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मुगलसराय: इतिहास बनाने वालों का होता है, मिटाने वालों का नहीं

नाम और पहचान मिटाने की राजनीति से किसका भला होगा?

Updated On: Aug 07, 2017 12:30 PM IST

Rakesh Kayasth Rakesh Kayasth

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मुगलसराय: इतिहास बनाने वालों का होता है, मिटाने वालों का नहीं

ऐतिहासिक रेलवे स्टेशन मुगलसराय के नाम बदले जाने पर मुझे जरा भी ताज्जुब नहीं हुआ. इस मुद्दे पर संसद में हुई बहस के दौरान केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता मुख्तार अब्बास नक़वी ने विरोधियों से कहा, 'आप मुगलों के नाम पर स्टेशन का नाम रखना चाहते हैं, लेकिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर नहीं.'

भावुकता से भरे इस एक वाक्य में गौर करने लायक कई बिंदु हैं. पहला सवाल ये है कि क्या कोई नया स्टेशन बन रहा है, जिसका नाम दीनदयाल उपाध्याय या मुगलसराय में से कोई एक रखा जाना है? ऐसा कतई नहीं है. फिर पंडित उपाध्याय और मुगलसराय एक-दूसरे से क्यों टकरा रहे हैं? आखिर उन्हें इस तरह क्यों एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया गया कि एक की पहचान कायम करने के लिए दूसरे की पहचान मिटानी पड़ी?

मोदी का बहुरंगा भारत बनाम संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

जवाब उस नीति में छिपा हुआ है, जिसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी दौरों पर कई बार दोहरा चुके हैं कि विविधता भारत की सबसे बड़ी ताकत है. प्रधानमंत्री का नजरिया चाहे जो भी हो लेकिन सच ये है कि इस विविधता को बदलने के लिए संस्थागत कोशिशें चल रही हैं.

केंद्र और बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के काम करने के तरीके से स्पष्ट है कि आरएसएस के सांस्कृतिक एजेंडा को आगे बढ़ाना उनकी पहली प्राथमिकता है. इसी एजेंडे के तहत नाम, पहचान और खानपान से लेकर पहनावे तक सबकुछ आहिस्ता-आहिस्ता बदला जाना है, ताकि देश में एक तरह की वर्चस्ववादी संस्कृति कायम हो सके. यह विचार मूलत: बहुलता विरोधी है, इसलिए लोकतंत्र और संविधान से इसका टकराव अवश्यंभावी है.

बनाने से ज्यादा मिटाने में दिलचस्पी

यह ठीक है कि जिस पार्टी की भी सरकार होती है, वह अपने विचार और अपनी विभूतियों को लोक मानस में स्थापित करने की कोशिश करती है. देखा जाए तो गलत कुछ भी नहीं है. लेकिन समस्या तब होती है जब सरकारी तंत्र खुद प्रतीकवाद की लड़ाई छेड़ दे और अपने ही नागरिकों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने लगे. मुगलसराय स्टेशन का नाम दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रखा जाना इसका ताजा नमूना है.

Pandit-Deendayal-Upadhyay

सरकार के पास बेशुमार फंड है. दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर पूरे देश में जहां चाहे जितने चाहे स्मारक, भवन और मूर्तियां बनवा लें. लेकिन इसके लिए मुगलसराय का नाम मिटाने की जरूरत क्यों पड़ी? दलील यह दी गई है कि मुगलसराय स्टेशन के साथ पंडित उपाध्याय के नाम की एक स्मृति जुड़ी है. ये कैसी स्मृति है?

पंडित उपाध्याय का क्षत-विक्षत शव मुगलसराय स्टेशन के यार्ड में मिला था. क्या पंडित उपाध्याय का कोई अनुयायी उस स्मृति को संजोना चाहेगा? उस रहस्यमय हत्या की गुत्थी अब तक नहीं सुलझ पाई है. ये अलग बात है कि उनकी हत्या के तीन दशक बाद उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार केंद्र में आ चुकी थी और आज भी बीजेपी की सरकार है. लेकिन क्या इस दिशा में कुछ हुआ? ऐसे में लगता यही कि बीजेपी अपने शीर्ष प्रतीक पुरुष के नाम का इस्तेमाल केवल हिंदू वोटरों को लामबंद करने के लिए ही करना चाहती है.

