राहुल गांधी का आज का संसद में भाषण ये बताता है कि वे अब ‘पप्पू’ से ‘मुन्नाभाई’ बनने का सफर शुरू कर रहे हैं. एक ऐसे वक्त में जब सोच ‘मुन्नाभाई’ से ‘संजू बाबा’ तक जा पहुंची है, राहुल गांधी की तलाश पुरानी और सिर्फ खयाली लगती है लेकिन फिर, आप राहुल गांधी पर प्रगतिशीलता और सही समय पर सही बात कहने की उम्मीद भी तो नहीं कर सकते.
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि राहुल गांधी आखिर अपने भाषण के आखिर में प्रधानमंत्री को जादू की झप्पी दे कर साबित क्या करना चाहते हैं या कौन सा सपना देख रहे हैं.
राहुल की झप्पी का क्या है मतलब
बीजेपी को बेरोजगारी, जीएसटी, राफेल विमान मुद्दे पर निशाने पर लेने के बाद, और सबसे ऊपर ऐलान करने के बाद कि प्रधानमंत्री मोदी में हिम्मत नहीं है कि वे उनसे आंख मिला सकें, राहुल गांधी ने वादा भी कर दिया कि दरअसल उनके भाषण से गुस्से में आए हर बीजेपी सांसद को, वो प्रेम और सहनशक्ति की संस्कृति वाला कांग्रेसी भी बना लेंगे. और इसके बाद ‘मुन्नाभाई’ की तरह वे सीधे प्रधानमंत्री मोदी के पास गए और उनके गले लग गए. संदेश ये था कि अपना स्वास्थ्य ठीक करो, मैं अपने भाषण और अपनी झप्पियों से तुम्हारी मदद करूंगा.
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राहुल गांधी के ‘मुन्नाभाई’ रवैये की दिक्कत ये है कि, बजाय अपनी पार्टी में मौजूद ‘बीमारियों’ का इलाज करने के, वे अपने विरोधियों की तबीयत ठीक करने में लगे हैं. वे राजनीति नहीं कर रहे, वे मानसिकता समझने का सिर्फ दिखावा कर रहे हैं. वे एक नेता बनने की बजाय एक ‘हीलर’ यानी इलाज करने वाला बनना चाहते हैं. और साफ कहें तो ये राहुल गांधी बनने के बजाय, वे महात्मा गांधी बनने की कोशिश करने में लगे हैं लेकिन ऐसा हो पाना बड़ा मुश्किल है. सिर्फ इसलिए क्योंकि राजनीति में चुनाव जीतने के लिए और विरोधी को पटखनी देने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सारी कलाएं आनी चाहिए, न कि विरोधियों का ह्रदय-परिवर्तन कराने की कला.
विपक्ष की कुंठा बढ़ा रहे हैं राहुल
राहुल का रवैया ऐसा होना चाहिए था कि ‘ठीक है, अगर आप मुझे ‘पप्पू’ कह कर बुलाते हैं, तो आपको मेरे कोप-भाजन का शिकार होना पड़ेगा.’ ये नहीं होना चाहिए कि ‘आप मेरी ऐसी-तैसी करें, गाली दें और मैं आपको गले लगाऊं.’ क्योंकि राजनीति में जब तक आप से लोग डरेंगे नहीं और आपका सम्मान नहीं करेंगे, आपको गंभीरता से नहीं लेंगे.
विपक्ष को दरअसल इस वक्त एक नेता की बड़ी सख्त जरूरत है. उन्हें एक ऐसे नेता की जरूरत है जो सरकार के लिए सारी विषम परिस्थितियों को एक सूत्र में बांधे और एनडीए के खिलाफ उपजे गुस्से को एक आंधी में बदल दे, जो बीजेपी को उड़ा कर सत्ता से बेदखल कर दे लेकिन बेमतलब के भाषणों, मामूली से वनलाइनर्स से राहुल गांधी सिर्फ विपक्ष की कुंठा को और बढ़ाने का काम ही कर रहे हैं.
