के पास 274 सांसद हैं और विपक्ष के पास महज 54. तो फिर क्यों प्रस्ताव का ढिंढोरा पीटा जा रहा है? इसलिए कि चुनाव माथे पर है और मुद्दा है मोदी सरकार का चार साल का फेलियर. सरकार भले अपने मुंह मियां मिट्ठू बने पर विपक्षियों ने जनता में यह धारणा पैठा दी है कि कुछ नहीं हो रहा. सब चौपट है. किसान वैसे ही मर रहे हैं, युवा नौकरी के लिए भटक रहे हैं. आदि-आदि.
केंद्र ने दिया या नहीं, कौन तय करेगा
अाखिर बात किसकी मानें. चंद्रबाबू नायडू की या सरकार की. नायडू बोल रहे हैं कि चार साल बीत गए लेकिन मिला कुछ नहीं. सिवाय आश्वासनों के झुनझुना के. और उधर सरकार है जो पाई-पाई का हिसाब गिना रही है. बीजेपी नेता बोल रहे हैं कि टीडीपी ने ‘कुछ मुद्दों को ध्यान में रखते हुए’ अविश्वास प्रस्ताव बढ़ाया है जबकि आंध्र प्रदेश बनने के बाद 24 हजार करोड़ रुपए दिए गए हैं. बीजेपी तो यह दावा भी ठोंक रही है कि किसी भी राज्य को उतना नहीं मिला जितना आंध्र को इसकी राजधानी बनाने और पोलावरम बांध, नेशनल हाइवे, सिंचाई, गरीबों के घर बनाने के लिए दिए गए.
अंदरखाने मिलीभगत तो नहीं?
ऐसा हो सकता है क्योंकि जब 4 साल बाद नायडू और रेड्डी की तंद्रा टूटी है तो एक अदना आदमी भी पूछ सकता है कि अब तक कहां थे. जब केंद्र ने दिया ही नहीं तो क्यों उसका लोटा ढोए जा रहे थे? अभी अगर ये दोनों पार्टियां जागी हैं तो जरूर कहीं कोई झोल है. ऐसा भी तो हो सकता है कि बीजेपी ने चार साल बाद फैसला किया कि अब आंध्र में अकेले उतरेंगे मैदान में. तो फिर क्यों गठबंधन में रहा जाए. उधर टीडीपी को लगा हो कि मोदी सरकार पर हमला बोल कर कुछ सीटें बढ़ जाएं तो क्या बुरा है.
दोनों पार्टियों के लिए ये परिस्थितियां मुफीद हैं. बीजेपी को आंध्र में प्रयोग करना है त्रिपुरा की तरह और नायडू को अपनी सीटें बढ़ानी हैं. नायडू परेशानी में इसलिए भी हैं क्योंकि उनके पड़ोसी के. चंद्रशेखर राव तेलंगाना में मुसलमानों के लिए 12 फीसद कोटे की मांग पर अड़े हैं. ऐसे में नायडू क्या करें. वे यही कर सकते हैं कि अपने प्रदेश में बीजेपी का विरोध करें और वोट झटकें. अगर दोनों पार्टियां आगामी लोकसभा चुनावों में कामयाब होती हैं तो बाद में गठजोड़ कर लेने में क्या बुराई है.
सारा मामला 25 सीटों का तो नहीं
सरकार से नायडू के हटते ही बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह नई रणनीति बनाने में जुट गए हैं. आंध्र में लोकसभा की 25 सीटें हैं और अगले साल लोकसभा के साथ यहां विधानसभा चुनाव भी होने हैं. पार्टी पहले ही कह चुकी है कि टीडीपी का गठबंधन खत्म करना एक मौका है ताकि वह राज्य में विकास कर सके. इस वक्तव्य से बीजेपी की तैयारियों की साफ झलक मिलती है.
पार्टी प्रवक्ता जी वी एल नरसिम्हा की मानें तो केंद्र के खिलाफ दुष्प्रचार के बाद टीडीपी का गठबंधन से हटना जरूरी हो गया था. आंध्र के लोगों को अब महसूस होने लगा है कि टीडीपी अपनी नाकामी छिपाने के लिए झूठ का सहारा ले रही है. खतरे से ज्यादा टीडीपी का समय पर हट जाना आंध्रप्रदेश में बीजेपी के विकास के लिए अवसर है.
क्षेत्रीय पार्टियों की खास रणनीति
नायडू-वाईएसआर के अविश्वास प्रस्ताव पर ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां एकजुट दिख रही हैं. इससे साफ है कि यह भावी चुनाव की आहट है. चुनाव पूर्व क्षेत्रीय पार्टियों में अक्सर खलबली देखी जाती है ताकि सरकार पर दबाव बनाकर अपने मन की कर सकें. प्रदेशों में अपनी सरकारों के लिए फंड झटक सकें या केंद्रीय कैबिनेट के फेरबदल में अपने मंत्री बनवा सकें.
इसे समझना हो तो एआईएडीएमके नेता थंबीदुरई की इस बात पर गौर करें कि केंद्र से उनकी पार्टी की मांग है कि वह जल्द से जल्द कावेरी प्रबंधन बोर्ड बनाए. मान कर चलें कि आगे कावेरी बोर्ड को लेकर भी कोई भारी मांग उठ सकती है. मिलाजुला कर पूरे एक साल दबाव की राजनीति खूब चलेगी और संसद में हो-हल्ला जोर-शोर से उठेगा.
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