यकीन कीजिए, अरविंद केजरीवाल अच्छी सलाह स्वीकार करने वालों में नहीं हैं. इस मामले में उनका पुराना इतिहास है.
कोई शक हो तो आम आदमी पार्टी के उनके पुराने साथियों, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और उन सभी नेक-नियत लोगों से पूछिए. इन लोगों ने पिछले तीन सालों में या उससे थोड़ा पहले अलग-अलग मौकों पर उनकी पार्टी को नमस्ते कर दिया है.
यहां तक कि अन्ना हजारे के साथ बातचीत से ही आपको इसका पता चल जाएगा. अन्ना के ही कमजोर कंधों पर चढ़ कर केजरीवाल ने लोकप्रियता हासिल की थी.
हर सलाह की अनदेखी
उन्हें सलाह दी गई कि वे राजनीति में प्रवेश न करें और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की भावना को कमजोर न करें. मगर उन्होंने किया.
उन्हें सलाह दी गई कि विधानसभा चुनावों में दागी उम्मीदवारों का चयन न करें. मगर उन्होंने किया.
उन्हें सलाह दी गई कि चुनाव के लिए संदिग्ध स्रोतों से धन को स्वीकार नहीं करें. मगर उन्होंने किया.
उन्हें सलाह दी गई कि कानून के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे विधायकों की रक्षा करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर न लगाएं. मगर उन्होंने लगाया.
उन्हें सलाह दी गई थी कि पार्टी के भीतर के असंतुष्टों पर हमला करके पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को कमजोर न करें. मगर उन्होंने किया. इस फेरहिस्त में और भी बहुत कुछ है.
खुद पर जरूरत से ज्यादा भरोसा?
माना जाता है कि केजरीवाल फैसला लेते समय सिर्फ खुद पर भरोसा करना पसंद करते हैं. अपने आप में ये कोई गलत बात नहीं है. अगर इसको तानाशाही कहा जाए तो भी गलत नहीं.
मजबूत नेतृत्व में हमेशा तानाशाही का एक संकेत छुपा होता है. लेकिन सब मंजूर है अगर फैसले या फिर फैसलों का एक बड़ा हिस्सा पार्टी या जनता के हित में सही साबित हो.
पार्टी के दीर्घकालिक हित के मद्देनज़र केजरीवाल के ज़्यादातर फैसले गलत साबित हुए हैं. यह पार्टी के भीतर की सदाबहार अशांति की हालत और लोगों के पार्टी से मोहभंग की कहानी कहता है.
सबने क्यों छोड़ा आप का साथ ?
कई विचारधारा वाले मूल स्वयंसेवकों ने ‘आप’ को छोड़ दिया है. कई भरोसे वाले चेहरे जिनके भीतर अच्छे नेताओं के रूप में विकसित होने की क्षमता थी, चले गये. मध्यम वर्ग अन्य विकल्पों की तरफ स्थानांतरित हो गया है.
निचला तबका भी पार्टी से दूर हो गया है और मीडिया तो काफी पहले ही किनाराकशी कर चुका है.
हर दूसरे राजनीतिक दल के साथ पार्टी की जंग चल रही है. यहां तक कि बिहार के नीतीश कुमार ने दिल्ली के एमसीडी चुनाव के दौरान अपने जेडी (यू) के उम्मीदवार मैदान में उतारे जिससे साफ जाहिर है कि उन्होंने पार्टी से बाहर किसी से मित्रता नहीं की. नीतीश तो एक जमाने में केजरीवाल के बड़े समर्थक हुआ करते थे.
तो बात क्या है? आम आदमी पार्टी एक वैचारिक प्रयोग के साथ-साथ एक राजनीतिक प्रयोग के तौर पर भी नाकाम रही है.
क्या आप से खत्म हो गई उम्मीदें?
राजनीतिक टिप्पणीकार यहां समझदारी दिखाने की कोशिश करेंगे और कहेंगे कि राजनीति में आप किसी को भी बाहर हुआ मान कर नहीं चल सकते. लेकिन ‘आप’ के मामले में तो सच्चाई सिर्फ इतनी है कि अब इसकी उम्मीद बहुत कम बची है.
इसके पास लोगों को देने के लिये अब बहुत कुछ बचा भी नहीं है. अगर पार्टी इसी तरह से चलना जारी रखती है तो इसके बिखर जाने के लिये ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा.
इस सूरते-हाल में अब केजरीवाल के सामने सबसे पहला काम तो ये है कि वे फिर से अपनी तलाश करें और फिर से अपनी पार्टी का आविष्कार करें.
सबसे पहले तो उनको अपनी सभी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को तिलांजलि देनी चाहिए और खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संभावित राष्ट्रीय विकल्प मानना या 2019 के आम चुनाव में संभावित भाजपा-विरोधी गठबंधन के संभावित नेता के तौर पर देखना अब बंद करना होगा.
कथनी नहीं अब करनी पर देना होगा जोर
उनके हांथ से वो वक्त निकल गया जब उनकी इस तरह की महत्वाकांक्षा पर काम हो सकता था.
और ऐसा तभी हो गया था जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव हुए थे जहां कि उन्होंने सारे प्रदेश में जनता की प्रशंसा भी पाई थी.
अगर एक तरफ पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में उनके प्रदर्शन ने उनकी सीमाओं की पोल खोल दी तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के नागरिक निकाय चुनावों में हार से पता चल गया कि अब दिल्ली में उनकी स्थिति खतरे के निशान को छू रही है.
अगर केजरीवाल खुद के लिए एक राजनीतिक कैरियर की आस लगाये बैठे हैं, तो उनको दिल्ली को ही कस कर पकड़ना पड़ेगा.
दिल्ली जैसे राजधानी-राज्य में छोटा खिलाड़ी होने के कारण उनको कोई बड़ा फायदा नहीं मिलने वाला. उनको यहां प्रभावशाली शक्ति बनना होगा.
इसके लिए उनको जनता के बीच जाना होगा और समझदारी के साथ अपने ब्रांड को फिर से तैयार करना होगा.
आप पर अब क्यों नहीं होता भरोसा?
उन्हें अपना अहंकार तजना होगा और योगेंद्र यादव जैसे नेताओं को वापस लाने का प्रयास करना होगा. 'आप' के नेता कोई विश्वास नहीं जगा पाते हैं जबकि यादव जैसे नेता पार्टी को बौद्धिक आधार प्रदान करते हैं.
यदि ये मुश्किल है तो उन्हें नए नेताओं को प्रोत्साहित करना चाहिए जो इस खालीपन को भर सकें.
हर समय लड़ाई पर उतारू होने से उनकी छवि अच्छी नहीं बन जाती. वे एक कच्चे और निगाहों में रहने की चाहत रखने वाले नेता के रूप में नजर आते हैं.
इससे भी बदतर ये है कि बड़े नेताओं के लिए उनकी सारी आलोचनाएं जिनमें से ज्यादातर निराधार हैं, के बाद अब वे सम्मानजनक भी नहीं लगतीं.
अब वे एक लक्ष्य लेकर चलने वाले नेता तो कहीं से नजर नहीं आते बल्कि एक उपद्रवी वे अधिक दिखते हैं. यदि वे राजनीति के राजमार्ग पर लंबे समय चलने की येजना बनाये बैठे हैं तो उनको खुद को तुरंत बदलना पड़ेगा.
लेकिन ये सब बस सलाहें हैं. पहले से ही केजरीवाल को ऐसी सलाहें बहुत मिल चुकी होंगी. जैसा दिख रहा है उससे तो यही लगता है ज्यादा सुनने की उनकी आदत है नहीं.
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