साझी विरासत बचाओ सम्मेलन भारत में विपक्ष बचाओ सम्मेलन जैसा था. नीतीश कुमार और बीजेपी के मिलन से नाराज जेडीयू के नेता शरद यादव ने विपक्ष को इकट्ठा करने का जिम्मा उठाया और देश की राजधानी दिल्ली में साझी विरासत बचाओ सम्मेलन के जरिए विपक्षी पार्टियों को इकट्ठा किया. इस सम्मेलन में 17 राजनीतिक दलों के नुमाइंदे दिखे. कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, एसपी, बीएसपी, एनसीपी, आरजेडी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, जनता दल- सेक्यूलर और आरएलडी समेत कई अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया.
सम्मेलन में शरद यादव के साथ कांग्रेस के बड़े नेता दिखे. कांग्रेस से राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, अहमद पटेल और गुलाम नबी आजाद आए तो वहीं कश्मीर से फारुख अब्दुला भी पहुंचे. उत्तर प्रदेश से एसपी और बीएसपी के प्रतिनिधि शामिल हुए. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संघ और मोदी सरकार को हराने के लिए विपक्षी एकता पर जोर दिया. उन्होंने कहा, 'अगर इनसे लड़ना है तो हम सबको एक साथ मिलकर लड़ना है. अगर हम सब मिलकर लड़ गए तो ये लोग आपको दिखाई नहीं देंगे.'
पर विपक्षी एकता के दावे तो पिछले तीन साल से चल रहे हैं. इससे पहले सोनिया गांधी और देश के विपक्षी पार्टियां ये बात कई बार कह चुकी है. लेकिन जहां पर बात विपक्षी एकता की आती है तो सारे इरादे धराशायी हो जाते हैं.
विपक्षी एकता के प्रयास
मोदी सरकार के दौरान विपक्ष को जोड़ने के प्रयास एक बार नहीं कई बार हुए. राष्ट्रपति-चुनाव विपक्षी एकता के लिए बढ़िया मौका था. सोनिया गांधी की पहल पर 17 दलों के नेता एक साथ बैठे, लेकिन संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी तय करने में इतनी अगर-मगर हुई कि मौका हाथ से निकल गया.
इससे पहले कांग्रेस ने नोटबंदी के विरोध में विपक्षी दलों की साझा बैठक बुलाई थी. लेकिन बैठक से पहले विपक्ष बिखर गया था. बैठक में सीपीएम, एनसीपी, जेडीयू समेत कई राजनीतिक दल शामिल नहीं हुए थे. जो आए उनमें भी ममता बनर्जी के अलावा किसी और दल का कोई बड़ा नेता नहीं आया.
तीसरे मोर्चे की तैयारी
इसके अलावा भी बाकी पार्टियों ने तीसरे मोर्चा को मजबूत पहचान देने की तैयारी की. बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव को साथ लाकर कांग्रेस सत्ता की भागीदार बन गई थी. लेकिन नीतीश कुमार ने सबको धता देते हुए बीजेपी का दामन थाम लिया. उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती को और बंगाल में लेफ्ट और टीएमसी को साथ लाने की कोशिश भी हो रही है, पर प्रयास सफल नहीं हो पा रहे.
क्यों एक नहीं हो पा रहा है विपक्ष?
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार को बने तीन साल हो गए हैं. इन तीन सालों में विपक्षी दल एकता की कोई धुरी नहीं खोज पाए हैं. एकता के लिए एक ऐसे नेता की जरूरत होती है जिसमें लोगों का भरोसा हो.
विपक्ष के पास मजबूत नेता नहीं
विपक्ष बार-बार इकट्ठा हो रहा है पर जुड़ नहीं रहा. इसका कारण है कि मजबूत जोड़ वाला फैविकोल नेता नहीं है. अपने अपने राज्य में राजनीति के धुरंधर को एक ऐसा नेता चाहिए जो उनके मतभेदों को भुला कर एक करे. लोहिया और जेपी जैसा कोई नेता नहीं है. क्षेत्रीय दलों के विभिन्न नेता अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के जतन से ही नहीं निकल पा रहे.
कांग्रेस राहुल गांधी को विकल्प के रूप में पेश कर रही है लेकिन नोटबंदी के विरोध में बुलाई गई बैठक में विपक्षी पार्टियों का ना पहुंचना इस बात का संकेत दे गया कि उन्हें राहुल का नेतृत्व मंजूर नहीं. राहुल के नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और पार्टी से बाहर स्वीकार्यता, दोनों पर सवालिया निशान लगा दिया था. ऐसे में सवाल उठता है कि कौन विपक्ष के गठबंधन का चेहरा कौन होगा.
