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आडवाणी का गुस्सा बीजेपी पर कितना भारी पड़ेगा

भाजपा उस समय सकपका गई जब उनके अपने सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवानी उन पर बरस पड़े.

Updated On: Dec 08, 2016 10:46 AM IST

Sanjay Singh

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आडवाणी का गुस्सा बीजेपी पर कितना भारी पड़ेगा

बुधवार को संसद में नोटबंदी पर नारेबाजी का अंदाज ही बदल गया. सत्ताधारी बीजेपी ने राज्यसभा में अपना वही आक्रामक अंदाज दिखाया: ‘हिम्मत है तो बहस करो.’

भाजपा उस समय सकपका गई जब विपक्षी सांसद नहीं उनके अपने सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवानी उन पर बरस पड़े.

हुआ यूं कि जैसे ही वित्त मंत्री और सदन के नेता अरुण जेटली ने विपक्ष को चुनौती दी कि “हिम्मत दिखाइए” और नोटबंदी पर बहस करिए, तो इसके तुरंत बाद ही बीजेपी सांसदों ने अपनी सीटों से जोर जोर से नारे लगाने शुरू कर दिए.

भाजपा सांसद नोटबंदी के मुद्दे पर अपना रुख रखने और टीवी चैनलों पर जरूरी फुटेज पाने के बाद तीन हफ्तों से हर रोज बहस में बाधा डाल रहे हैं. लोकसभा में भी ऐसा ही शोरशराबा दिखाई दिया और सदन को स्थगित कर दिया गया.

जब आडवाणी ने ली क्लास

लेकिन चंद मिनटों बाद ही सत्ता पक्षा के गर्म तेवरों को पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने झटका दे दिया. जैसे ही लोकसभा दोपहर के समय एक बार फिर से स्थगित हुई,  तो व्यथित आडवाणी कभी उनकी ही छत्रछाया में रहने वाले संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार पर बरस पड़े.

आडवाणी ने कहा कि अनंत कुमार और लोकसभा अध्यक्ष, दोनों ही सदन को चलाने में सक्षम नहीं हैं. उन्होंने संसद में जारी गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों की आलोचना की. आडवाणी को शांत करने की अनंत कुमार की कोशिशों का उन पर कोई असर नहीं दिखा.

आडवाणी की आवाज में इस कदर रोष था कि उसे लोकसभा की पहली मजिल पर बनी प्रेस गैलरी में बैठे मीडियाकर्मियों ने भी सुना. यह मुद्दा ऐसा था कि संसद के गलियारों में और उससे बाहर भी, इस पर तुरंत बातें होनी लगीं.

L K Advani

एक स्तर पर, इस तरह आडवाणी का गुस्सा समझा जा सकता है.  मौजूदा गतिरोध को लेकर बुजुर्ग नेता और शायद सदन के सबसे वरिष्ठ नेता के मन में वाकई नाराजगी है. लेकिन उन्होंने अनंत कुमार का भी ख्याल नहीं किया जो न सिर्फ उन्हीं की पार्टी के नेता है, बल्कि वह उनके बहुत करीबी भी रहे हैं. अनंत कुमार संसद के दोनों सदनों के प्रबंधन से जुड़े मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई है.

एक दूसरे स्तर पर, संसद में गतिरोध को लेकर इस तरह सार्वजनिक रूप से सख्त टिप्पणी को उनकी अपनी ही पार्टी और सरकार की निंदा माना जा सकता है, वह भी नोटबंदी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर.

आडवाणी को पता था कि उनकी कही बातें तुरंत सुर्खियां बन जाएंगी. हालांकि सूचना और प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू समेत भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने इस मामले को यह कह कर रफा दफा करने की कोशिश की. इन नेताओं का कहना था कि हर रोज होने वाले स्थगन को लेकर इसे सबसे वरिष्ठ सांसद की पीड़ा के तौर पर देखा जाना चाहिए.

बहरहाल, यह तो आसानी से समझा जा सकता है कि पार्टी को अपने ही ‘मार्गदर्शक’ के कारण खासी शर्मिंदगी उठानी पड़ी है.

बीजेपी की मुश्किल

बीजेपी की समस्या यह है कि विपक्ष आडवाणी के बयान के जरिए सरकार पर निशाना बना सकता है और जनता के बीच यह दावा कर सकता है कि दरअसल संसद में गतिरोध की जिम्मेदार सरकार ही है.

लगभग एक साल से आडवाणी चुप हैं. वह पार्टी के मंच पर किसी मुद्दे पर नहीं बोल रहे हैं. यही  नहीं, वह संसद के बाहर और भीतर भी कुछ नहीं कह रहे हैं. लेकिन अब संसद के कामकाज को लेकर उनका सख्त रूख सामने आया है, वह भी तब जब लोगों को नगदी मुहैया कराने को लेकर कुप्रबंधन और बड़े पैमाने पर लोगों को हो रही समस्याओं पर गर्मागर्म बहस हो रही है. ऐसे में सदन के प्रबंधन को लेकर अपनी ही पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता की टिप्पणी सरकार की मुश्किलों को बढ़ा सकती हैं.

Protest

PTI

एक साल हो गया जब आडवाणी पार्टी के भीतर लीक से अलग हो गए. बिहार चुनाव में बीजेपी की हार के बाद आडवाणी ने मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा के साथ मिल कर एक बयान जारी किया.

बयान छोटा, लेकिन सख्त और तल्ख था: बिहार के नतीजे दिखाते हैं कि “दिल्ली में मिली विफलता से कोई सबक नहीं लिया गया. हार के लिए हर किसी को जिम्मेदार ठहराने का मतलब है कि किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा. हार का मुख्य कारण है पिछले एक साल में पार्टी का उत्साहविहीन होना.. हार के कारणों की पूरी तरह जांच होनी चाहिए. इस बात की भी छानबीन हो कि कैसे पार्टी को चंद लोगों की जागीर बनाया जा रहा है और आम सहमित वाला चरित्र बर्बाद किया जा रहा है.”

आडवाणी बीजेपी के साथ हैं या खिलाफ

इस बार आडवाणी का संदेश उतना सीधा और शर्मिंदगी वाला तो नहीं है, लेकिन इससे नुकसान तो होगा और सदन के प्रबंधन और सरकार के नजरिए को लेकर बातें होंगी. पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता को और हाशिए पर धकेला जा सकता है, लेकिन उन्हें अब इस बात की परवाह नहीं है क्योंकि उन्हें लगेगा कि मौजूदा परिस्थिति में उन्होने जो किया ठीक किया.

लेकिन सत्ताधारी पार्टी में कुछ लोग हैं जो सोचते हैं कि अगर सरकार थोड़ी सी लचक दिखाती तो इस मुद्दे को सुलझाया जा सकता था. प्रधानमंत्री से आग्रह किया जाता कि वह मौजूदा सत्र में थोड़ा और ज्यादा संसद में रहते और इस मुद्दे पर ऐसी चर्चा के लिए सहमत होते जिसमें मतदान का भी प्रावधान होता.

सरकार के एक पदाधिकारी ने कहा, “पार्टी का रुख है कि यह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई है. आप या तो इसके साथ है या इसके खिलाफ. अगर इस मुद्दे पर मतदान भी होता तो लोगों को पता चल जाता कि कौन भ्रष्टाचार, कालेधन, जाली मुद्रा और आतंकवादी गुटों को मिलने वाली मदद के खिलाफ सरकार के साथ और उसके खिलाफ है.”

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