पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बदनाम करने के लिए करीब दर्जन भर अफवाहें फैलाई जा रही हैं.
इसके जरिए यह साबित किया जाता है कि वह कम अक्ल थे. उनकी नीतियों और विचारधारा ने भारत को वैश्विक महाशक्ति नहीं बनने दिया. इसके चलते देश कई साल पीछे चला गया.
इस सूची में अब एक नया दावा भी जुड़ गया है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने भारत को परमाणु हथियार देने की पेशकश की थी लेकिन नेहरू ने इसे ठुकरा दिया था.
साथ ही नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता को प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया था.
Firstpost पर प्रकाश नंदा लिखते हैं,' बहुत सारे भारतीय नहीं जानते हैं लेकिन नेहरू अगर चाहते तो 1950 के दशक में ही भारत को संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल गई होती. वह वैध तरीके से नाभकीय ताकत होता. साथ ही अग्रणी वैश्विक शक्तियों में शुमार होता.'
नेहरू और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद
नेहरू के विरोध करने वालों का यह दावा है कि पूर्व प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की पेशकश को ठुकरा दिया था.
वास्तव में जब ये लोग यह दावा करते हैं तब वो तमाम जरूरी तथ्यों को नजरंदाज कर देते हैं.
दरअसल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन 1945 में किया था. उसके बाद से इसमें अब तक कोई बदलाव नहीं किया गया है.
1945 में जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्रदान की गई थी तब भारत आजाद देश नहीं था.
इतना ही नहीं इस परिषद में भारत के प्रवेश का तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने भी विरोध किया था.
क्या भारत को सदस्यता का प्रस्ताव इसके बाद दिया गया था? सितंबर 1955 को नेहरू ने संसद में इस तरह के किसी भी प्रस्ताव मिलने की बात से इन्कार किया था.
27 सितंबर को लोकसभा में डॉक्टर जेएन पारेख ने सवाल पूछा था कि क्या भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए मिले अनौपचारिक प्रस्ताव को ठुकरा दिया दिया है?
इसके जबाव में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा,' इस संबध में कोई भी औपचारिक या अनौपचारिक प्रस्ताव नहीं मिला है. इस बारे में कुछ मिथ्या तथ्य प्रेस में चल रहे हैं. जिसमें कुछ भी सच नहीं है. सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का मसला संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार तय होता है.'
'इसके अनुसार कुछ ही देशों को स्थायी सदस्यता मिली हुई है. इसमें किसी भी तरह के बदलाव के लिए चार्टर में संशोधन करना होगा.'
'इसलिए यह सवाल ही पैदा नहीं होता कि भारत को स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव दिया गया था और भारत ने इसके लिए मना कर दिया. हमारी घोषित नीति यह है कि हम स्थायी सदस्यता के लिए हर उस देश का समर्थन करेंगे जो संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता की योग्यता रखता है.'
नेहरू की मौत के करीब 50 साल बीत चुके हैं. जैसा कि उनके आलोचक दावा करते हैं कि नेहरू संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के इच्छुक नहीं थे तब उनके उत्तराधिकारियों के बारे में हम क्या कहेंगे?
अटल बिहारी वाजपेयी समेत उनके उत्तराधिकारियों ने इसे इतने सालों में हासिल क्यों नहीं किया?
दरअसल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का मसला बहुत पेचीदा है. सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन के लिए पांच स्थायी सदस्यों और आम सभा के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल करना होगा.
दूसरी बात भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जिसका दावा सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए सबसे मजबूत है. जर्मनी, जापान, ब्राजील और दूसरे तमाम विकासशील देश सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए लॉबीइंग करते रहे हैं.
अब ऐसे में यह कल्पना करना कि नेहरू अगर हां कह देते तो हमें स्थायी सदस्यता मिल गई होती, एक जटिल समस्या का सरलीकरण करने के अलावा कुछ नहीं है.
नेहरू, केनेडी और परमाणु हथियार
नंदा दावा करते हैं कि अगर भारत ने केनेडी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता तो वह परमाणु शक्ति होता और इससे भारत की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पाने की राह आसान होती.
