देश में इन दिनों राजनीतिक बहस उस वाट्सऐप जोक जैसी हो गई है जिसे चंद रोज पहले किसी ने सुनाया था.
वो जोक कुछ यूं था: एक आदमी ने दावा किया कि धरती समतल है और सूर्य इसके इर्द-गिर्द घूमता है.
इस पर किसी ने तमाम आंकड़ों और सबूतों के साथ यह साबित किया कि ऐसा नहीं है. धरती गोल है और यह सूरज के चक्कर काटती है.
धरती को समतल बताने वाले का जवाब था: ‘यह सब तो बाद में तय होता रहेगा, पहले ये बताओ कि तुम्हारी बीवी पड़ोसी के साथ भागी क्यों?'
अजब आलम है!
साफ है अगर आप सच का सामना नहीं कर सकते तो सच बोलने वाले पर हमला कर दीजिए. भारतीय राजनीति का आलम ऐसा ही है. यह मिसाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नोटबंदी पर संसद में दिए भाषण पर सटीक बैठती है.
मनमोहन सिंह: इससे जीडीपी में कम-से-कम दो फीसद से ज्यादा की गिरावट होगी.
जवाब: आप 2जी के बारे में क्यों नहीं बोलते?
मनमोहन सिंह: नोटबंदी की तैयारी में लापरवाही बरती गई. यह एक संगठित लूट है.
जवाब: वो तो ठीक है, ए. राजा का क्या ? भारत माता की जय, मालदा का क्या हुआ?
जैसा कि एक अखबार ने अपनी हेडलाइन में भी लिखा था: मोदी बने मनमोहन, मनमोहन बने मोदी.
नोटबंदी के बाद से ही मोदी ने संसद में एक भी लफ्ज नहीं बोला है. इस दौरान देशभर में लाइन में खड़े लोग मर रहे हैं और मोदी हंसते-रोते और गुनगुनाते घूम रहे हैं. संसद में वो मौन हैं और मनमोहन सिंह बोल रहे हैं.
जैसे को तैसा
मनमोहन सिंह की सरकार में अली बाबा और 40 चोर वाली कहानी के दर्शन होते रहे. जब मनमोहन सिंह को बोलना चाहिए था तब वो चुप्पी साधे बैठे रहे और उन्होंने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई. अब मनमोहन सिंह अपने किए की सजा भुगत रहे हैं.
अगर हम भारत की राजनीति का पुराना हिसाब-किताब बराबर करने पर आएंगे तो शायद ही संसद में दर्जन भर सांसद बचेंगे. किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप है तो कोई दंगों का आरोपी है.
जो राजनेता नैतिकता की मूरत बन रहे हैं, उनका इतिहास भी कोई पाक-साफ नहीं है. यह सभी एक दूसरे पर कुछ न कुछ आरोप लगाते रहते हैं. इसी तर्क से मनमोहन सिंह को भी नोटबंदी पर बोलने का हक है.
इस सच को कैसे नकारें
नोटबंदी के बाद लाइन में लगे 70 लोगों की मौत किसी महामारी की वजह से नहीं हुई है. एटीएम के बाहर लगी लाइनें कोई काल्पनिक बात नहीं हैं. यह बात भी उतनी ही सच है कि सरकार ने एटीएम मशीन के ट्रे के नाप के हिसाब से 2000 रुपए का नोट नहीं छापा, जिसकी वजह से कापी दिक्कतें आईं. सरकार को हर दूसरे दिन पैसे निकालने की सीमा बदलनी पड़ रही है.
प्रधानमंत्री के आश्वासन की भी कोई कीमत नहीं. नवम्बर 8 को उन्होंने देश को बताया कि 30 दिसंबर तक पैसा बदला जा सकेगा. पर सरकार ने 24 नवंबर को ही नोट बदली बंद कर दी.
इसे सरकार की बदइंतजामी नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे. ऐसे हालात तो जिम्बाब्वे में रॉबर्ट मुगाबे के शासन में होते हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री का यह आरोप कि जल्दबाजी में लिया गया यह फैसला विकास को प्रभावित करेगा, गलत नहीं है. असंगठित क्षेत्र, किसानों, मजदूर और व्यापारियों के पास नकद की कमी होने की वजह से अर्थव्यवस्था थम जाएगी. ऐसा कई आर्थिक विशेषज्ञों का भी मानना है.
मशहूर उद्योगपति रतन टाटा ने इसे राष्ट्रीय आपदा बताया है. उन्होंने अपने एक संदेश में कहा कि सरकार को गरीबों की मदद के लिए वैसे ही कदम उठाने की जरूरत है, जैसे किसी आपदा के हालात में उठाए जाते हैं. ( वैसे टाटा जी, नीरा राडिया का क्या हुआ?)
Some further thoughts on implementation of demonetization program. pic.twitter.com/RZdicKvFS7
— Ratan N. Tata (@RNTata2000) November 24, 2016
अपने इस महान प्रयोग के समर्थन में आज तक सरकार ने कोई तथ्य पेश नही किए हैं. प्रधानमंत्री किसी नीति-कुशल राजनेता की तरह पेश आने के बजाय विपक्ष का मजाक बनाने में लगे हैं. वे रो रहे हैं. अपनी जान पर खतरा बताते घूम रहे हैं. अपने ऐप पर हास्यास्पद सवाल पूछ रहे हैं.
सरकार को इन सवालों के जवाब देने चाहिए:
काला धन कितना है ? सरकार अपने इस अभियान से इसमें से कितना बाहर लाने की उम्मीद रखती है?
8 नवंबर से पहले बैंक में जमा की जाने वाली राशि में 40 फीसदी का इजाफा क्यों हुआ? क्या कुछ खास लोगों के पास नोटबंदी की जानकारी पहले से पहुंच गई थी?
कितने भारतीयों को बैंकिंग सुविधा हासिल है? जिनके पास बैंक में खाते नहीं है, उन्हें नए नोट कहां से मिलेंगे?
क्या सरकार ने नोटबंदी के दीर्घकालिक और अल्पकालिक प्रभावों का अध्ययन किया था? यदि हां, तो इसके परिणाम क्या हैं?
क्या सरकार राजनीतिक दलों से अपने चुनावी खर्च का ब्यौरा देने पर दबाव डालेगी? क्या बीजेपी अपने पांच साल के चुनावी खर्च की जानकारी सार्वजनिक करने की पहल करेगी?
दूसरों की पत्नी के बारे में सवाल पूछ कर भले ही मुद्दे को भटकाने की कितनी कोशिश क्यों न की जाए, हम यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं हैं कि धरती समतल है.
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