देश में बड़े पैमाने पर राजनीति का अपराधीकरण हो गया है. ऐसे में अपराधी भी राजनीतिक विश्लेषकों की तरह बयान देने लगे हैं.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए इससे सटीक उपाधि नहीं हो सकती कि वो 'परिस्थितियों के मुख्यमंत्री' हैं.
भागलपुर जेल से बाहर निकलते वक्त आरजेडी के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन ने नीतीश कुमार के बारे में साफ बयान दिया था.
बिहार के इस बाहुबली ने साफ कर दिया कि उनमें बदलाव का कोई सवाल ही नहीं है. नीतीश पर हमला करने के बाद शहाबुद्दीन ने आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को अपना नेता बताया.
इस बयान का संदेश साफ है. बिहार में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है. और लालू प्रसाद के सहारे ही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद पर कायम हैं.
2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार की सरकार ने ही शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करवाया था.
नीतीश का पहला कार्यकाल बेहतर
नीतीश कुमार का पहला कार्यकाल (2005-2010) बिहार की कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए जाना जाता है. इसी वक्त शहाबुद्दीन समेत बिहार के कई बाहुबली सलाखों के पीछे गए थे.
इस दौरान नीतीश कुमार अपनी छवि एक विकासपुरुष, भरोसेमंद और सेकुलर नेता के रुप में बनाने में सफल रहे.
इससे 2010 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का एक तबका जेडीयू के साथ आ गया. लेकिन, दूसरे कार्यकाल में नीतीश अपनी ही जिद से घिरते चले गए.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री उम्मीदवारी के नाम पर उन्होंने गठबंधन तोड़ने का फैसला कर लिया.
हालांकि, आज भी नीतीश कुमार अपनी बेहतर छवि बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक जाल बुनने की कोशिश जरुर की है. नीतीश कुमार पर अति महात्वाकांक्षा का आरोप लगाना सही नहीं होगा.
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी से अलग होकर चुनाव लड़ना उनके लिए घाटे का सौदा रहा.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने से उनकी नैतिक कमजोरी दिखी.
जीतनराम मांझी को एक सीधे-सादे नेता माना गया. उस वक्त नीतीश कुमार को लगा था कि मांझी उनकी मर्जी के मुताबिक ही काम करेंगे.
लेकिन, नीतीश कुमार ने जब फिर से बिहार की बागडोर संभालने की कोशिश की तो जीतनराम मांझी की महात्वाकांक्षा खुलकर उजागर हो गई.
मांझी के विरोध के बावजूद नीतीश ने एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह उन्हें पद से हटाया.
अवसरवादी गठबंधन बनाया
इसके बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी को पटखनी देने के लिए एक अवसरवादी गठबंधन बनाया.
इसमें धुर–विरोधी लालू प्रसाद यादव के साथ हाथ मिलाया. कांग्रेस को भी अपने पाले में लिया. नीतीश का पूरा फोकस बीजेपी को हराने पर था.
2010 के बाद उनकी नैतिक साख कमजोर जरूर हुई. शहाबुद्दीन की रिहाई से नीतीश कुमार को नैतिक तौर पर झटका लगा है.
लेकिन, नैतिक मूल्यों की राजनीति के नाम पर केवल नीतीश कुमार को ही दोष देना उचित नहीं होगा.
बीजेपी और कांग्रेस तो इस तरह की राजनीति करने में पहले से माहिर हैं। अब क्षेत्रीय क्षत्रप भी कहां पीछे रहने वाले हैं.
उत्तरप्रदेश में बीजेपी ने तो अंडरवर्ल्ड डान को अलग-अलग जाति समूहों को साधने के लिए इस्तेमाल किया था.
रही सही कसर मुलायम सिंह यादव और मायावती ने भी पूरी कर दी. ये पार्टियां कभी भी व्यक्तिगत हित के लिए किसी को भी साथ लेने से परहेज नहीं करती हैं.
लेकिन, बिहार में दिखने वाली आशा की किरण एक बार फिर से निराशा में बदल गई.
2015 में नीतीश कुमार की जीत बिहार में नैतिक मूल्यों की जीत नहीं कही जा सकती.
इस हालात में बिहार के आपराधिक मानसिकता के लोग विशेषज्ञों से ज्यादा सटीक राजनीतिक भविष्यवाणी करते दिखेंगे.
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