महाराष्ट्र में 10 निगमों और 21 जिला परिषदों के नगरीय निकाय चुनावों में दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहा है. इसमें एक घटना यह है कि शिवसेना इस बार ये चुनाव अकेले लड़ रही है.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) इन चुनावों में बिना किसी पूर्व शर्त के शिवसेना की सहयोगी बनना चाहती है. राज ठाकरे ने 2006 में शिवसेना से अलग होकर एमएनएस खड़ी की थी.
किसी दूसरे के दरवाजे पर जाना राज ठाकरे का स्टाइल नहीं है. दूसरी ओर उनके चचेरे भाई उद्धव ठाकरे भी कुछ इसी तरह की राजनीति करते हैं, जो राज के मुताबिक उनके और ठाकरे परिवार के बीच विवाद का कारण बना था.
राज ठाकरे को उद्धव ठाकरे की अगुवाई में काम करना पसंद नहीं था. हालांकि, नगरीय निकाय चुनावों में गठबंधन के लिए राज ठाकरे ने अपने भाई को सात बार फोन करके मनाने की कोशिश की है.
ऐसा लग रहा है कि दोनों भाईयों के बीच बात बन नहीं पाई है और शिवसेना ने एमएनएस के मराठी वोटों को एकजुट करने की कोशिशों को ना कह दिया है लेकिन शिवसेना की भी मुख्य चिंता मराठी 'मानुष' ही है.
एमएनएस के मन में क्या है?
बड़ा सवाल यह है कि एमएनएस आखिर क्यों शिवसेना के साथ गठबंधन करना चाहती है. दरअसल, 10 साल पुरानी एमएनएस चुनावी मोर्चे पर अब तक ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई है, जिससे उसका प्रभाव बढ़ता हुआ दिखाई देता हो.
ऐसे में राज ठाकरे को लग रहा है कि अगर उनकी पार्टी को शिवसेना की बैसाखी का सहारा मिल जाए तो उनकी पार्टी कुछ आगे बढ़ सकती है.
दोनों पार्टियां एक-दूसरे की विरोधी हैं. लेकिन इन दोनों पार्टियों का आधार एक ही है और वो है मराठी वोटर. मराठियों की असुरक्षा, उनकी पहचान का सवाल ही इन दोनों पार्टियों का राजनीतिक बेस है.
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लेकिन शिवसेना की इस वोट बैंक पर ज्यादा गहरी पकड़ है. दोनों ही बाल ठाकरे की राजनीति के असली वारिस होने का दावा करते हैं. बाला साहब ठाकरे और शिवाजी महाराज ही दोनों के मुख्य आदर्श हैं.
उद्धव नहीं चाहते हैं कि उनकी इस सफलता में कोई और दावेदारी पेश करे और एमएनएस को उन्होंने ठुकरा दिया है. वो इस बात पर खुश भी हो सकते हैं कि उनके चचेरे भाई राज ठाकरे ने उनके दरवाजे पर अपना दूत भेजा था.
लेकिन, चीजें इतनी आसान भी नहीं हैं. राज ठाकरे आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं. इस बात पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल है कि उनके भेजे गए दूत बाला नंदगांवकर जब मातोश्री गए तो वहां उनकी मुलाकात उद्धव से न होकर सुभाष देसाई से हुई.
उद्धव को किया फोन
उद्धव को कई फोन कॉल्स करने के बाद भी जब राज को कोई माकूल जवाब नहीं मिलने के कारण हो सकता है कि खुद राज ने मातोश्री जाने फैसला रद्द कर दिया हो.
ये सच है कि एमएनएस वैसी पार्टी नहीं बन पाई जैसा बनाने की उम्मीद इसकी स्थापना के दौरान की गई थी. ये भी उतना ही सच है कि राज ठाकरे आज भी अपने भाषणों के जरिए अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह भीड़ में जोश भरने की ताकत रखते हैं.
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इसके साथ ही ये कहना भी गलत नहीं होगा कि एक पार्टी के तौर पर एमएनएस काफी कमजोर हुई है. 2014 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के हाथ बहुत ही कम सीटें आईं थीं और कई जगहों पर इसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. 2014 से ही कई लोग एमएनएन छोड़ कर जा चुके हैं.
नगरीय निकाय चुनाव जीतने वाले कई लोग भी पार्टी छोड़कर शिवसेना या बीजेपी में चले गए. ऐसा लगता है कि राज ठाकरे की पार्टी के सदस्यों ने उनकी पार्टी का इस्तेमाल व्यक्तिगत फायदों के लिए किया. अब जबकि बीजेपी की सफलता और सेना की हार से समीरण बदलने लगे हैं तो ये लोग फिर से पाला बदलने में लगे हैं.
एक और संभावना ये हो सकती है कि एमएनएस उद्धव के साथ बातचीत करने की पहल कर ये संदेश देना चाहती हो कि, 'वो नहीं चाहती थी कि मराठी मानुष का वोट बंटे या टूटे.' ये एक दिलचस्प खेल की शुरुआत हो सकता है.
कल को जब शिवसेना चुनावों में बीजेपी से पिछड़ जाती है तब राज के पास ये कहने का मौका रहेगा कि उन्होंने ने तो दोस्ती की हाथ बढ़ाई थी पर शिवसेना ही तैयार नहीं हुई थी. ऐसा करके वो सारा दोष शिवसेना के मत्थे मढ़ सकते हैं.
वे कह सकते हैं कि, 'देखिए हम तो ऐसा नहीं चाहते थे लेकिन उन्होंने खुद से आत्महत्या का रास्ता चुना.' इससे ये भी साबित होता है कि एमएनएस की नजर में शिवसेना से ज्यादा ताकतवर इस वक्त बीजेपी है, जो उद्धव मानने को तैयार नहीं है.
लेकिन, फिलहाल ये एक अंदाजा भर ही है.
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