प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की बैठक में हिस्सा लेने जल्द ही स्विट्जरलैंड के शहर दावोस जाने वाले हैं. प्रधानमंत्री की दावोस यात्रा बेहद संक्षिप्त होगी, महज 24 घंटे के लिए. वह 22 जनवरी को दावोस पहुंचेंगे और ग्लोबल सीआईओ के राउंडटेबल सम्मेलन को संबोधित करेंगे. जबकि दावोस सम्मेलन में पीएम मोदी का संबोधन 23 जनवरी को होगा.
अपनी दावोस यात्रा से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'ज़ी न्यूज' को एक इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू के दौरान मोदी ने कोई बेहद महत्वपूर्ण या चौंकाने वाली बात तो नहीं कही, लेकिन कुछ बातों की सच्चाई और वास्तविकता को मजबूती जरूर प्रदान की. पीएम मोदी के इंटरव्यू ने हमें एक बार फिर से याद दिलाया कि, वह भारत के इकलौते ऐसे जननेता हैं जिनके पास दूरदृष्टि (विजन) है.
इस इंटरव्यू ने यह भी एहसास कराया कि, मोदी के पास ऐसी इच्छाशक्ति भी है, जिसकी मदद से वह अपने विजन को साकार करके जटिलता से भरे एक विशाल देश का कायाकल्प भी कर सकते हैं. यह बात भी पहले से स्पष्ट थी कि, अपनी राजनीतिक पूंजी और अपनी साख के दांव पर लग जाने पर भी मोदी अपनी नीतियों पर अडिग और अटल रहने वाले नेता हैं.
लोकतंत्र का बुरा दौर!
दुनियाभर में लोकतंत्र इस वक्त अच्छे दौर से नहीं गुजर रहा है. दुनिया लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हट रही है. लेकिन इसके उलट भारत में दूसरी ही तस्वीर दिखाई दे रही है. विशाल आबादी के बावजूद भारत में लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता मजबूत हो रही है. भारत के पास दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का तमगा भी है. ऐसे में भारत लोकतांत्रिक दुनिया में संभवत: उम्मीद की आखिरी किरन नजर आ रहा है.
भारत को अब, लोकतांत्रिक ढांचे में रहकर सफलता की नई बुलंदियों को छूने की जरूरत है. ऐसा करके भारत बाकी दुनिया को दिखा सकता है कि, आजादी का बलिदान किए बिना भी समान और उचित विकास को हासिल करना संभव है.
Former CIA Director General David Petraeus silences a young lady who asked about Indian activities in #Balochistan at #Raisina2018: ‘As Director CIA, never heard the term ‘Indian State Sponsored terrorism’. New normal is Rise of China and other is THE ANSWER IS INDIA. *applause* pic.twitter.com/OodwQbPaXj
— Aditya Raj Kaul (@AdityaRajKaul) January 18, 2018
मौजूदा दौर में, चीन की अगुआई वाले वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल के सामने लगभग सभी लोकतांत्रिक और उदारवादी राष्ट्र गंभीर दबाव का सामना कर रहे हैं. इस तथाकथित वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल में नागरिक स्वतंत्रता, फ्री मीडिया और कानून का इस्तेमाल सत्तावाद और निरंकुशता के लिए किया जा रहा है. तीव्र विकास के नाम पर जारी यह तानाशाही दुनिया को भेदभाव और नाइंसाफी की तरफ धकेल रही है.
'फ्रीडम हाउस' की रिपोर्ट में क्या है?
दुनियाभर में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की निगरानी करने वाली संस्था 'फ्रीडम हाउस' ने हाल ही में अपनी एक रिपोर्ट जारी की है. 'फ्रीडम हाउस' की यह नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि, दुनियाभर में लोकतंत्र संकट का सामना कर रहा है.
'फ्रीडम हाउस' की रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों में से एक यह भी है कि, दुनिया में लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों से विमुख होने की शुरुआत साल 2006 से हुई. इसी साल '71 देशों में राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता में शुद्ध रूप से गिरावट दर्ज की गई थी. जबकि केवल 35 देश ऐसे थे, जहां राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता में थोड़ा-बहुत सुधार हुआ था. वैश्विक स्वतंत्रता में गिरावट का यह लगातार 12वां साल था.'
'फ्रीडम हाउस' ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि, 'इस समय संभवतः सबसे खराब और भविष्य के लिए सबसे चिंताजनक बात लोकतंत्र के प्रति युवाओं का दृष्टिकोण है. युवाओं को फासीवाद (फासिज़्म) और साम्यवाद (कम्युनिज़्म) के खिलाफ चले लंबे संघर्षों की बेहद कम जानकारी है. ऐसा लगता है कि, युवा पीढ़ी लोकतांत्रिक मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपना विश्वास और रुचि खो रही है.'
लोकतंत्र को कुतर्क में माहिर लोगों से खतरा
लोकतंत्र को सबसे गंभीर खतरा मिथ्यावादियों और कुतर्क में माहिर लोगों से है. पिछले साल दावोस सम्मेलन में, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मुक्त व्यापार (फ्री ट्रेड) की वकालत करते हुए उसका जमकर गुणगान किया था. अपनी लीडरशिप की भूमिका के लिए जिनपिंग ने खूब वाहवाही भी बटोरी थी. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का नजरिया इसके बिल्कुल विपरीत रहा.
