उग्र-राष्ट्रवादी भारत के सबसे बड़े दुश्मन हैं. वे हर रोज हमारे दुश्मनों के सामने नई-नई तरह की गीदड़भभकी पेश करते हैं और उसकी व्यावहारिकता और प्रभाव के बारे में कुछ नहीं सोचते.
वे शेखचिल्ली की तरह शेखी बघारते हैं कि मैं 'ये कर दूंगा, वो कर दूंगा'. यह शेखी कोई कार्रवाई न होने के बाद शर्मिंदगी में तब्दील हो जाती है.
इससे हमारे दुश्मनों में यह संदेश जाता है कि भारत बात तो बहुत करता है लेकिन असल में करता कुछ नहीं.
इसलिए वास्तव में भारत की सबसे महान सेवा यह होगी कि 'भारत माता की जय' ब्रिगेड को गाय की रक्षा करने और अरविंद केजरीवाल व कन्हैया कुमार से भिड़ने के काम में वापस लग जाना चाहिए.
देश के फायदे के लिहाज से आरामकुर्सी पर बैठकर युद्ध लड़ने वाले हमारे इन योद्धाओं को पाकिस्तान से निपटने और भारत का बचाव करने का काम प्रधानमंत्री और उनकी विशेषज्ञ टीम के लिए छोड़ देना चाहिए.
एकतरफा कार्रवाई
इन योद्धाओं में से ज्यादातर के विचार इस धारणा से निकलते हैं कि एक पर्याप्त सैन्य बल और परमाणु संपन्न दुश्मन से निपटना कुर्सी पर बैठकर शतरंज खेलने जैसा आसान काम है.
अदाहरण के लिए इस सुझाव पर विचार कीजिए कि भारत को एकतरफा कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान के साथ हुआ सिंधु जल समझौता रद्द कर देना चाहिए.
यह पानी के बंटवारे को लेकर दो देशों के बीच 1960 में हुआ समझौता था. इसमें पूर्वी नदियां-व्यास, रावी और सतलुज तथा पश्चिमी नदियां-सिंधु, चिनाब और झेलम शामिल थीं.
तब से दोनों देशों ने कारगिल के अलावा दो बड़े युद्ध लड़े, 1987, 1990 और 2001-02 में तीन बार सीमा पर सेना की तैनाती बढ़ाई गई, कई बार तनाव बढ़ा और सामान्य हुआ. फिर भी भारत ने एक बार भी संधि तोड़ने के बारे में नहीं सोचा.
इसका कारण सामान्य है. (यह जवाहर लाल नेहरू के आदेश के चलते नहीं था) सीधी सी बात है कि यह विचार व्यावहारिक नहीं था और इससे यह धारणा स्थापित होती कि जिस देश से नदियां निकलती हैं, वे उन्हें रोकने का विशेष अधिकार रखती है.
पानी रोकना भारत के लिए खतरनाक
इंडियन एक्सप्रेस लिखता है, तीन पश्चिमी नदियों का पानी रोकने से पाकिस्तान को पानी मिलना बंद हो जाएगा लेकिन वास्तव में इससे उत्तर भारत के कई शहरों में बाढ़ का खतरा पैदा हो जाएगा.
अखबार ने अपनी रिपोर्ट में कई विशेषज्ञों के हवाले से कहा कि पानी रोकना दरअसल भारत के लिए ही हानिकारक होगा.
भारत अगर एक बार उद्गम स्थल पर इस अधिकार को अमल में लाने का फैसला करता है तो वह भविष्य में चीन के लिए भी ऐसी कार्रवाई की राह खोल देगा.
जैसे पूर्वी और पश्चिमी नदियां भारत से होकर पाकिस्तान में बहती हैं, उसी तरह ब्रम्हपुत्र जो भारत और बांग्लादेश के बड़े इलाके में बहती है, चीन से निकलकर इन दोनों देशों में बहती है.
भारत और चीन के बीच पहले से ही ब्रम्हपुत्र और सांगपो नदी के प्रवाह को रोकने को लेकर काफी विवाद चला आ रहा है.
भारत ने यदि एक बार उद्गम स्थल देश होने के चलते एकतरफा कार्रवाई का उदाहरण पेश किया तो भविष्य में वही सिद्धांत अपनाने से चीन को कौन रोक पाएगा.
