किसी के गले लगना या गले मिलना स्नेह, प्यार और सम्मान दिखाने का एक तरीका माना जाता है लेकिन कांग्रेस के लिए पिछले एक महीने में दो बार गले लगना अलग तरीके से सामने आया है. पहले राहुल गांधी, अब नवजोत सिंह सिद्धू. दोनों बार कॉमन सेंस और लॉजिक के लिहाज से देखें, तो कांग्रेस गलत नहीं दिखेगी लेकिन दोनों ही बार वो बैकफुट पर है. खासतौर पर सिद्धू वाले मामले में. गले लगना, गले की फांस बनने या गले पड़ने जैसा हो गया है.
पहले 20 जुलाई, जब राहुल गांधी संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिले थे. उस समय मीडिया और सोशल मीडिया पर जोरदार बहस चली थी कि यह सही है या गलत? तब बहस 50-50 जैसी थी, हालांकि उसके बाद राहुल के आंख मारने ने इस बहस को बीजेपी समर्थकों की तरफ मोड़ दिया. कांग्रेस के सभी नेताओं से हर सार्वजनिक मंच पर सवाल पूछा जा रहा है कि राहुल गले क्यों लगे? जैसे ही इसके पक्ष में तर्क आता है, तो अगला सवाल आंख मारने पर होता है. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह अपनी पब्लिक रैलियों में इसे लेकर मजाक बना रहे हैं.
आखिर डैमेज कंट्रोल क्यों?
उसके बाद तारीख आती है 18 अगस्त, जब नवजोत सिंह सिद्धू ने इमरान खान के शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा को गले लगाया. सिद्धू ने पाकिस्तान में कहा था कि सिख धार्मिक स्थलों को आवाजाही के लिए खोलने का प्रस्ताव जनरल बाजवा ने दिया. इसके बाद सिद्धू ने उन्हें गले लगा लिया लेकिन कुछ टीवी चैनलों ने इसे मुद्दा बना लिया और जल्दी ही यह सोशल मीडिया पर बड़ा मुद्दा बन गया.
बीजेपी की आलोचना तो समझने लायक भी है लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह इस मुद्दे को लिया है, वो डैमेज कंट्रोल की तरह है. पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने सिद्धू की आलोचना कर दी. हालांकि ऐसा नहीं है कि अमरिंदर या कांग्रेस में कोई भी इस बात से अनजान है कि अगर आप किसी दूसरे मुल्क जाते हैं, तो गले लगना बहुत सामान्य बात है.
सरकार की मंजूरी के बाद पाक गए सिद्धू
सिद्धू पंजाब में कैबिनेट मंत्री हैं. उन्हें इमरान खान ने शपथ ग्रहण समारोह में बुलावा भेजा था. उसके बाद सिद्धू ने भारत सरकार से इजाज़त मांगी. मोदी सरकार की मंजूरी के बाद ही वो पाकिस्तान गए. यानी कांग्रेस का मंत्री बीजेपी सरकार की मंजूरी के बाद गया. सभी को अच्छी तरह पता है कि अगर शपथ ग्रहण समरोह है, तो वहां पाकिस्तान सेना के आला अफसर मौजूद होंगे. उसके अलावा, देश की तमाम नामचीन हस्तियां होंगी. उनसे मिलना और हाथ मिलाना पड़ेगा. तो क्या सिर्फ गले मिलना ही बवाल बन गया? गले मिलना ऐसा रहा, जिसके बाद दोनों पार्टियां सिद्धू को निशाने पर लिए हुए हैं.
आखिर ऐसा क्या हुआ, जो सिद्धू के खिलाफ गया. आखिर खुद प्रधानमंत्री मोदी भी अचानक पाकिस्तान दौरे पर गए ही थे. उन्होंने भी अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को बुलाया था. उनकी खातिर की थी. उपहार दिए थे.
शरीफ, मुशर्रफ भी तो भारत आ चुके हैं
जिस वक्त सिद्धू शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बन रहे थे, उस समय भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के अंतिम संस्कार से जुड़ी गतिविधियां हो रही थीं. हर कोई बता रहा था कि कैसे वाजपेयी ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए काम किया. हर कोई बता रहा था कि पाकिस्तान के लिए बस चलवाना, भारतीय क्रिकेट टीम को इस संदेश के साथ भेजना कि खेल ही नहीं, दिल भी जीतिए, वाजपेयी की सदाशयता दर्शाता है.
उससे पहले भी करगिल के बाद परवेज मुशर्रफ को भारत बुलाया गया. उनसे भी सभी लोग गर्मजोशी से ही मिले. उन्हें दिल्ली के दरियागंज में वो पुरानी हवेली भी दिखाई गई, जहां उनके पुरखे रहा करते थे. परवेज मुशर्रफ युद्ध के दौरान आर्मी चीफ थे. उन्होंने बाद में नवाज शरीफ को करगिल से हटने के लिए दोषी ठहराया था और कहा था कि हम बेहतर स्थिति में थे लेकिन नवाज शरीफ भारत के दबाव में झुक गए.
...तब क्या विवाद नहीं होता?
आखिर विवाद फिर किस पर हुआ. सिद्धू के वहां जाने पर या गले लगाने पर? या फिर इस बात पर कि वो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के राष्ट्रपति की बगल वाली सीट पर बैठे थे. उनके आलोचक कह भी रहे हैं कि सिद्धू बड़े आराम से यह तय कर सकते थे कि विदेश से आए प्रतिनिधियों वाले हिस्से में बैठते या वहां बैठते जहां क्रिकेटर बैठे थे लेकिन क्या तब विवाद नहीं होता?
शायद तब भी विवाद होता. जिस दिन सिद्धू ने निमंत्रण स्वीकार किया था, तबसे इसे लेकर विरोध होने लगा था. कुछ चैनल मुहिम की तरह खबर चलाने लगे थे. उन्हें पता था कि इस समय यह टीआरपी खबर है. वो टीआरपी ही है, जिसने पंजाब के मुख्यमंत्री को सार्वजिनक तौर पर सिद्धू की आलोचना के लिए मजबूर किया है. कांग्रेस यकीनन पिछले एक महीने से सोच रही होगी कि आखिर गले लगना भी क्या इतना बड़ा मुद्दा हो सकता है?
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