राजनीति में जो आंखों से दिखाई देता है, उसकी सच्चाई भी वही हो ये जरूरी नहीं है. बल्कि यूं कहें कि ज्यादातर मौकों पर राजनीति में जो दिखाई देता है उसकी असलियत कुछ और ही होती है. हां ये बात है कि उस असलियत तक पहुंचना आसान नहीं होता है. बड़ी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि रखनी पड़ती है.
मसलन वेल्लोर में भूख हड़ताल पर बैठे एआईएडीएमके के कार्यकर्ताओं को देखकर तो जनता यही समझ रही थी कि वो कावेरी जल विवाद पर अपनी मांग लेकर अनशन पर बैठे हैं. बेचारे भूख से बिलबिला रहे होंगे लेकिन जनता की भलाई की खातिर जान-प्राण दिए जा रहे हैं.
अगर अनशन स्थल वाले मंच के पिछवाड़े की तस्वीरें वायरल न हुई होतीं तो भूख हड़ताल के फर्जीवाड़े का कहां पता चलता? वेल्लोर में मंच के आगे भूख हड़ताल कर रहे नेता मंच के पिछवाड़े में जाकर बिरयानी और लेमन राइस उड़ा रहे थे. नेता बारी-बारी से उठते और पीछे जाकर बिरयानी और लेमन राइस उड़ाकर बिना डकार लिए वापस भूख हड़ताल पर बैठ जाते.
मंच के पिछवाड़े की तस्वीरें वायरल हो गईं, नहीं तो इस कारगुजारी का पता भी नहीं चलता. इसलिए कहते हैं कि राजनीति में आंखों देखी का कोई खास महत्व नहीं है. जो सच वेल्लोर के भूख हड़ताल की सामने आई है, वो आज की राजनीति के व्यावहारिक सच के सबसे ज्यादा करीब है.
दरअसल आज की प्रतीकात्मक राजनीति में कुछ करने से ज्यादा जरूरी है कुछ करते हुए दिखना. जैसे संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण के दौरान पूरे समय विपक्ष सुबह-सुबह बापू की प्रतिमा के आगे खड़ी हो जाती. कभी आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग पर, कभी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने के नाम पर, कभी महंगाई और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के नाम पर तो कभी किसान-दलित या कावेरी जल विवाद के नाम पर.
अलग-अलग मुद्दों पर विपक्ष बापू की मूर्ति के आगे शांति से खड़ी होता रहा. फिर संसद के भीतर जाकर अशांति फैलाती रहा. विपक्ष पूरे सत्र के दौरान कुछ करते दिखना चाहता था. वो पूरे सत्र के दौरान सरकार का विरोध करती दिखी. इसका परिणाम चाहे जो हो. ठीक उसी तरह सत्ता पक्ष भी पूरे सत्र के दौरान इस विरोध का जवाब उन्हें छुट्टी दिलवाकर देती रही.
पूरा बजट सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया. सवाल करें तो किससे? विपक्ष के पास जवाब है कि वो सरकार का विरोध क्यों न करें? सत्ता पक्ष के पास जवाब है कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मकसद है विपक्ष का. आखिरी मौके पर जाकर एनडीए मोरल ग्राउंड पर कुछ कर दिखाने की कोशिश में अपने तनख्वाह को कुर्बान करने की बात कर रही है.
संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार का कहना है कि चूंकि संसद की कार्यवाही नहीं चल पाई है इसलिए एनडीए के सभी सांसद अपने 23 दिन की सैलरी नहीं लेंगे. सवाल है कि क्या संसद नहीं चल पाने की भरपाई वेतन कटौती करवाकर की जा सकती है? सांसदों की इस कुर्बानी का कोई मतलब है?
अनंत कुमार का कहना है कि 'क्योंकि संसद की कार्यवाही नहीं चली है, इसलिए हमने 23 दिनों की सैलरी और भत्ता नहीं लेने का फैसला किया है. हमें ये पैसा जनता की सेवा के लिया दिया जाना था और अगर हम ऐसा करने में असमर्थ होते हैं तो हमें कोई अधिकार नहीं कि हम जनता के पैसे लें.'
