मक्का मस्जिद बम धमाकों के दोषियों के बरी होने की खबर आते ही तरह-तरह की प्रतिक्रिया आने लगी. जहां कुछ लोगों का मानना है कि ये न्याय की जीत है, वहीं बहुत से लोग इस फैसले को गलत करार दे रहे हैं. जो भी हो, सभी अभियुक्तों के बरी हो जाने से एक सवाल उठता है कि ये बम धमाके किए किसने थे? ये घटना 2007 में हुई थी और इसमें नौ लोगों की जान गई थी.
वैसे तो ऐसी कोई भी घटना दुखद ही होती है लेकिन जिस प्रकार भारतीय राजनीतिक दल इस पर टिप्पणी कर रहे हैं उस पर हंसी ही आती है. ऐसे लोग जो भारत में खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं वे सब इसको मुसलमानों के साथ नाइंसाफी करार देते हुए सीधा-सीधा मोदी सरकार पर निशाना साध रहे हैं कि अभियुक्त सरकारी दबाव के चलते बरी हुए हैं.
मोदी सरकार की नीतियों से हम और आप नाखुश हो सकते हैं. लेकिन सारे दोष उनके नहीं हो सकते. भारत में मुसलमानों का कत्लेआम करना और फिर हत्यारों का अदालतों से बरी हो जाना कोई नया नहीं है. यहां तो फिर भी कोई चार्जशीट दायर हुई, मुकदमा चला तब कोई बरी हुआ.
ये भी याद रखा जाना चाहिए कि ये धमाके 2007 में हुए थे और तब से ले कर 2014 तक केंद्र में ‘धर्मनिरपेक्ष' कांग्रेस सरकार थी. तो ऐसे में अगर जांच एजेंसी ने सबूत इकठ्ठे नहीं किए तो इसका जिम्मेदार मोदी सरकार को ठहरा देना कितना सही होगा? सात साल काफी समय होता है किसी भी केस में आरोपियों को सजा कराने के लिए.
कुछ माहौल सा बन गया है कि देश में जो भी मुसलमानों के साथ बुरा होता है या हुआ है उसके लिए केवल संघ ही जिम्मेदार है. मुसलमान भी ये मानने लगे हैं कि जो भी मोदी विरोधी है वो मुस्लिम हितैषी है. ये बहुत ही घातक प्रोपगंडा है.
यह सही हो सकता है कि बीजेपी मुस्लिम हितैषी न हो, उसका एजेंडा हिंदुत्व के इर्द गिर्द घूमता है. इनके ही राज में गुजरात में 2002 का बड़ा दंगा हुआ था. पर इसके अलावा? क्या भारत में गुजरात के अलावा दंगे नहीं हुए? और क्या वे सब बीजेपी की सरकारों ने कराये थे? यदि संघ ने वो दंगे कराए तो क्या कभी बाकी पार्टियों की सरकारों ने किसी भी दंगाई को सजा दी? ये कुछ सवाल हैं जिन पर देश को गौर करने की जरूरत है.
चलिए नए से पुराने की ओर को चलते हैं. 2013 में यूपी के मुजफ्फरनगर में हिंदू मुस्लिम दंगे हुए थे. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 42 मुसलमान और 20 हिंदुओं की जान गई, इसके अलावा पचास हजार से अधिक बेघर हुए. बेघर हुए लोगों में अधिकतर मुसलमान थे. हाल ही में प्रदेश की योगी सरकार ने दंगा आरोपी 131 अभियुक्तों से मुकदमे वापस लेने की बात कही तो विपक्षी दलों ने इसको राजनीति से प्रेरित और हिंदुत्व एजेंडा करार दिया.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि जब ये दंगे हुए तो प्रदेश में ‘धर्मनिरपेक्ष' अखिलेश यादव की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस. सबसे पहले तो सवाल ये कि अगर ये पार्टियां बीजेपी को दोष दे रही हैं तो अपने कार्यकाल में दंगे को रोकने से इनको किसने मना किया था. दूसरा ये कि अखिलेश की ‘मुस्लिम हितैषी' सरकार ने दंगे के बाद के चार साल में भी इन मुकदमों में अभियुक्तों को सजा क्यों नहीं कराई?
