कई दशक पुरानी बात है. अपने गांव के सफर के दौरान मैंने देखा कि दादाजी जी की उम्र के एक शख्स युवा लड़कों से पूछ रहे हैं, 'कोई अगर कहे कि कौवा तुम्हारे कान ले गया तो पहले तुम आसमान में उड़ते कौवे के पीछे भागोगे या अपने कान छू कर देखोगे?' यह सवाल मूर्खतापूर्ण लग सकता है, लेकिन आपको समझना होगा कि ये सवाल बच्चों की सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा था- बेवकूफी भरा कदम उठाने से पहले सच्चाई जांच लेनी चाहिए.
राजपूत करणी सेना जैसे अनगिनत उग्रवादी तत्व जो सड़कों पर इकट्ठा हो गए हैं और पद्मावत की रिलीज को रोकने के लिए हिंसक तरीके अपना रहे हैं, उनके लिए इसी बुनियादी समझदारी की जरूरत है और उन्हें खुद से यही सवाल करना चाहिए. फिल्म पद्मावती, जिसका नाम अब पद्मावत हो गया है, के खिलाफ प्रदर्शन शुरू में छोटे उग्रवादी गुटों की बेवकूफी भरी हरकत लग रही थी. इनकी असंगत हिंसा की बातों पर लोग हंसते थे, लेकिन फिर ये आनुपातिक रूप से बढ़ती गईं. अब इनका शारीरिक हिंसा में शामिल हो जाना और दंगा, आगजनी, रोड जाम और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहंचाने की हरकतें अब कानून-व्यवस्था, शांति, सामाजिक सौहार्द और कारोबार के लिए खतरा बन चुकी हैं.
सरकारें चाहतीं तो इससे निपट सकती थीं
कानून व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति में सरकार को अपनी ताकत दिखानी चाहिए थी. कानून लागू करने वाली एजेंसियों को उनसे कड़ाई से निपटना चाहिए था. आखिरकार दंगाई कोई अनजानी भीड़ नहीं थी. उनके नेता विभिन्न टीवी चैनलों पर दिन भर आते और जाते दिखाई रहे थे, और खुलेआम शारीरिक नुकसान पहुंचाने, दंगा करने और आगजनी की धमकी दे रहे थे. ये लोग क्रोधित भगवान शिव के लिए इस्तेमाल किया जाने शब्द तांडव (विनाश के लिए दैवीय नृत्य) का बार-बार इस्तेमाल कर रहे थे. ये लोग इतने पर ही नहीं रुके और अपनी सामंती रूढ़िवादी मानसिकता का परिचय देते हुए अपने समुदाय की औरतों को खुद को आग लगा जिंदा जलकर (जौहर) खुदकुशी करने को कह रहे थे. वास्तव में ये लोग कानून लागू करने वाली एजेंसियों को संबंधित कानूनों के तहत उनके खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती दे रहे थे. यह अंदाजा लगाने के लिए कोई इनाम नहीं है कि सरकार को ऐसे लोगों से किस तरह निपटना चाहिए, जो संविधान और देश के कानून में भरोसा नहीं रखते और देश व समाज का तालिबानीकरण करने पर आमादा हैं.
अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति होती तो सरकार इन गुंडों को चंद घंटों में सीधा कर सकती थी. नई घटनाओं के साथ जमीनी हालात बदतर हो चुके हैं. बीजेपी केंद्र और कानून-हीनता की स्थिति वाले इन सभी राज्यों में सरकार में है. इनमें से अधिकांश राज्यों ने राजपूत करणी सेना के रुख 'इतिहास के साथ खिलवाड़ स्वीकार नहीं किया जाएगा' का अनुसरण किया और फिल्म पर पाबंदी लगा दी. इन राज्यों में मध्य प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और राजस्थान शामिल हैं, जबकि उत्तर प्रदेश ने स्थानीय निकाय चुनाव खत्म होने तक फिल्म की रिलीज को टालने की मांग की. सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला देने के बाद कि राज्य सरकारें फिल्म पर पाबंदी नहीं लगा सकतीं, बल्कि उन्हें फिल्म के प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था सुनिश्चित करना होगा, राजस्थान और मध्य प्रदेश तो सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका डालने पहुंच गए.
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चुनाव तो बीत गए फिर क्यों चुप है सरकार?
