1996 में जब 13 दिन बाद बहुमत न जुटा पाने के चलते अटल बिहारी वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा था, तो उन्होंने यादगार भाषण दिया था. अपने खास अंदाज में हाथ हिलाते हुए वाजपेयी ने ये कह कर भाषण खत्म किया था कि वो अपनी पार्टी के साथ राष्ट्रपति के पास इस्तीफा देने जा रहे हैं.
ये लोकसभा के इतिहास में असाधारण दिन था. उस दिन सदन में शानदार बहस हुई थी. इस चर्चा के दौरान जो सबसे बढ़िया भाषण दिया गया, वो वाजपेयी से पहले पीएम रहे कांग्रेस के पी.वी. नरसिम्हा राव का था.
विपक्ष के नेता के तौर पर नरसिम्हा राव ने बीजेपी की कमियां और कमजोरियां गिनाईं. अपने भाषण के दौरान उन्होंने शानदार सियासी तंज किए. मसलन, मुरली मनोहर जोशी की तरफ रुख करते हुए राव ने उनसे पूछा, 'जोशी जी वो आप क्या कहते हैं, भारतीय मतलब हिंदू'. मुरली मनोहर जोशी नरसिम्हा राव की चाल समझ नहीं पाए और उनके जाल में फंसते हुए हामी भरी, तो राव ने पलटकर पूछा कि इसका ये मतलब है कि, 'भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी को हिंदू पीनल कोड कहा जाए'. सदन में इस बात पर जोरदार ठहाके लगे.
मजबूत नेता की अपनी सीमाएं
पूरे भाषण में नरसिम्हा राव का तर्क था कि बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार अल्पमत में है, क्योंकि ये पूरे भारत की नुमाइंदगी नहीं करती. राव का कहना था कि बीजेपी के मुकाबले विपक्षी दल भारतीयता की ज्यादा लोकतांत्रिक नुमाइंदगी करते हैं. ये बीजेपी की हिंदुत्ववादी विचारधारा की वजह से भी था और लालकृष्ण आडवाणी जैसे कट्टर नेतृत्व की वजह से भी कहा जा रहा था. जबकि वाजपेयी के रूप में बीजेपी के पास नरमपंथी चेहरा था.
नरसिम्हा राव एक शातिर सियासी लीडर थे. उन्हें पता था कि भारत में मजबूत नेता होने का मतलब लोगों के जेहन में निरंकुश, तानाशाही और घमंडी होना है. आखिर में इसकी वजह से कोई भी नेता जनता से दूर हो जाता है. तल्ख हकीकत तो ये है कि नरसिम्हा राव अपने पांच साल के कार्यकाल में इसी सोच की कैद में रहे. यही वजह रही कि उनके राज में सियासी धूर्तता की सबसे खराब मिसालें देखने को मिलीं.
यूं तो नरसिम्हा राव भारत के सबसे प्रभावशाली प्रधानमंत्रियों में से रहे थे. लेकिन, 1996 में नरसिम्हा राव अपनी पार्टी में ही अलग-थलग पड़ चुके थे. मगर वो इतने जहीन थे कि उन्होंने वाजपेयी को इशारों में समझा दिया कि मजबूत नेता होने की भी अपनी सीमाएं हैं. इस छवि के साथ बीजेपी बहुत लंबा सियासी सफर नहीं तय कर सकती. ऐसा हुआ तो बीजेपी के विरोधी एकजुट होकर उसे आसानी से मात दे सकते हैं.
मोदी विरोधी मोर्चे का महत्व
हालांकि 1996 के बाद से अब तक देश की राजनीति बहुत बदल गई है. लेकिन आज भी देश की राजनीति जिस मोड़ पर खड़ी है, वहां नरसिम्हा राव की वो बातें बहुत प्रासंगिक हैं. खास तौर से तब और जब देश में आम चुनाव से एक साल पहले कर्नाटक में बीजेपी विरोधी सारी पार्टियां एकजुट होकर एक मंच पर नजर आती हैं.
बेंगलुरु में एच.डी. कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में तमाम क्षेत्रीय दलों को अगर हम कांग्रेस की ताकत की नुमाइश भर कहकर खारिज करते हैं, तो ये बचकानी बात होगी. अगर हम उस दिन मंच पर मौजूद नेताओं पर नजर डालें, तो, ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपनी जमीन क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं के लिए छोड़ने को तैयार है. ऐसा करके कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोधी मोर्चे को मजबूती से खड़ा करना चाहती है.
मजबूत नेता वोटों की गारंटी है?
