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राष्ट्रपति चुनाव: मीरा कुमार उम्मीदवार नहीं कांग्रेस की 'प्रतिक्रिया' हैं

राष्ट्रपति पद के चुनाव को ‘मेरा दलित बनाम तुम्हारा दलित’ के मुकाबले में बदल दिया गया है

Updated On: Jun 23, 2017 01:52 PM IST

Sanjay Singh

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राष्ट्रपति चुनाव: मीरा कुमार उम्मीदवार नहीं कांग्रेस की 'प्रतिक्रिया' हैं

सत्ताधारी एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद से मुकाबले के लिए कांग्रेस की अगुवाई में 17 छोटी विपक्षी पार्टियों ने मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी बनाने का फैसला किया है लेकिन इस फैसले में तीन बड़े दोष हैं.

पहली बात तो यह कि इन पार्टियों ने राष्ट्रपति जैसे महिमा भरे पद के लिए होने जा रहे चुनाव को दलित बनाम दलित के मुकाबले में बदल दिया है मानो यह पद आरक्षित श्रेणी में आता हो.

एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के मुकाबले में मीरा कुमार को खड़ा करने में कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने जो तेजी दिखाई है उसने सर्फ के एक पुराने विज्ञापन की याद दिला दी है कि ‘भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे.’

राष्ट्रपति राष्ट्र का सिरमौर होता है, देश का प्रथम नागरिक, तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर और संविधान का रखवाला जो मंत्रियों की सहायता और सलाह से काम करता है. और, अगर ऐसा है तो फिर इस सर्वोच्च संवैधानिक पद को कोई भी सियासी रंगत देने से बचा जाना चाहिए. जातिवादी आग्रहों से यह पद जितना दूर रहे उतना ही अच्छा!

'मेरा दलित बनाम तुम्हारा दलित'

आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब 2017 में होने जा रहे राष्ट्रपति पद के चुनाव को ‘मेरा दलित बनाम तुम्हारा दलित’ के मुकाबले में बदल दिया गया है.

दलित समुदाय से पहले के आर नारायणन देश के राष्ट्रपति बने. यह 1997 की जुलाई की बात है. उस घड़ी शिवसेना को छोड़कर अन्य सभी दलों ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था. सियासी तौर पर वह बड़ा उथल-पुथल भरा समय था, आई के गुजराल एक अल्पमत की सरकार चला रहे थे और बाहर से मिल रहे कांग्रेस के समर्थन से किसी तरह अपने पद पर बने हुए थे. लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुआ तो ऐसे वक्त में भी अलग-अलग सियासी दलों के बीच अनोखी एकता नजर आई. इस चुनाव में नारायणन से मुकाबले के लिए पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन खड़े हुए थे.

दूसरी बात यह कि कांग्रेस का मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी बनाना विरासती और वंशवादी राजनीति पर उसके गहरे भरोसे की सूचना है. जैसे सोनिया गांधी और राजीव गांधी वंशवादी राजनीति की देन है वैसे ही बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार भी विरासत की राजनीति की देन हैं.

meira kumar

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विरासत में मिली राजनीति

मीरा कुमार की उम्मीदवारी के पुरजोर समर्थक या कह लें कि उन्हें मुकाबले में उतारने की कांग्रेस की चाहत को हवा देने वाले लालू प्रसाद यादव ने सार्वजनिक रूप से इस विरासती राजनीति का जिक्र करते हुए कहा कि मीरा कुमार 'महान नेता बाबू गजीवन राम की बेटी हैं, बिहार की बेटी हैं.'

बीते कुछ सालों के भीतर दूसरी बार हुआ है जब कांग्रेस और उसके साथी दलों ने मीरा कुमार की विरासती साख का हवाला दिया है. 2009 में जब लोकसभा के अध्यक्ष पद के लिए मीरा कुमार का नाम आया तब भी उनके पक्ष में यही बातें कही गई थीं कि वो महिला हैं, दलित हैं और बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं.

मीरा कुमार ने लोकसभा के स्पीकर के रूप में राजनीति के दिग्गज सोमनाथ चटर्जी की जगह कार्यभार संभाला और उस वक्त उनको स्पीकर बनाने के मसले पर बीजेपी ने बड़ा सख्त रवैया अपनाया था.

2017 के भारत में सुविधा-संपन्न राजनेताओं की एक बड़ी तादाद मौजूद है जिसे अपनी खानदानी विरासत का गैर-वाजिब फायदा हासिल है. दरअसल तथाकथित 'मां-बेटा की सरकार' (राहुल-सोनिया गांधी) के खिलाफ नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत के वोट मिले ही इसलिए कि मतदाता वंशवादी राजनीति से उकता गया था और उसने एक साधारण चायवाले में शासक होने की संभावना तलाशी.