फिर भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकारी एजेंसियों के दंगाइयों से निपटने में ढिलाई से जाहिर होता है कि सत्तारूढ़ पार्टी का करणी सेना से अनकहा समझौता ना हो तो भी, वह उससे कम से कम सहानुभूति जरूर रखती है. शुरू में फिल्म पर पाबंदी लगाने या रिलीज टालने के पीछे बीजेपी की राजनीति समझ में आती थी, क्योंकि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव थे और उत्तर प्रदेश में भी स्थानीय निकाय चुनाव होने वाले थे. कानून व्यवस्था की खराब स्थिति बीजेपी की चुनावी संभावनाओं पर पानी फेर सकती थी. अब ये चुनाव बीत चुके हैं और पार्टी इन सभी जगहों पर जीत चुकी है. लेकिन ऐसा लगता है कि एक खास समुदाय को खुश रखने की राजनीतिक मजबूरियां और बड़ी हो गई हैं.
मध्य प्रदेश में जिस तरह शिवराज सिंह चौहान सरकार और राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार ने एक गरममिजाज ग्रुप, जिन्हें अन्यथा सलाखों के पीछे होना चाहिए था, के सामने समर्पण कर दिया, वह दिखाता है कि राजनीतिक नेता पद और संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ का सम्मान करने के बजाय चंद वोटों को ज्यादा अहमियत देते हैं.
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सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को इस बात की फिक्र होनी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री ने चंद घंटे पहले ही दावोस में एक राष्ट्रनेता की तरह अपने संबोधन में कहा था, 'भारत आपको हर चीज का प्रस्ताव देता है, जो आप चाहते हैं और जिसकी आपको अपनी जिंदगी के लिए आवश्यकता है. इसलिए आपको मेरी सलाह है कि अगर आप समृद्धि और स्वास्थ्य चाहते हैं तो भारत में काम करें, अगर आप शांति और संपन्नता चाहते हैं तो भारत में आएं, अगर आप जीवन भर स्वास्थ्य चाहते हैं तो भारत में रहें.' लेकिन गुजरात के अहमदाबाद (उनके गृह प्रदेश) के कुछ हिस्से जल रहे थे, क्योंकि गरममिजाज लोग नहीं चाहते थे कि पद्मावत की स्क्रीनिंग हो सके.
करणी सेना एक बार फिल्म या प्रोमो तो देख लेती
राजपूत करणी सेना के नेता जो विभिन्न चैनलों पर दिखाई दे रहे थे, अपने देशवासियों और कानून के लिए गंभीर अपमान का प्रदर्शन कर रहे थे और टीवी कैमरों की स्पॉटलाइट का आनंद लेते हुए बदनामी में भी खुश हो रहे थे, क्योंकि उन्हें मुफ्त का प्रचार मिल रहा था. लेकिन राजपूत वीरता और सम्मान की रक्षा के नाम पर वो लोग उसी राजपूत समुदाय को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे थे, जिसका वो लोग हिस्सा हैं. गुंडों और बदमाशों के एक गुट ने पूरे समुदाय की बुरी छवि बना दी. ऐसा समुदाय जिसमें तर्कपूर्ण विचार के लिए, महिलाओं के सम्मान, वैज्ञानिक सोच और शिक्षा व समाज के विकास से आने वाली किसी भी चीज के लिए कोई जगह नहीं है.
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फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक साक्षात्कार में करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने स्वीकार किया कि उन्हें स्क्रिप्ट के बारे में नहीं पता कि यह फिल्म कैसी बनी है, लेकिन इसकी शुरुआत अहम के एक छोटे से मुद्दे से हुई- रणवीर सिंह का एक कथित वक्तव्य था कि अगर उन्हें अभिनेत्री दीपिका के साथ कुछ दृश्य करने को मिलें तो वह खलनायक से भी बुरी भूमिका करने को तैयार हैं. करणी सेना इस पर स्पष्टीकरण मांगा लेकिन ना तो रणवीर ने और ना ही फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने इस पर सफाई देने की जरूरत समझी.
सवाल है कि क्या एक ऐसा देश जो कि अगले कुछ दशकों में सबसे विकसित देशों में शुमार हो जाने का दावा करता है, ऐसे तर्कहीन लोगों और मृतप्राय विचारों का पोषण बर्दाश्त कर सकता है. अगर करणी सेना ने पद्मावत का प्रोमो देखने की जहमत उठाई होती तो वह जान जाते कि ये फिल्म किसी और चीज के बारे में नहीं बल्कि राजपूतों की वीरता के बारे में है, जैसा कि शाहिद कपूर ने कहा है. चिंता को तलवार की नोक पर रखे वो राजपूत, रेत की नाव लेकर समंदर से शर्त लगाए वो राजपूत और जिसका सिर कटे फिर भी धड़ दुश्मन से लड़ता रहे वो राजपूत. दीपिका ने भी कहा था- राजपूती कंगन में उतनी ही ताकत है, जितनी राजपूती तलवार में.
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