उनका यह दावा पूर्व विदेश सचिव एमके रासगोटरा के उस कथन पर आधारित है जिसमें उन्होंने कहा है कि केनेडी ने भारत को परमाणु बम बनाने में मदद करने का प्रस्ताव दिया था लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
रासगोटरा, नेहरू की मौत के करीब 20 साल बाद राजीव गांधी सरकार में विदेश सचिव थे.
तथ्य...
हालांकि नेहरू गुटनिरपेक्षता और महात्मा गांधी के अहिंसा सिद्धांत के मुखर समर्थक थे लेकिन भारत ने अपने परमाणु विकल्प हमेशा खुले रखे थे.
आजादी के एक साल के भीतर अप्रैल 1948 में भारत ने एटॉमिक एनर्जी एक्ट को पारित किया जिससे इंडियन एटॉमिक एनर्जी कमीशन का गठन संभव हुआ.
उस समय नेहरू ने कहा,' हमें एटॉमिक एनर्जी का विकास युद्ध से अलग कार्यों के लिए करना होगा. वास्तव में मेरा मानना है कि हमें इसका विकास शांतिपूर्ण कार्यों के लिए करना होगा. लेकिन अगर हमें किसी ने इसका उपयोग दूसरे कार्यों के लिए करने को मजबूर किया तो शायद ही इस पवित्र भावना का ख्याल रखा जाएगा.' (वीपंस आॅफ पीस, राज चेंगप्पा, हार्परकॉलिंस पब्लिसर्श इंडिया, पेज 79)
यह स्पष्ट है कि नेहरू परमाणु शोध को जारी रखने के इच्छुक थे और भविष्य में युद्ध के दौरान इसके इस्तेमाल का विकल्प भी खुला रखा था.
वास्तव में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि होमी भाभा एक साल बाद ही नेहरू के कार्यकाल में परमाणु डिवाइस का परीक्षण करना चाहते थे. लेकिन नेहरू ने भाभा से इस कार्यक्रम के लिए रुकने को कहा था.
यहां पर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या केनेडी चीन के विरोध में भारत के परमाणु कार्यक्रम में तेजी लाने के लिए मदद करना चाह रहे थे?
कई विशेषज्ञों का तर्क हैं कि केनेडी के विदेश मंत्री डीन रस्क चीन को नियंत्रण में रखने के लिए भारत के परमाणु कार्यक्रम में मदद करना चाहते थे.
लेकिन अपनी किताब 'इंडियाज न्युक्लियर बॉम: द इम्पैक्ट आॅन ग्लोबल प्रोलीफिरेशन' में सामरिक मामलों के विशेषज्ञ जॉर्ज पेरकोविच लिखते हैं कि यह विचार कभी लागू नहीं किया जा सका.
भारत के परमाणु कार्यक्रम को गुप्त समर्थन देने की रणनीति में अमेरिका के गृह विभाग को सात समस्याओं को सामना करना पड़ा. बाद में इस प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि अमेरिका परमाणु क्षमताओं के विस्तार के विरोध करने की अपनी नीति में बदलाव नहीं करेगा.
इसके अलावा सच्चाई यह है कि केनेडी के कार्यकाल के दौरान अमेरिका का झुकाव भारत से ज्यादा पाकिस्तान की तरफ था.
जॉर्ज पेरकोविच ने इंडियाज न्युक्लियर बॉम किताब 1961 में लिखी जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने दोनों देशों की यात्रा की.
इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान के तानाशाह अयूब खान को ज्यादा वरीयता दी. कई मौकों पर अमेरिका ने पाकिस्तान को खुश करने के लिए कश्मीर पर समझौता करने के लिए भारत के उपर दबाव भी डालने की कोशिश की. लेकिन नेहरू ने हमेशा अमेरिका से एक निश्चित दूरी बनाकर रखी.
नेहरू के जो आलोचक बिना विश्वसनीय साक्ष्य के इस बात की कल्पना कर रहे हैं कि अमेरिका ने तश्तरी में सजा कर भारत को परमाणु हथियार का प्रस्ताव दिया था.
वास्तव में गलती कर कर रहे हैं. इस विचार के अलावा उन्हें यह समझना चाहिए कि भारत के वैश्विक अधिपत्य और सुपरपावर बनने के लिए यह सबसे छोटा रास्ता था.
बुद्धिमानी भरा विचार यह है कि वह पाकिस्तान को देखें जो केनेडी के जमाने के पहले से ही अमेरिका का निकटतम सहयोगी रहा है.
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