जाहिर है, कांग्रेस ने इससे कोई सबक नहीं सीखा और जान पड़ता है कि वह आज भी अपने पुराने वक्त के घेरे में कैद होकर सोच रही है.

बेशक मीरा कुमार जन्मना दलित हैं लेकिन उनकी परवरिश और राजनीति लुटियन्स दिल्ली वाली अभिजात्य सोच-विचार की नुमाइंदगी करती हैं और 2014 के लोकसभा चुनावों में राजनीति के इसी चलन की भारत ने भरपूर मुखालफत की. लेकिन कांग्रेस को इस बात का तनिक भी ख्याल नहीं है.

तीसरी बात, कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष यह समझने में नाकाम है कि वह मोदी और बीजेपी की चाहे जितनी आलोचना करे लेकिन उसे आखिरकार प्रधानमंत्री और उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के तय किए एजेंडे पर ही चलना पड़ेगा. बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद के नाम का औचक एलान करके मोदी-शाह की जोड़ी ने सभी विपक्षी दलों के धुर्रे बिखेर दिए हैं.

मोदी-शाह की जोड़ी ने गंवई सीमांत किसान की पृष्ठभूमि वाले और वकालत को छोड़कर सियासत में आए एक दलित राजनेता के नाम का एलान किया. चूंकि इसकी किसी को उम्मीद ना थी सो इस नाम के एलान ने सबको चौंकाया. कांग्रेस इस फंदे में फंस गई और इसने दलित परिवार के एक नेता के नाम का अपनी तरफ से एलान किया.

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Myanmar's opposition leader Aung San Suu Kyi shakes hands with Lok Sabha Speaker Meira Kumar during Suu Kyi?s visit to the Indian parliament in New Delhi

नीतीश कुमार की गैरमौजूदगी से विपक्ष को धक्का

आज की बैठक में राष्ट्रपति पद के लिए अपने प्रत्याशी का नाम सोचने बैठे सोनिया गांधी, लालू यादव और विपक्ष के बाकी नेताओं को सबसे ज्यादा सताने वाली बात यह रही कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शामिल नहीं हुए, और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष से दूर जाते हुए प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के समर्थन का फैसला किया जो 25 जुलाई के दिन राष्ट्रपति भवन में विराजमान होगा. विपक्ष में नीतीश कुमार सबसे ज्यादा साख वाले नेता हैं.

सोनिया गांधी के बैठक में आने से इनकार और फिर मीरा कुमार की उम्मीदवारी को भी उनके ना कह देने से 2017 के राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए विपक्ष की एकजुटता की कोशिशों को भारी धक्का लगा है. एकजुटता की इस कोशिश को 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्ष के महागठबंधन बनाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा था.

लालू यादव की सोच है कि बीजेपी प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को समर्थन देने का फैसला कर नीतीश कुमार ने ऐतिहासिक गलती की है. लालू यादव के मुताबिक यह राष्ट्रपति पद के लिए बेहतर उम्मीदवार चुनने की नीयत से होने वाला चुनाव नहीं बल्कि विचारधाराओं की जोर आजमाइश का मौका है. मीरा कुमार जिस विचारधारा की नुमाइंदगी करती हैं वह लालू यादव को पसंद है.

Nitish Kumar

वाममोर्चा को सबसे तगड़ी चोट

सबसे तगड़ी चोट वाममोर्चा की पेशकदमी को लगी है. विपक्षी दलों की बैठक से ठीक पहले सीपीएम के प्रमुख सीताराम येचुरी ने अपनी पसंद जाहिर करते हुए एक टीवी न्यूज चैनल पर गोपालकृष्ण गांधी (महात्मा गांधी के पौत्र) और प्रकाश आंबेडकर (बीआर आंबेडकर के प्रपौत्र) का नाम लिया था. लेकिन जब 17 दलों की साझी पसंद के रूप में मीरा कुमार के नाम का एलान हुआ तो बैठक में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद के बगलगीर सीताराम येचुरी बड़े खुश नजर आए.

राष्ट्रपति पद के चुनाव के कुल वोट के मूल्य का 62 फीसदी हिस्सा कोविंद के पक्ष में है और उनका राष्ट्रपति बनना तय है. मीरा कुमार की चुनौती बस किताबी दिलचस्पी का विषय है या फिर उससे इतना भर पता चलना है कि 2017 के राष्ट्रपति पद के मुकाबले में हार कितने बड़े अंतर से हुई.

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