पानी रोकने का विचार मूर्खतापूर्ण
वास्तव में, सिंधु नदी का पानी रोकने का विचार मूर्खतापूर्ण है. यह त्वरित रूप से बाढ़ का कारण बनेगा और लंबे समय में चीन के मामले में घातक परिणाम सामने आएगा.
यह संधि दोनों देशों की अलग-अलग विचारधारा वाली सरकारों के रहते युद्ध और तनाव के बावजूद पांच दशक से ज्यादा समय से बना हुई है.
शिकारियों की मांग यह भी है कि पाकिस्तान में म्यांमार दोहराया जाए. वे समझते हैं कि हमारे सैनिक एलओसी पार करके पूरे मुजफ्फराबाद में आतंकियों को मार गिराएंगे. देखने में यह तर्कपूर्ण भी लगता है कि यदि भारत पूर्वी सीमा पर दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है तो यह कार्रवाई उत्तर-पश्चिमी सीमा पर भी दोहराई जा सकती है.
लेकिन इस सिद्धांत के समर्थक इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि भारतीय सैनिकों ने वहां की सरकार के समर्थन से सीमा पार की थी.
म्यांमार में भारतीय सेना ने आतंकियों को मार गिराया तो वहां की सेना ने प्रतिरोध नहीं किया. भले ही वह सहमति से हुआ हो या उनकी अक्षमता के कारण.
लेकिन एलओसी पर वैसी ही कार्रवाई कार्रवाई करने पर निश्चित तौर पर पाकिस्तानी सेना पलटवार करेगी, भले ही यह कार्रवाई बेहद गोपनीय तरीके से की जाए और पाकिस्तान को इसका पता न चल सके. उनका सुरक्षा तंत्र इसे खतरनाक पैंतरेबाजी में बदल देगा.
दुर्भाग्य से जो लोग पाकिस्तान के खिलाफ त्वरित दंडात्मक कार्रवाई का ढोल पीट रहे हैं, वे रणनीतिक अथवा सैन्य कौशल के मूलभूत उद्देश्य को नजरअंदाज कर रहे हैं.
हाशिए पर पाकिस्तान
यह उस उद्देश्य से किया जाता है कि दुश्मन को घुटनों पर ला दिया जाए और उसे विजेता की शर्तों को मानने पर मजबूर कर दिया जाए.
भारत-पाकिस्तान के मामले में यह उद्देश्य है पाकिस्तान को सीमा के इस पार आतंक को बढ़ावा देने और कश्मीर में हस्तक्षेप करने से रोकना.
भारत यह उद्देश्य तभी प्राप्त कर सकता है जब पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़े और भारत बराबर का नुकसान न उठाए, लेकिन परमाणु शक्ति होने के नशे और प्रसार के खतरे के चलते यह एक वास्तविक संभावना है.
पाकिस्तान एक उच्छृंखल राष्ट्र है जो अपनी क्षेत्रीय महात्वाकांक्षा, जेहादी मन:स्थित, पड़ोसी की प्रगति से उपजी लाइलाज ईष्या के चलते आत्मघाती हो चुका है. वह खुद की ही घृणा, हिंसा, कट्टरपंथ और द्वेष की आग में जल रहा है.
पाकिस्तान जबसे अस्तित्व में आया है, हर दशक में आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता के अपने रास्ते से भटका है और मूर्खतापूर्ण ढंग से खुद को हाशिए पर धकेलता गया है.
वह अपने जिहादी ढांचे के जरिये लगातार भारत पर आक्रमण करता है. इसके चलते उसने वैश्विक फोरम पर अपनी विश्वसनीयता खोई है और अमेरिका जैसे पारंपरिक लाभदाताओं से दूर होता गया है.
2015 में द डॉन के लिए लिखे अपने लेख में परवेज हुडबॉय कहते हैं कि पाकिस्तान को परमाणु क्षमता भी नहीं बचा सकती.
पाकिस्तान को घुटनों पर लाने के लिए जरूरत है कि भारत उस प्रक्रिया को आगे ले जाए जो दुश्मन को धीमा जहर देने वाली हो.
इस पर काम करने के लिए मोदी को अकेला छोड़ देने की जरूरत है ताकि वे सुनियोजित रणनीति बना सकें जिसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप और कूटनीति शामिल हो.
अधीर 'जय हिंद' ब्रिगेड के विचार और उनकी ओर से मोदी पर त्वरित कार्रवाई का दबाव भटकाव का कारण बनेगा और यह हमें उस जगह पहुंचा देगा जहां पाकिस्तान अपने प्रिय सपने के साथ जी रहा है.
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