उम्मीद यही थी कि नए साल की पूर्व-संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण लोक-लुभावन होगा. नोटबंदी के पचास दिन पूरे हुए थे और प्रधानमंत्री को लोगों का आभार जताना था. भाषण उम्मीद के मुताबिक लोक-लुभावन तो निकला लेकिन उसमें पहले सी ताजगी नहीं थी.
लोग सोच रहे थे कि देश ने परेशानी उठाई है तो इसे जायज ठहराने के लिए प्रधानमंत्री कुछ भारी-भरकम आंकड़े गिनाएंगे. लेकिन लोगों को निराशा हुई. भाषण में प्यार-दुलार से भरे वाक्य तो खूब थे लेकिन लोगों को गिनाने के लिए ठोस कुछ भी ना था.
आठ नवंबर को नोटबंदी का एलान करके प्रधानमंत्री ने देश को चौंकाया. एटीएम के बाहर खड़ी कतार आशा के हिंडोले पर झूल रही थी. लोगों में असुविधा पर झुंझलाहट थी लेकिन वे मोदी के नोटबंदी के फैसले के पक्ष में थे. लग रहा था कि कालाधन, आतंकवाद, जाली नोट जैसी तमाम बुराइयों के खिलाफ देश में जंग की शुरुआत हो गई है और जीत बस होने ही वाली है. 31 दिसंबर को मोदी के भाषण के बाद लोगों मन में उदासी थी और दिमाग में उलझन कि देश में आखिर बदला क्या?
प्रधानमंत्री के लहजे में कहें तो यह ‘शुद्धियज्ञ’ था लेकिन शुद्धि की परीक्षा आखिर किसे देनी पड़ी? मोदी ने कहा, 'हिंदुस्तान ने जो करके दिखाया है, ऐसा विश्व में तुलना करने के लिए कोई उदाहरण नहीं.' यह भी जोड़ा कि 'देशवासियों ने जो कष्ट झेला है, वो त्याग की मिसाल है.' बेशक ये दोनों बातें सही हैं.
बीते माह, वेनेजुएला में ऊंची कीमत के नोट अवैध करार देने की कोशिश लोगों के भारी विरोध, लूट और उत्पात के बीच रोकनी पड़ी. भारत के नागरिकों ने भारी धैर्य का परिचय दिया है. नोटबंदी के पचास दिन बीत गये लेकिन हिंसा और विरोध की कोई बड़ी घटना नहीं हुई. लोगों ने त्याग तो किया लेकिन हासिल क्या हुआ?
लोगों के धीरज को दो तरह से देखा जा सकता है. आप इसकी व्याख्या सहयोग के रूप में कर सकते हैं और लाचारी के इजहार के रूप में भी. कतार में बेबस खड़े रहने के सिवा लोगों के पास कोई चारा भी था क्या? सरकार जिसे सहयोग समझ रही है वह दरअसल लोगों की मजबूरी भी हो सकती है. इसलिए नये साल में अपनी पीठ आप थपथपाने से पहले सतर्कता बरतना कहीं ज्यादा अच्छा होगा.
प्रधानमंत्री ने कहा कि नोटबंदी से कालाधन, आतंकवादियों की फंडिंग और कर चोरी को करारी चोट पहुंची है. ठोस सबूत के अभाव में इस दावे को आसानी से मानना या खारिज करना मुश्किल है. प्रधानमंत्री को संदेह का लाभ दिया जा सकता है. आखिर इतना बड़ा कदम उठाया तो उसके छोटे-मोटे कुछ तो फायदे होंगे ही. लेकिन प्रधानमंत्री को यह सलाह भी दी जानी चाहिए कि आगे से जब वे इतना बड़ा कदम उठाएं तो यह जरूर देखें कि कार्रवाई बड़ी है तो फायदे भी बड़े हों. सर्जिकल स्ट्राइक कारपेट बमबारी की तरह नहीं लगनी चाहिए.
मोदी को नाटकीयता से लगाव है. यह उनके बड़े कदम और भाषणों में दिखता है.इसमें कुछ भी गलत नहीं लेकिन जो नाटकीय है वह जरूरी नहीं कि हमेशा कारगर साबित हो. बड़े फैसले लेकर लोगों को चौंकाना कुछ समय तक कारगर हो सकता है. लोगों को लग सकता है कि सरकार काम कर और आगे बढ़ रही है लेकिन आखिर में उठाए गए कदम के साफ-साफ नतीजे सामने आने चाहिए.
और, ये नतीजे ही हैं जिनका मोदी के शासन में अभाव है. अर्थव्यवस्था की बढ़ती दर और विकास के शोर के बावजूद यूपीए-2 के दौर के बाद से देश में कोई भी ठोस बदलाव नहीं हुआ है. मोदी अब भी बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन इस लोकप्रियता के छीजने का डर है.
31 दिसंबर के भाषण के बाद लगा कि प्रधानमंत्री या तो भाषण देते-देते थक गए हैं या फिर लोग ही उनको सुनते-सुनते उबने लगे हैं. वे बार-बार एक ही बात कहते हैं. उनके भाषण से नएपन का स्वाद धीरे-धीरे जा रहा है. 2017 में उन्हें भाषण पर कम और नतीजों पर ज्यादा जोर देना होगा.
इन बातों का यह मतलब नहीं कि प्रधानमंत्री की काबिलियत पर कोई संदेह है. सुधार और बदलाव की बाट जोह रहे देश के लिए वे अब भी सबसे बेहतर नेता हैं. लेकिन उनसे गलती नहीं होगी, यह भ्रम पालना ठीक नहीं. नोटबंदी एक सबक है और प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे इसे पूरी गंभीरता से लें.
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