विपक्षी दलों की बेंगलुरु में एकजुटता से एक बात तो साफ है कि आज बीजेपी, देश की राजनीति में नंबर वन की हैसियत रखती है. लेकिन क्या 2019 का चुनाव जीतने के लिए इतना काफी है? बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि वो अगले साल के चुनाव में 50 फीसद वोट हासिल करने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं. ये 2014 में बीजेपी को मिले वोटों से बहुत ज्यादा बड़ा लक्ष्य है. अगर अमित शाह का सपना पूरा होता है, तो, बीजेपी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बराबर की हैसियत वाली पार्टी हो जाएगी. हालांकि बीजेपी का दावा ये है कि सदस्यता के लिहाज से वो इस वक्त भी दुनिया की नंबर एक पार्टी है.
बीजेपी को अगले साल 50 फीसद वोट मिल जाते हैं तो भारत भी चीन जैसा हो जाएगा! लेकिन क्या ये हो सकता है? इस सवाल का जवाब ना में ही है. देश ने ऐसे कई दौर देखे हैं, जब जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया की धीमी रफ्तार से बेकरार हो उठी है. इस बेकरारी में वोटर एक मजबूत नेता पाने को लालायित हो उठते हैं. बेकरार वोटर, मजबूत नेता और तानाशाही निजाम का ख्वाहिशमंद हो जाता है, ताकि वो प्रशासनिक अक्षमता के दौर से जल्द से जल्द बाहर आ सके. लेकिन जनता की ये बेकरारी लंबे वक्त तक नहीं रहती. 2009 में लालकृष्ण आडवाणी ने सिर्फ एक मुद्दे, 'मजबूत नेता' को लेकर चुनाव लड़ा था. उनका मुकाबला कमजोर माने जाने वाले मनमोहन सिंह (खुद मनमोहन सिंह ने कभी इसका विरोध नहीं किया) से था. फिर भी बीजेपी 2009 का चुनाव हार गई.
ऐसे अजीब सियासी हालात सिर्फ भारत में नहीं आए हैं. अगर हम तारीख के पन्ने पलटें, तो बहुत से देशों में हमने देखा है कि जनता को नरमपंथी तानाशाह पसंद आए हैं. जिनसे लोगों ने उम्मीद लगाई कि वो उनकी सारी परेशानियां दूर कर देगा. और जैसा कि ब्रिटिश राजनीति शास्त्री आर्ची ब्राउन कहते हैं कि भला कभी हमने ये सुना है क्या कि कोई देश कमजोर नेता चाहता है?
लोकतंत्र में मजबूत नेता
2014 में आई अपनी किताब 'द मिथ ऑफ ए स्ट्रॉन्ग लीडर' (The Myth of a Strong Leader 2014) में आर्ची ब्राउन लिखते हैं कि, 'मजबूत नेता को लेकर हमारी पारंपरिक सोच ये है कि मजबूत नेता वो है जो अपनी मर्जी चला लेते हैं, अपने साथियों पर दादागीरी करते हैं, सारे फैसले खुद लेते हैं. ऐसे नेता बेहद कामयाब और लोकप्रिय होते हैं. ये हमारा सब से बड़ा भ्रम है. और मैं इसका पर्दाफाश करना चाहता हूं. मजबूत नेता के दर्जे में आने वाले कुछ नेता ऐसे जरूर होते हैं, जो नकारात्मकता के बजाय पॉजिटिव माहौल बनाते हैं. लेकिन आम तौर पर अगर कोई एक नेता सर्वशक्तिशाली बन जाता है. सारी ताकत अपने हाथ में रखता है. तो, इससे बड़ी गड़बड़ियां होने लगती हैं. ऐसे तथाकथित मजबूत नेता की तानाशाही से तबाही आने और बड़े पैमाने पर खून खराबा होने का अंदेशा रहता है'.
ब्राउन का मानना है कि किसी भी लोकतंत्र में ऐसे नेता, लोकतांत्रिक ढांचे को कम नुकसान पहुंचा पाते हैं, क्योंकि उनकी तानाशाही पर सरकार से बाहर की ताकतें लगाम लगाती हैं. फिर भी, मजबूत नेता को लेकर दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के बीच खतरनाक किस्म का भ्रम है. लोग ये सोचते हैं कि जो नेता अपने सियासी दल या मंत्रिमंडल पर जितना ही हावी रहता है, तो वो उतना ही महान नेता होता है. सबको साथ ले कर चलने और मिल-जुल कर फैसले लेने वाले नेता को कमजोर माना जाता है. ब्राउन का मानना है कि लोग अक्सर सामूहिक नेतृत्व और सब को साथ लेकर चलने वाले नेता के फायदों की अक्सर अनदेखी होती है.
