आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लोगों को नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसद का कोटा देने का प्रधानमंत्री का फैसला एक ऐसे महारथी के रणकौशल की मिसाल है जिसने सियासत के अखाड़े में लगभग उसी किस्म का दांव मारा है जैसे कि कोई क्रिकेट के मैदान रिवर्स स्वीप या फिर स्विच हिट का जौहर दिखा.
मोदी ओबीसी वर्ग से आते हैं- भारतीय समाज और राजनीति के मंडलीकरण के बाद से अब तक के वक्त में प्रधानमंत्री के ओहदे पर पहुंचने वाले इस समुदाय के वे सिर्फ दूसरे व्यक्ति हैं. ओबीसी तबके से प्रधानमंत्री बनने वाले पहले शख्स हैं देवगौड़ा. और 1992 के बाद के वक्त में देवगौड़ा का उभार मंडल की राजनीति के एतबार से केंद्रीय नहीं बल्कि आकस्मिक ही माना जाएगा. अब इसे पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण की दलील मानिए कि इस आंदोलन की साकार प्रतिमा बनकर उभरे नरेंद्र मोदी ने संख्याबल के लिहाज से फिसड्डी अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसद के कोटे का ऐलान किया है. इसे कहते हैं सियासत के मैदान का स्विच हिट!
सियासी कथानक का रुख विपक्ष से दूर मोड़ा
अपने जौहर का किसी उस्ताद की तरह इजहार करते हुए प्रधानमंत्री ने ना सिर्फ सियासी कथानक का रुख विपक्ष खेमे से दूर मोड़ दिया है बल्कि अपना पैंतरा बदलते हुए मंडल के तर्क को उठाकर सीधे गलियारे के बाहर पहुंचा दिया है. मंगलवार को संसद में पेश आया मंजर ये मुनादी कर रहा था कि प्रधानमंत्री के जौहर के आगे विपक्ष एकदम हक्का-बक्का रह गया है. विपक्ष के पास कोई चारा ना बचा सिवाय इसके कि वह प्रधानमंत्री के मास्टर-स्ट्रोक पर मन ही मन रश्क करते हुए मेज थपथपाए!
गौर करें कि गुजरे चंद सालों से कांग्रेस समेत बाकी विपक्षी पार्टियां कौन सा सियासी कथानक बुन रही थीं. विपक्षी दल एक ऐसा सियासी माहौल खड़ा करने के लिए जी-जान से जुटे थे जो अगड़ी जातियों में असंतोष पैदा करे. गुजरात मे जिस तरह पटेल-आंदोलन और महाराष्ट्र में मराठा-आंदोलन को गुणा-भाग के सहारे एक खास शक्ल देने की कवायद हुई, उसके पीछे मंशा साफ-साफ सरकार-विरोधी माहौल बनाने की थी.
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अभी ये गुजरे दिसंबर की ही तो बात है जो कांग्रेस ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अगड़ी जातियों के आक्रोश को अपने हक मे भुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारक) अधिनियम के प्रावधानों को तनिक कम सख्त करने का फैसला सुनाया तो सरकार ने इस फैसले को पलट दिया और सरकार का ये रुख अगड़ी जातियों को नागवार गुजरा.
राम मंदिर पर छिटक रहे हिंदुओं को भी रोका
बेशक, बीजेपी की चिंता बढ़ाने वाली एक बात यह भी हुई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने साथ मिलकर अयोध्या में मंदिर-निर्माण का राग बेवक्त अलापना शुरू कर दिया था. मसले पर मोदी सरकार को पसोपेश में देखकर कांग्रेस मन ही मन खुश थी और अयोध्या के मसले पर बीजेपी से दूर छिटक रहे अगड़ी जाति के हिंदुओं को उसने अपने पाले में लाने की चाल चली.
थोड़े में कहें तो जो तबके बीजेपी के धुर समर्थक माने जाते थे उनका मन सरकार के कार्यकाल के इस आखिरी वक्त में तनिक उचट चला था. लेकिन मोदी ने एक बार फिर से इस कहावत को सही साबित किया कि 'सियासत में एक दिन का वक्त बहुत लंबा होता है.'
जरा उनकी मौजूदा पहलकदमी को मंडल आयोग की रिपोर्ट के अमल में आने के वाकए के बरक्स रखकर सोचिए- आपको अंतर साफ नजर आएगा. वी.पी. सिंह ने ओबीसी आरक्षण उस वक्त लागू किया जब वे सियासी तौर पर एकदम लाचार हो चले थे. चौधरी देवीलाल ने बगावती बिगुल फूंक दिया था और सरकार के खिलाफ जाटों और ओबीसी समुदाय को एकजुट करने के लिए उठ खड़े हुए थे. वी.पी. सिंह का दांव भी सियासत के मैदान का मास्टर-स्ट्रोक ही था- लेकिन निशाना चूक गया, अगड़ी जाति के नौजवान रोष में बावले हो उठे, पूरे उत्तर भारत में जातिगत संघर्ष की आग सुलग उठी.
