बीजेपी कर्नाटक में बहुमत से कुछ कदम दूर खड़ी है और सियासी दांव -पेंच चरम पर है. पर इतना तय है कि बीजेपी ने कांग्रेस मुक्त भारत के अपने अभियान में एक कदम और बढ़ाया है जिसका ताजा पड़ाव कर्नाटक साबित हो सकता है. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार बीजेपी की जीत के बाद कांग्रेस 11 राज्यों में चुनाव हार चुकी है.
गुजरात में कांटे की टक्कर के बाद राहुल गांधी की अगुआई में कांग्रेस जोश में आई, लेकिन 2019 के चुनाव की आहट से ठीक पहले कर्नाटक का जनादेश बड़ा संकेत देता है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की चुनावी रणनीति के आगे कांग्रेस पस्त दिखाई दे रही है और ऐसा अचानक नहीं हुआ है. पिछले एक दशक में बीजेपी की मजबूती ये रही कि इसके रणनीतिकारों ने सत्ता विरोधी लहर या एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर को खत्म कर दिया. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात कुछ बड़े उदाहरण हैं.
अमित शाह की टीम ने अपनी सरजमीं बचाए रखने के साथ उन इलाकों पर आक्रामक तरीके से फोकस किया जहां बीजेपी की सरकार नहीं थी. उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक जीत और उसके बाद पूर्वोत्तर में प्रसार ने बीजेपी के हौसले बुलंद कर दिए हैं.
आखिर भाजपाई रणनीति के आगे विपक्ष क्यों घुटने टेकते रहा?
थोड़ा पीछे जाते हैं. नब्बे के दशक में मंडल-कमंडल की राजनीति के बीच अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसने कार्यकाल पूरा किया.
वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते 2002 में गुजरात के दंगे हुए. इस दौरान बीजेपी के खिलाफ हमले का सबसे बड़ा विपक्षी कार्ड रहा सांप्रदायिकता का. इस बीच 2004 से 14 के बीच कांग्रेस केंद्र पर काबिज रही. इस बीच बीजेपी की रणनीति स्पष्ट थी. वो सांप्रदायिक राजनीति के आरोपों के बीच राष्ट्रवाद को धुरी बना अपने एजेंडे पर कायम रही. केंद्र में सरकार नहीं रहने के बावजूद राज्यों में पैठ बनाती रही.
इस बीच 2004 में राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में आए और पिछले साल कांग्रेस की कमान संभाली. 2014 में मिली जीत के बाद नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अमित शाह की जादुई रणनीति को पछाड़ने के लिए न सोनिया ने कोई वैकल्पिक कार्यक्रम पेश किया और न ही राहुल ने कोई ठोस रणनीति बनाई.
दूसरी ओर जन-धन योजना, बेनामी संपत्ति के खिलाफ कानून, गरीब परिवारों को गैस कनेक्शन देने की उज्जवला योजना और हर घर बिजली जैसी योजनाओं को बड़ी सफलता बता कर भाजपाई कैडर वोटरों के बीच इसे प्रसारित करता रहा है. किसानों की आय दोगुनी करने और मुद्रा योजना के जरिए रोजगार देने के दावों को कांग्रेस फ्लॉप बताती रही लेकिन कर्नाटक का जनादेश से साफ पता चलता है कि कांग्रेस मुद्दा आधारित राजनीति में मात खा गई.
मोदी का इंदिरा कार्ड
वहीं बेहद चालाकी से नरेंद्र मोदी ने जवाबी हमले के लिए कांग्रेस के तरकश से ही तीर निकाला. राहुल गांधी ने मोदी के परिधान पर तंज कसते हुए कहा था- ये सूट बूट की सरकार है. इससे पहले मणि शंकर अय्यर ने लोकसभा चुनाव से पहले मोदी को चाय बेचने वाला बता कर पार्टी का नुकसान कराया था. राहुल के निजी हमलों के बाद मोदी ने इमोशनल कार्ड खेला. वही कार्ड जो 1971 में इंदिरा गांधी ने खेला था जब कामराज की अगुआई वाले कांग्रेसी धड़े ने इंदिरा हटाओ का नारा दिया था.
तब इंदिरा ने कहा था... मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वो कहते हैं इंदिरा हटाओ. मोदी ने अपने ऊपर हो रहे हमलों को हथियार बनाया और पहली बार लखनऊ में यूपी विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान कहा... वो कहते हैं मोदी हटाओ, मैं कहता हूं काला धन हटाओ. कर्नाटक के भाजपाई कार्यकर्ताओं से वीडियो चैट के दौरान मोदी ने फिर ये बात दोहराई. उन्होंने कहा... विपक्ष मुझे हटाना चाहता है, उन्हें ये पच नहीं रहा कि बीजेपी गरीबों की पार्टी है. मोदी लगातार निजी हमलों को लोकप्रियता हासिल करने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं. पकौड़ा बेचने को उद्यमिता बताने के बाद उनकी जिस तरह खिल्ली उड़ाई गई, उसे भी बीजेपी ने औजार बना लिया.
2014 से लेकर अब तक कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की रणनीति केंद्र सरकार की नीतियों या बीजेपी की विफलताओं को उजागर करने से ज्यादा मोदी को लपेटे में लेने की रही है. इस ट्रैप में विपक्ष फंसा हुआ प्रतीत होता है. तभी स्थानीय निकायों तक के चुनावों में भी मोदी मुद्दा बनते हैं और बीजेपी इसका फायदा उठाती है.
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