इतिहास बदलने की आत्मघाती आपाधापी

इतिहास को लेकर आरएसएस की अपनी एक अलग सोच रही है. संघ का मानना है कि इतिहास सिर्फ प्रेरणा लेने के लिए होता है. गौरवशाली अतीत के गान से राष्ट्रवाद मजबूत होता है. सुनने में ये बातें अच्छी लग सकती हैं. लेकिन विचाराधारा से उपर उठकर यह देखना चाहिए कि इतिहास आखिर है, क्या?

इतिहास समय की निरंतरता और गतिशीलता का नाम है. इतिहास में कुछ अच्छा और कुछ बुरा होता है. लेकिन वह एक गुजरा वक्त है, इसलिए उसे बदला नहीं जा सकता. स्वीकार करने के अलावा आपके पास कोई रास्ता नहीं है.

इतिहास एक बहुमंजिला इमारत की तरह है. अगर बीच के दो फ्लोर आपको पसंद ना हों और आप उसे तोड़ने की जिद करेंगे तो पूरी इमारत भरभराकर गिर जाएगी. बिना किसी एकैडिमिक बहस के ऐतिहासिक तथ्यों में बदलाव की आत्मघाती आपाधापी इस समय बीजेपी शासित तमाम राज्यों में चल रही है.

कहीं इतिहास के साथ माइथोलॉजी का घालमेल किया जा रहा है, तो कहीं हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को विजयी बताया जा रहा है. यह कुछ वैसी ही बात है कि असाध्य बीमारियों का सामना कर चुका कोई मरीज डॉक्टर के पास जाकर कहे कि वह हमेशा से इतना मजबूत रहा है कि सुबह शाम-कुश्ती लड़ता आया है.

विश्लेषण गलत तथ्यों पर होगा तो इलाज गलत होगा और मरीज की हालत और बिगड़ जाएगी. कोई भी परिपक्व समाज तथ्यों को ईमानदारी से स्वीकार करता है, ताकि वह अतीत से सबक लेकर आगे बढ़ सके.

Prime_Minister_Narendra_Modi_pays_tributes_to_Deendayal_Upadhyaya

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दीनदयाल उपाध्याय को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए

बड़ी लकीर खींचना ही एकमात्र रास्ता

विविधता का मतलब सिर्फ हिंदू, मुसलमान नहीं है. भारतीय समाज अनगिनत धार्मिक, जातीय, भाषाई और नस्ली समूहों में बंटा है. यह विविधता ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है, जैसा स्वयं प्रधानमंत्री भी मानते हैं. सरकार को कोशिश इस बात की करनी चाहिए कि सभी समूहों में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो. लेकिन सरकार जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, उसे देखते हुए क्या ऐसा हो पाना संभव है?

अगर सरकार चाहे तो भारतीय करदाताओं के धन का इस्तेमाल करके कुछ ऐसे काम कर सकती है, जिसे देखकर लोग स्वभाविक तौर पर उसकी विचारधारा की तरफ आकर्षित हो. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है. बेहतर होता अगर सरकार अपने मूल्यों के अनुरूप कोई ऐसी यूनिवर्सिटी बनाती जो शिक्षण के मामले में जेएनयू से भी बेहतर साबित होती.

गोहत्या पर पूर्ण रूप से रोक लगाने के लिए गरीबों के बच्चो को सस्ते प्रोटीन डाइट उपलब्ध कराती. दूसरों के नाम मिटाने के बदले अपनी विचारधारा के प्रतीक पुरुषों के नाम पर ऐसी संस्थाओं का गठन करती जिन्हें देखकर दुनिया दाद दे. लेकिन क्या ये सब कुछ होता दिख रहा है? फिलहाल तो सारा जोर विरोधी विचारों के दमन पर है.

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