लेकिन सच्चाई यह भी है कि ओबीसी को हासिल आरक्षण को आज हर सियासी खेमे में मंजूरी हासिल है और यह वीपी सिंह के सियासी जौहर की ही दलील है. लेकिन अपने वक्त में वे लोगों के बीच सबसे नापसंद किए जाने वाले नेताओं की फेहरिश्त में दर्ज किए गए. इस नापसंदगी की एक जाहिर सी वजह थी. मान लिया गया कि वीपी सिंह ने मंडल का दांव संख्या बल के लिहाज से ताकतवर सामाजिक वर्ग को अपने पाले में खींचने के लिए चला है और ऐसा उन्होंने संख्याबल के लिहाज से कमजोर मगर सियासी तौर पर मुखर अगड़ी जातियों की कीमत पर किया है.
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वीपी सिंह को बड़ी देर के बाद में अहसास हुआ कि वे ओबीसी की लामबंदी के स्वाभाविक नेता बनकर नहीं उभरे. एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था कि वे इस बात को जान रहे थे कि अपनी सामंती पृष्ठभूमि और जाति (राजपूत) की वजह से वे कभी ओबीसी के नेता बनकर नहीं उभर सकते और उन्होंने अपनी बात में यह भी जोड़ा था कि 'बीज को मिट जाना होता है तभी उसमें से नया बिरवा फूटता है.' कहने का अंदाज कुछ ऐसा था मानो अपने सियासी भविष्य को उन्होंने पहले से भांप लिया हो.
वीपी सिंह 1991 के बाद के सालों में सियासी मैदान में प्रासंगिक नहीं रह गए लेकिन उनकी राजनीति की छत्रछाया में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती और बिहार में लालू यादव जैसे क्षत्रपों का उभार हुआ. हिंदीपट्टी में सियासत का व्याकरण बुनियादी तौर पर बदल गया, नेतृत्व का मोर्चा ओबीसी ने संभाला और अगड़ी जातियों ने इस नेतृत्व का पिछलग्गू बनना स्वीकार कर लिया. विडंबना कहिए कि जिस बीजेपी ने राम-जन्मभूमि आंदोलन के सवाल पर अगड़ी जातियों को लामबंद करके अपना सितारा बुलंद किया था उसने पैंतरा बदलते हुए हिंदुत्व की ओट में ओबीसी समुदाय के नेतृत्व को आगे लाना शुरू किया.
हिंदुत्व की रंगत वाली मंडलवादी राजनीति
मोदी का उभार दरअसल हिंदुत्व की रंगत वाली मंडलवादी राजनीति के चरमोत्कर्ष पर पहुंचने की पहचान है. लेकिन मोदी के बारे में ये नहीं माना जाता कि वे अपनी सियासी बिसात बचाए रखने के लिए तबकाती हितों को बढ़ावा दे रहे हैं जबकि वीपी सिंह के बारे में यह मान्यता घर कर चुकी थी. सत्ता के इस बेबूझ खेल में मोदी ने संख्याबल के लिहाज से कमजोर अगड़ी जातियों का साथ देने की पहलकदमी की है और वह भी एकदम चुनावों से पहले! सो, उनका यह फैसला बड़ा साहसी और जोखिम भरा माना जाएगा. वीपी सिंह के उलट, अगले चुनाव तक सत्ता की बागडोर उन्हीं के हाथ में है और भगवा खेमे में वैसा कोई बगावती बिगुल भी नहीं बजने वाला जैसा कि कभी देवीलाल ने फूंका था. लोग बेशक अब भी मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ के उतार-चढ़ाव को लेकर बातें करते रहेंगे लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वे समकालीन नेताओं में सबसे कद्दावर बनकर उभरे हैं.
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विधेयक राज्यसभा में भी पारित हो गया है. अब उसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट की जांच-परीक्षा से गुजरना पड़ सकता है. मंडल आयोग की सिफारिशों पर आधारित आरक्षण के मसले पर 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के एक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने अधिकतम 50 फीसद आरक्षण की सीमा आयद की थी लेकिन कई राज्यों की विधानसभा ने इस सीमा से आगे जाने का साहस दिखाया है, सो मोदी की पहल के पक्ष में नजीर मौजूद है. कानूनी नुक्तों से परे और प्रतीकात्मकता की बहस से अलग हटकर सोचे तो लगता यही है कि मोदी की पहल ने अपना सियासी मकसद हासिल कर लिया है. ओबीसी समुदाय से आए नरेंद्र मोदी का 10 फीसद का कोटा देने का फैसला भारतीय राजनीति में ‘रिवर्स मंडलीकरण' के नाम से जाना जाएगा.
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