जरा उनके भाषण पर गौर कीजिए. भाषण का वो हिस्सा जिसके बाद उन्होंने संसद में ‘मुन्नाभाई’ वाला काम किया. उन्होंने आज जो जो भी कुछ कहा, वो सब पिछले कुछ महीनों में उनके कई सारे बयानों का ही एक बदला हुआ रूप है, कोई नई बात उन्होंने नहीं कही. जैसे सूट-बूट की सरकार, चौकीदार नहीं, भागीदार. यानी डोकलाम और राफेल पर लगाए गए वही घिसे-पिटे पुराने आरोप. उन्हें सुनने के बाद लगता है जैसे, कांग्रेस खुद को बदलने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है. जैसे जीएसटी पर उन्होंने बताया कि कैसे सूरत में लोग मोदी सरकार से नाराज हैं. उन्होंने बिना ये सोचे समझे ये बात दोहरा दी कि उन्ही ‘सूरत के नाराज लोगों’ ने कांग्रेस को, गुजरात में विधानसभा चुनावों में, सूरत में स्थित विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में साफ कर दिया था.
कुछ ऐसा हो ताकि लोग हंसें नहीं
राहुल गांधी को समझने की जरूरत है कि अगर आप बार-बार वही बात, वही आरोप दोहराएंगे, तो या तो आपको गोएबेल्स माना जाएगा या एक ऐसा नेता जिसके पास बोलने के लिए नया कुछ नहीं. आज सोशल मीडिया के जमाने में आप बार-बार वही पुरानी बातें, मुहावरे अपने भाषणों में लाएंगे तो आपके पीछे चलने वालों की संख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होती. उन्हें चाहिए कि जब भी वो बोलने के लिए खड़े हों, कुछ नई बातों पर बोलें, नए मुद्दों पर रोशनी डालें. केवल तभी लोग उन्हें गंभीरता से लेंगे, उन पर हंसेंगे नहीं, जैसा आज उनके भाषण के अंत में हुआ.
शुक्रवार को हुई बहस राहुल गांधी के लिए बने-बनाए एक ऐसे मौके की तरह थी कि वे ढंग से उसमें अपनी भूमिका निभाते, तो उस आखिरी आदमी तक पहुंच सकते थे, जो उन्हें सुनना नहीं चाहता, या तो वहां तक उनकी आवाज नहीं पहुंचती. उन लोगों को वे आज प्रभावित कर सकते थे, जो हैं तो बीजेपी के साथ, लेकिन खुश नहीं हैं. उन्हें आज कांग्रेस की ओर मोड़ा जा सकता था.
लॉफ्टर चैलेंज बना संसद में भाषण
हालांकि, इस नीरस मौसम में इस राजनीतिक बहस ने लोगों की रुचि अचानक राजनीति में फिर बढ़ा दी है. लोगों ने दोनों तरफ के नेताओं के तर्क गौर से सुने. राहुल के पास आज सब कुछ था, पूरा देश उन्हें सुन रहा था, लोग सुनना भी चाहते थे कि आज राहुल क्या बोलेंगे लेकिन उन्होंने अपने भाषण को जब खत्म किया, तो लोग उन पर हंस ही रहे थे. ये अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि उन्होंने इस मौके को शायद लॉफ्टर चैलेंज की तरह ही लिया, गंभीरता से लिया ही नहीं.
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अगले कुछ महीनों में कांग्रेस या तो बन ही जाएगी, या फिर बिगड़ जाएगी. अगर लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव नहीं हुए, तो अब से कुछ महीनों बाद तीन बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने तय हैं. बीजेपी के अंदरखाने में नेताओं को भरोसा नहीं है कि वे राजस्थान का रण जीत पाएंगे. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी पार्टी को एंटी-इंकमबेंसी का खतरा डरा रहा है.
वोटर्स भी कांग्रेस की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं लेकिन राहुल गांधी को मतदाताओं को भरोसा दिलाना होगा कि उनकी पार्टी में ये काबिलियत है कि वह बीजेपी को उखाड़ फेंके. उन्हें किलर इंस्टिंक्ट यानी मारक प्रवृत्ति दिखानी होगी. वे बीते हुए जमाने के किसी आदर्शवादी नेता की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जिसके लिए राजनीति में विरोधियों को जीतना रूमानी ख्वाब है, वोट पाना नहीं. और वे ऐसे ही करते रहे, तो जीत भी नहीं पाएंगे.
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