राज्य के स्तर पर एक दूसरे के खिलाफ सियासत कर रहे दल केंद्र में एक साथ कैसे इकट्ठे होंगे
बात चाहे महागठबंधन की हो या फिर तीसरे मोर्चे की- क्षेत्रीय नेताओं को इकट्ठा करना सबसे बड़ा चुनौती का काम है. अपने राज्य में कांटे की लड़ाई करने वाले नेताओं को एक मंच पर बैठाना मुश्किल होता जा रहा है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में लड़ाई ने वहां पर विपक्ष एकता को कमजोर कर दिया. मुलायम अपनी पार्टी के हाशिये पर हैं. और वो मोदी के प्रति नरम भी दिख रहे हैं.
लालू प्रकरण के बाद उन्हें ही नहीं, मायावती को भी सीबीआई का डर सताने लगा हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं. तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति काफी बदल चुकी है. ममता बनर्जी को बीजेपी के अलावा वाम दलों से भी लड़ना होता है. खुद वाम दल बहुत कमजोर स्थिति में हैं. वाम दलों के पास फिलहाल हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा कोई नेता भी नहीं है, जो सभी नेताओं को जोड़े रखते थे.
तीन साल बाद भी मोदी सरकार लोकप्रिय
सबसे बड़ी बात यह कि केंद्र की बीजेपी सरकार की लोकप्रियता कम नहीं हुई है. जनता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादुई असर बरकरार लगता है. कहीं कहीं नोटबंदी और जीएसटी को लेकर नाराजगी है लेकिन नरेंद्र मोदी आज पूरे देश में लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं. नीतीश कुमार के बिहार में साथ आ जाने से बीजेपी और उसके सहयोगी दल देश की लगभग 70 फीसदी से ज्यादा आबादी पर शासन कर रही है. बीजेपी और उसके सहयोगियों की उन 12 राज्यों में से सात में सरकार है, जहां से 20 या इससे अधिक लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं. इस सफलता का पूरा श्रेय मोदी सरकार को दिया जाता है.
अपनी ही जमीन पर मजबूत नहीं है विपक्ष के नेता
शरद यादव के सम्मेलन में सबसे ज्यादा कांग्रेसी नेता शामिल हुए. कांग्रेस के पैरों तले पहले ही सियासी जमीन खिसकती जा रही है. कांग्रेस के पास उत्तर भारत में पंजाब और हिमाचल प्रदेश के सिवा कोई राज्य नहीं बचा है, जहां वो सत्ता में हो. समाजवादी पार्टी में खुद ही घमासान मचा हुआ है. एसपी अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही है. वामदल की पार्टियां दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही हैं. बंगाल से सत्ता गंवाने के बाद उनके वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा है. बीएसपी ने तो उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन पूरी तरह से खो दी है. लालू की आरजेडी सिर्फ बिहार में मजबूत है. वैसे भी सीबीआई की जांच के बाद तो लालू और उनकी पार्टी समस्याओं से घिर गई है. ऐसे में ये सारे दलों की नजर राष्ट्रीय दल कांग्रेस पर थी लेकिन वहां भी निराशा हाथ लग रही है.
देश की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस की स्थिति अपने में ठीक नहीं है
कांग्रेस की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बीमारी ने उनके लिए नई सीमाएं खड़ी कर दी हैं. राहुल की राजनीतिक परिपक्वता पर उनके अपनी पार्टी के लोग कभी खुल कर तो कभी चुपचाप सवाल उठाते रहते हैं. राहुल गांधी के बारे में यह बात सभी को मालूम है कि वो न तो लोकसभा चुनाव में अपना राजनीतिक अस्तित्व बचा पाए और न ही राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही अपना राजनीतिक कौशल दिखा पाए.
इतना ही नहीं अधिकांश राज्यों में कांग्रेस को केवल क्षेत्रीय दलों का ही सहारा रह गया है. कई राज्यों में कांग्रेस की हालत क्षेत्रीय दलों से भी ज्यादा खराब है, ऐसे में कांग्रेस के विधायक पार्टी से दूर जा रहे हैं तो इसमें दूसरे दल कर भी क्या सकते हैं? कांग्रेस गांधी परिवार से परे सोचना नहीं चाहती.
सबसे बड़ी समस्या है कि विपक्षी पार्टियों के पास नीति और साहस दोनों की कमी दिखती है. बीजेपी और संघ के व्यवस्थित और मजबूत संगठन के आगे उनके सारे फॉर्मूले और तरीके नाकाम हो रहे हैं. ऐसे में विपक्षी एकता ही खतरे में है. कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है, पर अभी तो विपक्षी एकता का प्रयास असंभावनाओं का तमाशा ही लगता है.
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