अपने पूर्ववर्ती नेताओं की तरह डॉनल्ड ट्रंप 'अमेरिका फर्स्ट' वाली नीति के हिमायती हैं. यही वजह है कि, पिछले साल तमाम तारीफें बटोरने के बावजूद जिनपिंग के मंसूबे कामयाब नहीं हो पाए हैं. फिर भी, चीन का रवैया अबतक कपट से भरा और विश्वासघाती रहा है.
चीन के साथ व्यापार करने वाला कोई भी देश इस बात से बखूबी वाकिफ होगा कि, वहां व्यापारिक ताकतों ने किस तरह से नियमों और कानून पर चलने वाले संस्थानों को तबाह कर रखा है. यहां तक कि उन्होंने वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) तक को नहीं बख्शा है.
उदाहरण के तौर पर, ट्रंप प्रशासन ने यह स्वीकार किया है कि, अमेरिका ने साल 2001 में चीन को डब्ल्यूटीओ में शामिल करने के लिए समर्थन देकर गलती की थी. व्हाइट हाउस ने शुक्रवार को अमेरिकी कांग्रेस को सौंपी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि, चीन का रवैया बाजार को बर्बाद कर रहा है, लेकिन उसे रोकने के लिए डब्ल्यूटीओ के नियम अक्षम और नाकाफी साबित हुए हैं.
संरक्षणवाद से नुकसान
'फ्रीडम हाउस' की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में संरक्षणवाद के उदय के चलते वैश्विक बाजार में चीन की मनमानी की राह आसान हुई है. अमेरिका का यह संरक्षणवाद दरअसल वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया.
विश्व बाजार में चीन की चुनौती के सामने अमेरिका भले ही पीछे न हटे, लेकिन ट्रंप के नेतृत्व में उसका फोकस जरूर बदल गया है. यही वजह है कि, वर्ल्ड लीडर के तौर पर अमेरिका की विश्वसनीयता काफी हद तक कम हो गई है. ऐसे में चीन ने अब वर्ल्ड लीडर के ताज पर अपनी नजरें गड़ा ली हैं.
अपना सपना पूरा करने के लिए चीन ने अपनी सारी आर्थिक ताकत, प्रोपेगेंडा और सेंसरशिप तंत्र को लगा दिया है. यानी वर्ल्ड लीडर बनने की चाह में चीन 'साम-दाम-दंड-भेद' की नीति अपना रहा है. लिहाजा ऐसे में विकासशील देशों के लिए एक नई मुसीबत खड़ी हो गई है.
सत्तावादी और तानाशाही शासनों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को बहुत नुकसान पहुंचाया है. चीन और रूस में सत्तावादी शासनों ने लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए लोकतंत्र के ही साधनों का इस्तेमाल किया. लोकतंत्र में फ्री मीडिया की बहुत अहम भूमिका होती है.
लोकतंत्र कैसे होगा मजबूत?
फ्री मीडिया से लोकतंत्र मजबूत होता है. लेकिन चीन में मीडिया पर सरकार का नियंत्रण है, जिसके चलते तथ्यों और खबरों में मनचाही हेरफेर की जाती है. चीनी मीडिया हमारे सामने 'विन-विन' कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट और 'बेल्ट एंड रोड' परियोजना की पहलकदमी की कहानियां लगातार परोसता रहता है, लेकिन चीन की दमनकारी नीतियों की खबरें खामोशी के साथ सेंसर कर दी जाती हैं.
उदाहरण के लिए, चीन ने हाल ही में मुस्लिम-बहुल गांसु प्रांत में छात्रों के धार्मिक इमारतों में जाने पर रोक लगा दी है. अपने आदेश में चीनी सरकार ने कहा है कि, 'स्कूल में इंटरवल के दौरान कोई भी छात्र न तो किसी धार्मिक इमारत में जाएगा और न ही क्लास में बैठकर कोई धार्मिक पुस्तक पढ़ेगा.'
साथ ही चीनी सरकार ने कहा है कि, खाली वक्त में सभी छात्र और शिक्षक देश की राजनीतिक विचारधारा को मजबूत बनाने और उसके प्रचार-प्रसार के लिए काम करेंगे.
चीन के सत्तावादी मॉडल के बरअक्स भारत अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर मजबूती के साथ कायम है. भारत अपने लोकतांत्रिक संस्थानों और सिद्धांतों के बल पर यह साबित कर सकता है कि, सत्तावादी मॉडल प्रतिगामी और अस्थिर होते हैं. ऐसा करने के लिए भारत को योग्य और मजबूत नेतृत्व की जरूरत है.
दुनिया में भारत के लोकतांत्रिक और आर्थिक विकास का लोहा मनवाने के लिए हमें एक ऐसा साहसी नेता चाहिए, जो जोखिम लेने से न डरता हो. क्योंकि ऐसा ही नेता गहरी नींद में सोए देश को झकझोरकर जगा सकता है.