We, @BJP4India -NDA MPs have decided to forego salary & allowances for 23 days as #Parliament was not functional. Salary is to be given only if we serve people through work.
Congress's undemocratic politics has made LS & RS non functional, inspite of our willingness to discuss— Ananthkumar (@AnanthKumar_BJP) April 4, 2018
सुनने में ये अच्छा लग सकता है लेकिन इस कुर्बानी का कोई मतलब नहीं है. ये कोई सैलरी जस्टिफाई करने का मामला नहीं है कि ये कह दें कि लो भई मैंने काम नहीं किया तो सैलरी काट लो. एक सांसद से ये अपेक्षा नहीं की जाती कि वो संसद में सरकारी नौकरी करने गए हैं. ये कोई लीव विदाउट पे पर जाने का मामला नहीं है कि एकाउंट में छुट्टी नहीं पड़ी है तो तनख्वाह से पैसे कटाकर मजे से नौकरी करते रहें. सांसदी की तुलना सरकारी नौकरी से नहीं की जा सकती. इसलिए वेतन कटौती का ये दिखावा ठीक उसी तरह का है कि भूख हड़ताल पर बैठ जाने का दिखावा करें और पंडाल के पीछे जाकर बिरयानी उड़ाते रहें.
इस बार का बजट सत्र ऐतिहासिक तौर पर खराब रहा है. 2000 के बाद ये अब तक का सबसे खराब सत्र रहा है. 24 लाख करोड़ के बजट को पास करने के बाद एक दिन की बहस नहीं हुई है. एक आंकड़े के मुताबिक बजट के दोनों सत्रों को मिलाकर इस बार लोकसभा सिर्फ 14 घंटे से थोड़ा ज्यादा वक्त तक चली है. वहीं राज्यसभा में सिर्फ 10 घंटे से थोड़ा ज्यादा वक्त तक काम हुआ है. ये 2000 के बाद अब तक सबसे खराब आंकड़ा है.
इस खराब आंकड़े की भरपाई एनडीए के सांसद अपनी सैलरी देकर करना चाह रहे हैं. ऐसा तो नौकरी में भी नहीं होता है. नौकरियों में आउटपुट न देने पर सैलरी नहीं काटी जाती नौकरी से हाथ धोना पड़ता है. और यहां सांसद अपनी सैलरी का कुछ हिस्सा देकर महान बनने की कोशिश में लगे हैं.
सुब्रमण्यम स्वामी तो इस पर भी तैयार नहीं है. उन्होंने सांसदों की सैलरी देने की बात पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. उनका कहना है कि 'मैं तो रोज संसद जाता हूं. अगर संसद की कार्यवाही चलती नहीं है तो इसमें मेरा दोष नहीं है. मैं राष्ट्रपति का प्रतिनिधि हूं. जब तक वो नहीं कहते मैं ऐसा कैसे कह दूं कि मैं अपनी सैलरी नहीं लूंगा.' ये फिर भी ठीक बात है. कम से कम सुब्रमण्यम स्वामी नाखून कटाकर शहीद होने का ढोंग तो नहीं कर रहे.
I used to go daily, if House didn't run it isn't my fault. Anyhow I'm President's representative, until he says so, how can I say I'll not take my salary: S.Swamy on Ananth Kumar's statement, 'BJP-NDA MPs have decided to not take salaries as Parliament hasn't been functioning' pic.twitter.com/q8sX20knq3
— ANI (@ANI) April 5, 2018
सोचने वाली बात है कि अगर सैलरी कटवाने से संसद की कार्यवाही न चलने देने का अपराध खत्म हो जाता है तो फिर तो ये सबसे आसान उपाय होगा. फिर तो हर बार यही होगा. अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने की आत्मग्लानि से इतना आसान छुटकारा नहीं हो सकता. सरकार विपक्ष के साथ हर सांसद की इस देश के नागरिकों के प्रति जवाबदेही है. वो कोई जुर्माना देकर इस जवाबदेही से बच नहीं सकते.
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