live
S M L

संघ और मोदी एक जैसे हैं, वो कभी स्थायी सामाजिक आधार पर भरोसा नहीं करते हैं

एससी-एसटी समुदाय का दिल जीतने की मोदी सरकार की कोशिश, असल में पार्टी के परंपरागत सामाजिक दायरा और वोट बैंक बढ़ाने के इरादे से हो रही है

Updated On: Sep 30, 2018 09:04 AM IST

Ajay Singh Ajay Singh

0
संघ और मोदी एक जैसे हैं, वो कभी स्थायी सामाजिक आधार पर भरोसा नहीं करते हैं

(Editor's note: सिर्फ रूस ही ‘रहस्य के आवरण में लिपटी अबूझ पहेली’ नहीं. रूस को लेकर विंस्टन चर्चिल के कहे इस मुहावरे को कुछ लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी ठीक बताएंगे. इसी कारण बहुत से विश्लेषक दोनों (मोदी और आरएसएस) की व्याख्या अपने मनचाहे ढंग से करते हैं. बीते 17, 18 और 19 सितंबर को दिल्ली के अभिजन लोगों के बीच मोहन भागवत ने जब अपनी बात रखी तो बिल्कुल यही हुआ. भागवत ने बताया कि भारत के बारे में आरएसएस की सोच क्या है. उन्होंने मुस्लिम, हिन्दुत्व, कांग्रेस तथा भारत में मौजूद जातिगत बंटवारे के बारे में भी अपनी बातें रखीं.

भागवत के कहे को या तो ‘आरएसएस के रुख’ से एकदम ही अलग मानकर देखा गया या फिर ये सोचा गया कि यह सब मोदी के ऊपर अंकुश लगाने और परिवार की विचारधारा को गढ़ने वाले गुरु के रूप में आरएसएस की साख और धाक को नए सिरे से जताने की कवायद है. आरएसएस के इर्द-गिर्द रहस्य का जो आवरण खड़ा करने की कोशिश की जाती है, हम तीन कड़ियों की इस सीरीज में उसे भेदने की कोशिश करेंगे, साथ ही ,सीरीज में आरएसएस से बीजेपी के रिश्ते पर बात की जाएगी. सीरीज में यह भी दिखाया जाएगा कि मोदी की राजनीति आरएसएस के राष्ट्र-निर्माण के एजेंडे से अलग नहीं है. पेश है पहली कड़ी...)

दिल्ली में भविष्य का भारत: आरएसए का दृष्टिकोण कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो कुछ भी कहा, उसके तमाम मायने निकाले जा रहे हैं. इनमें से एक ये भी है कि भागवत की बातों से उनके और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सरकार और संगठन के बीच मतभेद उभर रहे हैं. लेकिन, जब आप विचारधारा का चश्मा पहनकर भागवत की बातों पर नजर डालते हैं, तो मामला इसके ठीक उलट दिखता है. साफ दिखता है कि दलितों के मुद्दों को लेकर दोनों ही बेहद संवेदनशील हैं.

अगर कोई सरकार सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के लिए अध्यादेश लाती है, तो निश्चित रूप से ये निर्णायक लम्हा होता है. 1980 के दशक मे ही हमें ऐसा देखने को मिला था, जब राजीव गांधी ने अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा था. जब सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रावधान ख़ारिज कर दिए थे. तो, राजीव गांधी मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में संसद की मदद से वो फ़ैसला पलटने के लिए अध्यादेश लाए थे.

ये भी पढ़ें: PM मोदी के तौर पर पिछड़ी जाति का उदय RSS के हिंदुत्ववादी प्रोजेक्ट की असली कहानी कहता है

राजीव गांधी के इस कदम को रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और कट्टर विचारों में जकड़े मुस्लिम धर्मगुरुओं के आगे सरकार का सरेंडर कहा गया था. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि बीजेपी के बड़ी सियासी ताकत के तौर पर उभरने में शाहबानो प्रकरण का भी बड़ा हाथ था. राजीव सरकार के कदम से कांग्रेस की 'छद्म धर्मनिरपेक्षता' का पर्दाफ़ाश हो गया था. उस वक़्त बीजेपी के अध्यक्ष रहे लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा, 'माई कंट्री, माई लाइफ' में लिखा है कि उन्होंने राजीव गांधी को ऐसे घातक सियासी प्रयोग से बचने की सलाह दी थी. अब शाहबानो केस की तुलना अगर हम एससी/एसटी एक्ट के प्रावधानों को कमज़ोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटने के लिए लाए गए मोदी सरकार के अध्यादेश से करें.

संघ की कोशिशों में एक पैटर्न है

देशभर में जातियों के बीच दरार डालकर माहौल बिगाड़ने की कोशिश हो रही है. लेकिन, कोई भी सियासी दल, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध करने वाले आंदोलन का अगुवा बनना नहीं दिखना चाहता. इसके बरक्स, संघ परिवार का दलितों का दिल जीतने का बरसों पुराने प्रयास में एक निरंतरता साफ दिखती है. इन कोशिशों में भी एक पैटर्न है.

6 दिसंबर 1993 को, यानी बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के एक साल बाद विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख अशोक सिंघल ने हिंदू धर्मगुरुओं के साथ बैठक की थी. ये बैठक इसलिए बेहद अहम थी, क्योंकि इसमें पहली बार संघ परिवार लिए पूज्य लोगों में डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम शामिल किया गया था. बीएसपी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों की बढ़ती लोकप्रियता और जनाधार से संघ परिवार के हिंदुत्ववादी प्रोजेक्ट के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो गई थी. इसके मुकाबले के लिए आक्रामक पिछड़ी जातियों और दलितो को अपने पाले में लाने की कोशिश ही संघ परिवार के लिए एकमात्र विकल्प थी. सिंघल की इस बैठक के बाद, संघ और विश्व हिंदू परिषद के बहुत से नेता वाराणसी के डोम राजा के घर खाने के लिए गए. डोम राजा अनुसूचित जाति के होते हैं, जो बनारस के घाटों पर अंतिम संस्कार कराते हैं. ये तमाशा प्रतीकात्मक राजनीति का बड़ा नमूना था. साथ ही ये अनुसूचित जाति को हिंदुत्व के खेमे में लाने की पुरजोर कोशिश भी थी.

