बिहार में महागठबंधन अपने गठजोड़ को मजबूत करने की फिराक में लगातार प्रयासरत है. फिलहाल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी, जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा, और शरद यादव की लोकतांत्रिक जनता दल का औपचारिक तौर पर गठबंधन हो चुका है.
इस महागठबंधन में मुकेश साहनी भी शामिल हो चुके हैं जो अपने आप को 'मल्लाह का बेटा' कह कर संबोधित करते हैं. राजनीतिक गलियारे में उन्हें मल्लाह जाति के नेता के तौर पर स्वीकार्यता भी मिल चुकी है.
सूत्रों की मानें तो फिलहाल वाम दल से औपचारिक तौर पर गठबंधन नहीं हो पाया है लेकिन अगले बीस दिनों में वाम दल के साथ भी सीट शेयरिंग से लेकर तमाम मुद्दों पर चर्चा कर सहमति बना ली जाएगी. सूत्रों के मुताबिक आरजेडी कम से कम 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी वहीं महागठबंधन के अन्य दलों के बीच बाकी के 20 सीटों का बंटवारा होगा.
उनके मुताबिक उपेंद्र कुशवाहा को 4 सीटें मिलेंगी जिनमें 1 प्रत्याशी राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के बैनर तले लड़ेगा परंतु उसका चुनाव आरजेडी के शीर्ष नेता करेंगे. मुकेश साहनी जो मल्लाह जाति के नए नेता के तौर पर उभरे हैं उन्हें 1 सीट, और शरद यादव की पार्टी को 1 सीट से नवाजा जाएगा.
महागठबंधन की महत्वपूर्ण पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से भी फिलहाल सीट शेयरिंग को लेकर औपचारिक बातचीत तय नहीं हो पाई है लेकिन नए समीकरण में 12 सीट उन्हें सौंपें जाने की चर्चा जोरों पर है.
वैसे सीट शेयरिंग को लेकर काफी समय से आंख मिचौली का खेल खेल रहे उपेंद्र कुशवाहा पर भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्या तीखा प्रहार कर चुके हैं. दीपांकर भट्टाचार्या प्रेस के सामने आकर ये कह चुके हैं कि साढ़े चार साल तक मोदी सरकार में मंत्री रह चुके उपेंद्र कुशवाहा जी को अपनी गलती के लिए जनता से माफी मांगनी चाहिए और एनडीए से इस्तीफा देकर फिर महगठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर चर्चा करनी चाहिए. भाकपा माले के महासचिव के मुताबिक एनडीए में मंत्री बने रहकर महागठंबधन से सीट बंटवारे को लेकर बात करना अवसरवादिता है और ऐसी राजनीति का वो और उनकी पार्टी समर्थन नहीं करती है.
दरअसल ये बात सबको पता थी कि उपेंद्र कुशवाहा 3 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाह रहे थे और इसके लिए एनडीए पर दबाव बनाने के लिए वो महागठबंधन से संपर्क बनाए हुए थे. सूत्रों के मुताबिक उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को एनडीए 2 सीट देने के पक्ष में था क्योंकि उनकी पार्टी के तीसरे लोकसभा सदस्य अरुण कुमार उनसे किनारा कर अलग दल का गठन कर चुके थे.
वैसे इस प्रक्रिया में लोक जनशक्ति पार्टी सुनियोजित तरीके से काम कर रही थी और रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी को उसका फायदा भी मिला लेकिन राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को एनडीए छोड़कर महगठबंधन से गठजोड़ करना पड़ा.
एनडीए में साढ़े चार साल तक मंत्री पद पर बने रहे उपेंद्र कुशवाहा के लिए पाला बदलकर महागठबंधन में जाने का फैसला कोई हैरान करने वाला नहीं था. वो पहले भी नीतीश की पार्टी का दामन कई बार छोड़ और पकड़ चुके थे और फिर एनडीए के साथ भी उन्होंने वैसा ही किया.
'अवसरवाद की राजनीति' के कुशल खिलाड़ी बन चुके हैं उपेंद्र कुशवाहा
साल 2014 में जब रामविलास पासवान की पार्टी एनडीए के घटक दल में शामिल हुए थे तो आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने उन्हें 'मौसम वैज्ञानिक' की संज्ञा देकर जोरदार कटाक्ष किया था. इस बार भी 3 राज्यों में बीजेपी की हार के बाद एलजेपी द्वारा लिखी गई चिट्ठी जिसमें नोटबंदी को लेकर उठे सवाल पूछे जाने पर लगने लगा कि लोकसभा चुनाव से पहले कहीं एलजेपी आरएलएसपी की तरह पलटी मारने के मूड में तो नहीं है? दरअसल इसकी वजह एलजेपी सुप्रीमो रामविलास पासवान और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव के बीच हुई एक दौर की बातचीत राजनीतिक गलियारों में सुर्खियां बटोर रहा था.
सूत्रों के मुताबिक महागठबंधन में इस बातचीत को लेकर थोड़ी उम्मीद जरूर बंधी थी लेकिन ये बड़े नेताओं को समझ में आ रहा था कि ऐसा कर एलजेपी बीजेपी से 'टफ बार्गेन' कर रही है. लेकिन तीन राज्यों में बीजेपी द्वारा चुनाव हार जाने के बाद एलजेपी तीखे प्रहार से अपने मंसूबे में कामयाब हो गई वहीं आरएलएसपी को एनडीए से बाहर जाना पड़ा. आरएलएसपी सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा अब महागठबंधन के नेता राहुल गांधी और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव सहित तेजस्वी यादव के सम्मान में कसीदे पढ़ रहे हैं.
लेकिन उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के दो विधायक और एक एमएलसी उनका साथ छोड़ चुके हैं. उपेंद्र कुशवाहा के साथ एक लोकसभा सदस्य हैं जो कि सीतामढ़ी से सांसद हैं. उनके अलावा पार्टी टिकट पर चुने गए तमाम जन प्रतिनिधि उनसे अपना रिश्ता तोड़ चुके हैं. जाहिर है अवसरवादिता की राजनीति की वजह से ज्यादातर उनके साथी अब उनके साथ न चलकर एनडीए के साथ ही बने हुए हैं.
बार-बार साथी और पार्टी बदलने के पीछे की असली वजह
दरअसल उपेंद्र साल 2000 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतकर आए तो उन्हें सदन में समता पार्टी का उपनेता का पद दिया गया. साल 2004 में नीतीश कुमार ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष घोषित कर दिया जिसके बाद उनकी महत्वाकांक्षा परवान चढ़ने लगी. पार्टी के अंदर और बाहर उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी समझा जाने लगा. विधानसभा के अंदर उपेंद्र कुशवाहा जब नेता बनाए गए थे तब वृषण पटेल सरीखे दिग्गज नेता को दरकिनार किया गया था लेकिन उपेंद्र कुशवाहा का नीतीश कुमार के साथ भी लंबा रिश्ता निभ नहीं पाया.
साल 2005 तक नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने के बाद उपेंद्र कुशवाहा नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के बिहार प्रदेश के अध्यक्ष बन गए. दरअसल छगन भुजबल के साथ जाने के बाद ये दोस्ती भी ज्यादा दिन निभ नहीं सकी. राजनीति में डगमगाता भविष्य देखकर उपेंद्र कुशवाहा ने वापस नीतीश की शरण लेने में ही अपनी भलाई समझी और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजकर एक बार फिर उन्हें ईनाम दिया. लेकिन रिश्ते की गरमाहट फिर ठंढी पड़ गई जब मार्च 2013 में नीतीश का दामन छोड़ कर उपेंद्र कुशवाहा राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के गठन करने का ऐलान कर डाला.
नीतीश, मोदी का विरोध कर रहे थे लेकिन उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी लहर में मोदी रथ पर सवार होने में ही अपनी भलाई समझी. एनडीए कुनबे में शामिल हो गए जिसका ईनाम उन्हें मंत्री पद सौंप कर दिया गया जिस पर साढ़े चार सालों तक उपेंद्र कुशवाहा बने रहे. लेकिन 2019 लोकसभा से पहले अब वो महागठबंधन की शरण में जाकर बैठ गए हैं.
सोशलिस्ट पार्टी के कद्दावर नेता जो बिहार राज्य और केन्द्र सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं वो नाम ना छापने की शर्त पर कहते हैं, 'अति महत्वाकांक्षा की असली वजह ये है कि कोइरी जाति की जनसंख्या कुर्मी जाति से ज्यादा है और उपेंद्र कुशवाहा ऐसा मानते हैं कि उनकी जाति की संख्या 7 फीसदी है जिसका प्रभाव लगभग 20 विधानसभा सीटों पर सीधे तौर पर है. इसलिए उन्हें इसका लाभ मिलना चाहिए.'
दरअसल यही वजह है कि उपेंद्र कुशवाहा बिहार में बार-बार पाला बदलकर अपनी महत्वाकांक्षा को साधने में लगे हैं और इसी वजह से कई बार पाला बदलकर कई पार्टी और गठबंधन में शिरकत कर चुके हैं.
दीपांकर भट्टाचार्य भले ही उनकी राजनीति को अवसरवादिता की पराकाष्ठा मानते हों लेकिन नीतीश विरोधी पार्टियां कोइरी-कुर्मी के गठजोड़ को तोड़ने के लिए उन्हें सफल हथियार के तौर पर प्रयोग करती रही है. साल 2014 में नीतीश एनडीए के विरोधी थे तो एनडीए ने उपेंद्र कुशवाहा को तीन सीट देकर सिर आंखों पर बिठाया लेकिन अब जब नीतीश एनडीए में वापस लौट आए हैं तो महागठबंधन उपेंद्र कुशवाहा को तवज्जो देकर अपना हित साधने में जुट चुका है.
जाहिर है उपेंद्र कुशवाहा भी इस अवसर का लाभ आया राम गया राम की भूमिका में भरपूर उठा रहे हैं. साल 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद एनडीए को मिली करारी हार के बाद कोइरी समाज में उनकी असली पकड़ का अंदाजा मिल चुका था. साल 2019 में अगर रिजल्ट उसी तरह का रहा तो जाति विशेष के नाम की राजनीति की धार उपेंद्र कुशवाहा के लिए जरूर कुंद पड़ जाएगी.
वैसे महागठबंधन उन्हें महत्वपूर्ण नेता के तौर पर देख रहा है इसलिए उन्हें लगभग चार सीटों पर लड़ाने का फैसला लगभग तय है. आरजेडी के नेशनल यूथ सेक्रेट्री अजय सिंह के मुताबिक आजेडी सांप्रदायिक शक्तियों को हराने के लिए प्रतिबद्ध है और इसके लिए जो भी साथ आए उसका महागठबंधन में स्वागत है.
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