चलिए थोड़ा और पीछे चलते हैं तो 1993 के मुंबई दंगे याद आएंगे. ये दंगे बाबरी मस्जिद विध्वंस के ठीक बाद हुए थे. मरने वालों की संख्या सैकड़ों में थी. सरकार द्वारा गठित श्रीकृष्ण आयोग ने इसमें कई नेताओं और पुलिस वालों को मुसलमानों को मारने का दोषी पाया था. फिर से याद कीजिए ये दंगे जब हुए तो देश एवं प्रदेश दोनों में ही कांग्रेस सरकार थी. इसके बाद भी देश में और प्रदेश में अलग-अलग धर्मनिरपेक्ष तमगे वाली सरकारें बनती ही रहीं पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट पर कोई अमल नहीं किया गया और न ही किसी को सैकड़ों मुसलमानों के मारे जाने का दोषी पाया गया.
बिहार के भागलपुर दंगे तो याद बहुतों को होंगे.1989 में भागलपुर में 1000 से ज्यादा मुसलमानों की जान गई थी. एक बार फिर केंद्र और प्रदेश दोनों में ही कांग्रेस का शासन था. यहां तक कि जब स्थानीय पुलिस अधीक्षक पर मुसलमानों पर ज्यादती के आरोप लगे तो तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने उनका तबादला कर दिया था जिसको स्वयं ‘धर्मनिरपेक्ष' राजीव गांधी ने रोक दिया था. इसके बाद लालू आए, नितीश आए और बीजेपी भी आई पर भागलपुर के इन सैकड़ों मुसलमानों को इंसाफ नहीं मिला.
एक और मशहूर वाकया, वाकया इसलिए क्योंकि इसको दंगा कहना तो पाप होगा. हाशिमपुरा, नाम याद आया? 1986 में दर्जनों मुसलमानों को पुलिस ने गोलियों से छलनी कर दिया था. मेरठ में 80 के दशक में पुलिस की बर्बरता का ये अकेला वाकया नहीं था. और एक बार फिर प्रदेश एवं केंद्र दोनों में ही कांग्रेस की सरकार थी. इसके बाद अधिकतर समय मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश सत्ता पर काबिज रहे पर मुसलमानों को इंसाफ की बू भी न आ सकी. किसी पुलिसकर्मी को सजा न हुई.
ऐसे और भी कई उदाहरण हैं. 1969 में कांग्रेस के शासनकाल में हुए अहमदाबाद दंगे जहां सैकड़ों मुसलमान मारे गए थे किसी तरह 2002 के दंगों से कम नहीं थे. असम में 1983 में हुआ नेल्ली नरसंहार में तो मरने वालों की संख्या हजारों में है. दिल्ली के तुर्कमान गेट पर पुलिस फायरिंग. और इन सब के बीच 1980 में ईद के दिन ईद की नमाज पढ़ते हुए नमाजियों पर हुई पुलिस फायरिंग जिसमें तीन सौ से अधिक नमाजी मारे गए थे.
ये सब मुसलमानों के नरसंहार उन पार्टियों के शासनकाल में हुए हैं जो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहती हैं. चाहे वो कांग्रेस हो, मुलायम हो, मायावती हो, अखिलेश हो, लालू हो, या नितीश हो कभी मुसलमानों के संहार के दोषियों को जेल तक नहीं जाना पड़ा.
कभी-कभी मैं सोचता हूं ऐसा क्या हुआ है कि मुसलमान केवल गुजरात के 2002 दंगे को याद रखते हैं और उसके पीछे और आगे बाकी दंगे जिनमें उस से कहीं अधिक जानें गईं, उनका क्या? बीजेपी ने कुछ नया नहीं किया है. भारतीय राजनीति में मुसलमानों को इंसाफ न मेरठ में मिला, न मुरादाबाद में, और न गुजरात में. मुसलमान से डरा कर वोट लिया जाता है पर मुसलमान को इंसाफ नहीं दिया जाता. अंत में वो फिल्मी गीत याद आता है;
किस किस का नाम लूं मैं,
मुझे हर किसी ने मारा.
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