यूं तो अविश्वास प्रस्ताव के खारिज हो जाने भर से किसी सरकार की मुश्किल हल हो जाती है. लेकिन एक ऐसा मामला भी है जब अविश्वास प्रस्ताव में पास हो जाना ही सरकार और तत्कालीन पीएम के लिए सिरदर्द बन गया था.
26 जुलाई, 1993 को मॉनसून सत्र के दौरान सीपीआई के नेता अजय मुखोपाध्याय ने नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था. यह अविश्वास प्रस्ताव 2 दिन बाद महज 14 वोटों के करीबी अंतर से गिर गया था और नरसिम्हा राव की सरकार पर सांसदों के खरीद-फरोख्त के आरोप लगे थे. इसकी जह थी उस वक्त संसद में 528 सदस्य थे और नरसिम्हा राव के पास 251 सदस्यों का समर्थन था.
राजस्थान के कोटा से छपने वाले एक स्थानीय अखबार ने 1994 में यह खबर छापी की इस मामले में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को सरकार के पक्ष में वोट करने करने के लिए रिश्वत दी गई थी. इसके बाद इस मामले को लेकर राष्ट्रीय राजनीति गरमा गई और राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने इसकी सीबीआई जांच की मांग की. इस मांग को लेकर राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की.
जून 1996 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो ने यह स्वीकार किया कि अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में और सरकार के पक्ष में वोट करने के लिए उन्हें और कई सांसदों के रिश्वत दी गई थी. इस मामले में सीबीआई ने उन्हें गवाह भी बनाया था. सीबीआई ने अपनी जांच में पीवी नरसिम्हा राव समेत कई सांसदों का नाम चार्जशीट में डाला था.
सुप्रीम कोर्ट ने दिया था ये ऐतिहासिक फैसला
सीबीआई ने इस मामले में तीन चार्जशीट दाखिल किए थे. 11 जून, 1996 में सीबीआई ने रिश्वत कांड में पीवी नरसिम्हा राव, वीसी शुक्ला, आरके धवन, ललित सूरी और के खिलाफ आपराधिक साजिश और रिश्वत का मुकदमा दर्ज किया. 30 अक्टूबर, 1996 को सीबीआई ने इस केस में राव, बूटा सिंह, कैप्टन सतीश शर्मा, शिबू सोरेन, महतो, सूरज मंडल और सिमोन मरांडी के खिलाफ पहली चार्जशीट दाखिल की. 9 दिसबंर, 1996 को सीबीआई ने दूसरी चार्जशीट दाखिल की इसमें राजेश्वर राव, वीरप्पा मोइली जैसे नेताओं के नाम थे. 22 जनवरी, 1997 को सीबीआई ने तीसरी चार्जशीट दाखिल की इसमें रिश्वत लेने के आरोपी कई सांसदों के नाम थे. दिल्ली हाई कोर्ट ने तीनों चार्जशीट को एकसाथ मिलाकर ट्रायल के लिए निचली अदालत को भेज दिया.
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 105 (2) का हवाला देते हुए यह फैसला सुनाया था कि संसद में सांसदों द्वारा की कार्यवाही के चलते उनपर कोई आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इसकी वजह से जिन सांसदों के ऊपर इस केस में रिश्वत लेकर अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करने का चार्जशीट में आरोप था वो खारिज हो गया.
निचली अदालत ने सन् 2000 में पीवी नरसिम्हा राव और बूटा सिंह को इस मामले में दोषी ठहराते हुए 3 साल के जेल की सजा सुनाई थी. जिसे राव और बूटा सिंह ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. बाद में सन् 2002 में दिल्ली हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए दोनों को निर्दोष करार देते हुए बरी कर दिया.
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