मजबूत नेता के खिलाफ बहुत जल्द तैयार होता है माहौल
अगर राजनीति में बिखराव होता है, तो जनता के मिजाज को मजबूत नेता कि छवि लुभाती है. लेकिन सामाजिक स्तर पर बहुत जल्द इसके खिलाफ भी माहौल बनने लगता है. जवाहर लाल नेहरू को छोड़ दें, तो हमारे देश में कमोबेश हर नेता ने विरोधी माहौल का ऐसा दौर देखा है. जैसे कि इंदिरा गांधी को ही लीजिए. 1971 में बांग्लादेश के युद्ध में भारत को उन्होंने ऐसी जीत दिलाई थी कि विरोधी तक उन्हें दुर्गा का अवतार बताने लगे. लेकिन, जल्द ही इंदिरा गांधी को विपक्ष ने एकजुट होकर करारी हार चखाई थी. उनके बेटे राजीव गांधी, मिजाज से तो नहीं, पर प्रचंड बहुमत की वजह से मजबूत नेता माने जाते थे. लेकिन अपने कार्यकाल के चौथे साल में ही उनके अजेय होने का तिलिस्म टूटने लगा था और वो बेहद कमजोर नजर आने लगे थे. उस वक्त भी विपक्ष ने एकजुट होकर राजीव गांधी को मात दी थी.
इन मजबूत नेताओं के मुकाबले अगर हम नेतृ्त्व के दूसरे मॉडल पर गौर करें, तो वाजपेयी या नरसिम्हा राव ने कभी भी खुद को मजबूत नेता के तौर पर नहीं पेश किया. न ही उन्होंने अपनी मनमर्जी थोपी. वो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या नरेंद्र मोदी की तरह के ताकतवर नेता भी नहीं माने जाते थे. संख्या बल की वजह से भी उन्हें गठबंधन धर्म और सब को साथ लेकर चलने के राजनीतिक रास्ते पर चलने को मजबूर करता था.
वाजपेयी और राव, दोनों ने विरोधाभासों को साधने का काम किया था. दोनों ने ही इस तरह की राजनीति से अपना कार्यकाल पूरा किया. इन नेताओं के मुकाबले मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के तौर पर दो कार्यकाल भले ही पूरे किए. मगर वो कभी खुद के नेता होने का दावा नहीं कर सके. अब चूंकि मनमोहन सिंह ने कभी भी कमजोर पीएम होने की छवि को बदलने की कोशिश नहीं की, तो, उनकी इमेज मजबूत नेता के ठीक विपरीत रही.
मोदी की मजबूत छवि बीजेपी के लिए राहत की बात नहीं
इस नजरिए से देखें तो मोदी को पूर्ण बहुमत मिलना अगर वरदान था, तो अभिशाप भी. तीस साल में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो लोगों की उम्मीदें भी बढ़ गईं. और फिर मोदी का किसी के दबाव में न आने वाला अंदाज लोगों को पसंद आया. मोदी का तेज-तर्रार प्रशासन का तरीका आज भी बहुत से लोगों को लुभाता है. लेकिन सत्ता का विरोधाभास अब सामने आ रहा है. आज गठबंधन के सहयोगी बीजेपी का साथ छोड़ रहे हैं. विरोधी एकजुट हो रहे हैं. हकीकत तो ये है कि ये वो किसी नैतिक या सैद्धांतिक वजह से नहीं कर रहे. बल्कि अपने आप को बचाने के लिए कर रहे हैं. लेकिन, ये बीजेपी के लिए राहत की कोई बात नहीं है.
जब समाजवादी पार्टी और बीएसपी जैसे धुर सियासी विरोधी, बल्कि यूं कहें कि कट्टर सियासी दुश्मन एकजुट हो जाएं, तो, ये तय है कि देर-सबेर उनके हित टकराएंगे. लेकिन तब तक तो बीजेपी को हराने का उनका एकजुटता का मकसद पूरा हो चुका होगा. ऐसे किसी भी मंच का विरोधाभास, किसी एक पार्टी को हराने के बाद खुलकर उजागर होता है. हम 1979-80 और 1990-91 में ये देख चुके हैं. लेकिन ये विरोधाभास जिसे हराने के लिए एकजुटता होती है, उसे हराने के बाद ही सामने आता है. हम ये मिसाल उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में देख चुके हैं.
जैसा कि लोग कहते हैं कि राजनीति में एक साल का वक्त बहुत लंबा होता है. और विरोधी भी मानते हैं कि मोदी हर बार खुद को नई छवि के साथ पेश करने के उस्ताद हैं. बहुत मुमकिन है कि जब वो 2019 में वोटर के सामने जाएंगे, तो अपनी नई गढ़ी हुई नरमपंथी छवि के साथ जाएं. ये भी संभव है कि वो एकदम नए विचार के साथ मतदाता को लुभाने और विरोधियों को झटका देने की कोशिश करें. तब भी हमें अपना दांव सोच समझकर लगाना होगा.
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