जोखिम लेने को तैयार रहते हैं मोदी
नरेंद्र मोदी के रूप में, भारत को एक ऐसा नेता मिल गया है, जो जोखिम लेने को तैयार रहता है. मोदी को प्रधानमंत्री बने तीन साल से ज्यादा का वक्त बीच चुका है. रेटिंग बताती हैं कि, वह अब भी देश में बहुत लोकप्रिय हैं.
प्यू रिसर्च के मुताबिक, मोदी हर दस में से नौ भारतीयों की पसंद हैं. ज्यादातर लोग मोदी के बारे में सकारात्मक राय रखते हैं. अपने तीन साल से ज्यादा के कार्यकाल के दौरान मोदी देश में आर्थिक और ढांचागत बदलाव लाने के लिए कई परिवर्तनकारी और विघटनकारी कदम उठा चुके हैं.
लेकिन उसके बावजूद मोदी की लोकप्रियता अबतक बरकरार है. अपने कड़े फैसलों के चलते मोदी कई बार बड़े जोखिम मोल ले चुके हैं. यहां तक कि वह अपनी पूरी राजनीतिक पूंजी और साख तक को दांव पर लगा चुके हैं. यही वजह है कि लोग उन पर विश्वास करते हैं.
पीएम मोदी के उठाए सुधारवादी कदम भारत की "प्रचुर विकास क्षमता" को सुनिश्चित कर सकते हैं. खुद वर्ल्ड बैंक ने भी पीएम मोदी के फैसलों की सराहना की है. वर्ल्ड बैंक ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि, चालू वित्तीय वर्ष यानी 2018 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.3 फीसदी वृद्धि होगी.
जीएसटी अहम फैसला
वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 'हमने अभी तक जीएसटी जैसी महत्वाकांक्षी नीतिगत पहल और उसका कार्यान्वयन देखा है. और हमारे पास पर्याप्त कारण हैं कि हम उम्मीद करें कि, यह सरकार कारोबार के अनुकूल वातावरण बनाने के अपनी आर्थिक नीतियों को जारी रखेगी, साथ ही अपने विकास की क्षमता को भी आगे बढ़ाएगी.'
अपने इंटरव्यू में मोदी ने साफ किया कि, उन्होंने जीएसटी और नोटबंदी के अलावा कई और भी सुधारवादी कदम उठाए हैं, हालांकि सबसे ज्यादा चर्चा इन दो फैसलों की ही हुई.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, पीएम मोदी ने कहा कि, 'अगर आप केवल इन दो चीजों (जीएसटी और नोटबंदी) को ही मेरी सरकार द्वारा किए गए काम मानते हैं, तो यह मेरे साथ बड़ा अन्याय होगा.'
मोदी ने यह भी कहा कि, 'जिन लोगों के बैंक में खाते नहीं थे उन्हें बैंक नेटवर्क से जोड़ना, चार लाख से ज्यादा स्कूलों में शौचालयों का निर्माण, तीन करोड़ परिवारों को रसोई गैस कनेक्शन, दूर-दराज के गांवों में बिजली पहुंचाना, यूरिया की आपूर्ति बढ़ाना, गरीबों के लिए कम लागत वाली बीमा योजनाएं, बिजली के बिलों में बचत और पर्यावरण को बचाने के लिए एलईडी बल्ब को बढ़ावा देने पर भी हमारी सरकार ने ध्यान केंद्रित किया है.'
क्या है राजनीति का सबसे निराशाजनक पहलू?
भारत की राजनीति का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि, एक तरफ मोदी जहां अपने विजन को अमली जामा पहनाने के लिए दृढ़ विश्वास और हठधर्मिता के साथ डटे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष अपनी भूमिका निभाने में नाकाम साबित हुआ है.
विपक्ष मोदी की आलोचना तो कर रहा है, लेकिन कोई अच्छा विकल्प पेश नहीं कर पा रहा है. दरअसल विपक्ष मोदी के खिलाफ तुच्छ और अस्थायी बातों में फायदा देख रहा है. विपक्ष को लगता है कि, मोदी के खिलाफ माहौल बनाकर और अशांति फैलाकर राजनीतिक लाभ हासिल किया जा सकता है.
इससे भी ज्यादा निराशाजनक तथ्य यह है कि, सामाजिक आंदोलनों से उभरे युवा नेता भी अब अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं. होना तो यह चाहिए था कि, सामाजिक आंदोलनों से उभरे युवा नेता देश के सामने एक वैकल्पिक विचार या एक ज्यादा समावेशी मॉडल पेश करते. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. यह नेता भारत को वापस जातिगत राजनीति के भंवर में ले जाने की धमकी दे रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के सामने इस समय एक काम सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. उन्हें सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करते हुए भारत को आगे ले जाना है. इंटरव्यू के दौरान मोदी ने अपनी सरकार के कामकाज योजनाओं और उपलब्धियों को जबरदस्ती विस्तार से बताया. लेकिन फिर भी लोगों का लगता है कि, देश में बदलाव लाने की इच्छाशक्ति रखने वाले वही एकमात्र नेता हैं. कम से कम वह कोशिश तो कर रहे हैं.
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