जैसे ही रामनाथ कोविंद को एनडीए ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया, नीतीश कुमार उनसे मिलने पटना के राजभवन पहुंच गए. उनसे मुलाकात के बाद नीतीश ने जो भी कहा उसी से तय हो गया था कि 17 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में जेडी यू के सांसद-विधायक किसे वोट देंगे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सोमवार को तीन अहम बातें कही थीं. पहली तो ये कि कोविंद को प्रत्याशी बनाए जाने से उन्हें निजी तौर पर बहुत खुशी हुई है. दूसरी बात ये कि बिहार के राज्यपाल का देश का अगला राष्ट्रपति बनना बिहार के लिए गौरव की बात होगी.
क्या है सपोर्ट की वजह?
तीसरी बात जो नीतीश ने बतायी कि कोविंद के नाम के एलान के बाद सोनिया गांधी से बातचीत में उन्होंने अपनी राय जाहिर कर दी है. नीतीश की नजर में रामनाथ कोविंद अविवादित और कद्दावर दलित नेता हैं.
बुधवार को नीतीश कुमार ने पटना में अपने घर पर पार्टी के नेताओं की बैठक बुलाई. इसमें उन्होंने कोविंद की उम्मीदवारी को लेकर अपनी 'निजी खुशी' को पार्टी की राय में तब्दील कर दिया.
नीतीश के फैसले के क्या हैं मायने?
नीतीश के इस फैसले के बड़े सियासी मायने निकाले जा रहे हैं. नीतीश का फैसला, सोनिया-राहुल, ममता-सीताराम येचुरी, लालू यादव-अखिलेश यादव जैसे नेताओं को करारा झटका है. ये लोग लंबे समय से विपक्ष को मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं.
नीतीश ने बाकी विपक्षी दलों से अलग राह चलने का फैसला विपक्षी नेताओं की उस बैठक से ठीक एक दिन पहले किया, जो सोनिया गांधी ने गुरुवार को बुलाई थी. राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के पास महज 38 फीसद वोट हैं. वहीं एनडीए के पाले में फिलहाल 62 प्रतिशत वोट दिख रहे हैं.
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क्या दुविधा से बच गए नीतीश?
नीतीश ने एक दिन पहले ही कोविंद को समर्थन देने का एलान करके खुद को बड़ी दुविधा से बचा लिया. अगर विपक्षी दल किसी और दलित नेता मसलन मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाते हैं, तो नीतीश के लिए दुविधा की स्थिति होती.
कांग्रेस किसी दलित को उम्मीदवार बनाकर मायावती को अपने पाले में बनाए रखना चाहती हैं. मायावती ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर खुशी जताई थी. कांग्रेस को डर है कि कहीं मायावती भी विपक्षी खेमे से खिसकर एनडीए के पाले में न चली जाएं.
कब तक मिलेगा विरासत का फल?
जैसे सोनिया और राहुल की राजनीति वंशवाद की विरासत पर टिकी है. उसी तरह मीरा कुमार भी विरासत का फल भोगने वाली नेता कही जा सकती हैं. यही वजह है कि 2009 में उन्हें लोकसभा का स्पीकर बनाया गया था. वो दलित थीं इसीलिए लोकसभा की पहली महिला स्पीकर बनाई गईं.
आज 2017 में मीरा कुमार की उन्हीं खूबियों का बखान किया जा रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने 'चायवाला' कहकर मोदी का मजाक बनाने की घटना से कोई सबक नहीं लिया है. क्योंकि जब ये मजाक बनाया गया उसके कुछ ही महीने बाद मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए थे.
दलित बनाम दलित की जंग से निकलें नीतीश
रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर नीतीश ने राष्ट्रपति चुनाव को दलित बनाम दलित की जंग बनाने की विपक्ष की कोशिश से खुद को अलग कर लिया है. राष्ट्रपति देश के संविधान का संरक्षक होते हैं. वो सेना के सर्वोच्च कमांडर होते हैं. वो राष्ट्राध्यक्ष होते हैं. देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद को सिर्फ जाति के चश्मे से देखना ठीक नहीं.
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नीतीश ने अपने इस कदम से सोनिया-राहुल की जोड़ी को ये भी बता दिया है कि उन्हें हल्के में लेना बड़ी सियासी भूल होगी. नीतीश ने कांग्रेस, लेफ्ट, आरजेडी, एसपी-बीएसपी जैसे दलों को बता दिया है कि वो अपनी अलग राह चलना जानते हैं. बीजेपी को भी उन्होंने 2012 और 2013 में इस बात का एहसास करा दिया था.
सबसे कद्दावर नेता हैं नीतीश
नीतीश के पास आज की तारीख में भले ही संसद में बहुत बड़ा संख्या बल न हो. भले ही विधानसभा में भी वो लालू के सहयोग के भरोसे हों, मगर विपक्षी खेमे के वो सबसे कद्दावर नेता माने जाते हैं.
नीतीश के बगैर विपक्षी खेमा, राहुल गांधी, लालू यादव, अखिलेश यादव, मायावती, कनिमोड़ी और सीताराम येचुरी जैसे हारे हुए नेताओं का जमघट लगता है. इनमें से ज्यादातर के खिलाफ खुद या किसी पार्टी नेता के खिलाफ जांच चल रही है. मोदी के सियासी उरूज पर पहुंचने से इनका बुरा हाल है.
राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्षी एकजुटता के जरिए 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष का महागठबंधन बनाने की तैयारी थी. नीतीश ने साफ कर दिया है कि उन्हें कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्षी गठबंधन नहीं मंजूर है. क्योंकि उनकी नजर में राहुल गांधी पार्ट टाइम पॉलिटिक्स करते हैं. ऐसे नेता के नेतृत्व में मोदी को चुनौती नहीं दी जा सकती. किसान आंदोलन के बीच में राहुल ने सिर्फ एक दिन जाकर फोटो खिंचाई और फिर वो अपने ननिहाल इटली चले गए.
क्या लालू के साथ हैं नीतीश?
नीतीश ने इस फैसले से ये भी साफ कर दिया है कि वो फर्जीवाड़े और अवैध संपत्ति जुटाने के आरोपी लालू यादव के साथ भी नहीं हैं.
26 मई को सोनिया की अगुवाई में हुई विपक्षी दलों की बैठक में भी नीतीश कुमार शामिल नहीं हुए थे. दो दर्जन नेताओं की मौजूदगी के बावजूद नीतीश की गैरमौजूदगी ने ज्यादा सुर्खियां बटोरीं.
एक ही दिन बाद नीतीश कुमार दिल्ली आए थे. वो एक विदेशी मेहमान के सम्मान में प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से दिए गए लंच में शामिल हुए थे. उन्होंने मोदी से अलग से भी मुलाकात की थी. यानी उस वक्त भी नीतीश ने विपक्षी खेमे के बजाय मोदी के साथ खड़े रहना पसंद किया था.
2012 में नीतीश ने एनडीए में रहते हुए भी यूपीए के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था. इस बार उन्होंने खुद को संभावित यूपीए-3 गठबंधन से अलग करके एनडीए के प्रत्याशी का समर्थन कर दिया.
इसीलिए अब 2018-2019 में नीतीश के अगले कदम को लेकर सिर्फ अटकलें लगा सकते हैं.
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