अनुसूचित जातियों-जनजातियों का दिल जीतने की मोदी की कोशिश बेइरादा नहीं है. यूपी को छोड़ दें, जहां इस समुदाय की नुमाइंदगी बहुजन समाज पार्टी की मायावती करती है, तो, देश के बाकी हिस्सों में एससी-एसटी समुदाय के लोगों में अभी भी अनिश्चितता है. देश के ज़्यादातर हिस्सों में इस तबके की सियासी ताकत का कोई एक प्रतिनिधि नहीं है. कांग्रेस अब एक बड़ी सियासी ताकत नहीं रही. ऐसे में कुछ इलाकों में दलितों की बढ़ती उग्रता, कई बार शांति और सामाजिक समरसता के लिए खतरा बन जाती है. मोदी सरकार का एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लाना, 'हिंदुत्ववादी समाजवाद' की रणनीति का ही एक हिस्सा है. ये देखने में इंकलाबी भले लगे, मगर, ये संघ परिवार की नीति का ही एक हिस्सा है.

बीजेपी की कोशिशें आगे सफल हो सकती हैं

जो लोग मोदी के दलित समर्थक होने को एक धोखा, एक मुखौटा मानते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि बीजेपी इकलौती राष्ट्रीय पार्टी है, जिसके अध्यक्ष एक दलित यानी बंगारू लक्ष्मण बन चुके है. (कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी इसके अपवाद हैं. दलित राजनीति के लिए जाने जाने वाले कई क्षेत्रीय दलों के प्रमुख दलित नेता रह चुके हैं.) बंगारू लक्ष्मण को बीजेपी का अध्यक्ष बनाने के पीछे की रणनीति नाकाम रही, तो इसकी कई वजहें रहीं (तहलका स्टिंग ऑपरेशन में लक्ष्मण, पैसे लेते दिखे थे.) लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि आगे चलकर कोई दलित नेता हिंदुत्व के आइकन के तौर पर उभर सकता है.

ये भी पढ़ें: मोहन भागवत ने संघ की सच्ची तस्वीर सामने रखी है...भ्रम तो आलोचकों में है

ये बात किसी से छुपी नहीं है कि आरएसएस-बीजेपी दलितों को अपने पाले में लाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में संघ परिवार के मूल्यों में रचे-बसे, हिंदूवादी राजनीति के हामी किसी दलित नेता के शिखर पर पहुंचने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. आज की तारीख में संसद और विधानसभाओं में सबसे ज़्यादा अनुसूचित जाति और जनजातियों के सांसद-विधायक हैं. हिंदीभाषी राज्यों में बीजेपी ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों में से सबसे ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल की है. एमपी, छत्तीसगढ़, झारखंड और गुजरात जैसे राज्यों, जहां आदिवासियों की अच्छी खासी आबादी है, वहां पर बीजेपी की मजबूत पकड़ साफ है. इन राज्यों से ज्यादातर सांसद-विधायक बीजेपी के ही हैं.

जो लोग मोदी के काम करने के तरीकों से परिचित हैं, वो ये जानते हैं कि 1990 के दशक में जब मोदी दिल्ली में बीजेपी के महासचिव के तौर पर सक्रिय थे, तब अपने प्रभार वाले राज्यों के गैर-परंपरागत वोटों को जीतने पर ज़्यादा जोर दिया करते थे. हरियाणा में उन्होंने गैर-जाट नेतृ्त्व के विकास को बढ़ावा दिया, तो बंटवारे से पहले मध्य प्रदेश में आदिवासियों को जीतने पर ध्यान लगाया. हिमाचल प्रदेश में मोदी ने ब्राह्मण-ठाकुर तबके के बजाय हाशिए पर पड़े लोगों को जीतने में जोर लगाया. कई बरसों का तजुर्बा ये बताता है कि मोदी की रणनीति, दूसरों के मुकाबले ज्यादा कारगर रही है. कुल मिलाकर, मोदी कभी भी एक स्थायी वोट बैंक के भरोसे नहीं रहे हैं.

अब जबकि 2019 के आम चुनाव करीब आ रहे हैं, तो एससी-एसटी समुदाय का दिल जीतने की मोदी सरकार की कोशिश, असल में पार्टी के परंपरागत सामाजिक दायरा और वोट बैंक बढ़ाने के इरादे से हो रही है. ये भी तय है कि इन कोशिशों की राह में रोड़े अटकाए जाएंगे. इसकी बड़ी वजह ये है कि संघ परिवार में ही बहुत से ऐसे लोग हैं, जो पुरातनपंथी सोच और सामाजिक पूर्वाग्रहों के शिकार हैं. अगर आक्रामक दलित, हिंदुत्ववादी खेमे में आते हैं, तो वो एक बड़ा बदलाव होगा. इस बदलाव के आगे मोदी की सियासी राह में रोड़े अटकाने वाले नहीं टिक सकेंगे. अगर ऐसा होता है, तो देश के परंपरागत राजनैतिक नेतृत्व में बदलाव हमें साफ तौर पर दिखेगा. ये भविष्य के भारत के संघ परिवार के विचार के हकीकत में तब्दील होने जैसा होगा.

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi