अरविंद केजरीवाल की पार्टी अगर दिल्ली नगर-निगम के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो भारतीय राजनीति में उनके गिने-चुने दिन रह जाएंगे.
जरा सोचिए कि केजरीवाल के लिए हालात कितने खराब हैं. जिस शख्स ने कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था, जिस पार्टी ने पूरे देश में झंडे गाड़ने के जोश से शुरुआत की थी दोनों ही अब बेहद स्थानीय लेवल पर वोटरों की कृपा पर टिक गए हैं.
पंजाब में आप की हार और गोवा में निराशाजनक प्रदर्शन ने पार्टी को उसी मुकाम पर वापस पहुंचा दिया है जहां से इसने 2013 में शुरुआत की थी. गोवा में तो पार्टी ज्यादातर सीटों पर चौथे नंबर पर रही है.
पार्टी के पास अब गुजरात, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश को भूलने के अलावा कोई चारा नहीं है. इन तीनों राज्यों में पार्टी अपना विस्तार करने की कोशिशों में लगी थी और उसे उम्मीद थी कि पंजाब में उसकी सरकार बन जाएगी.
इसके उलट अब हालात ये हैं कि पार्टी को दिल्ली में अपनी साख बचाने की चुनौती है. अगर दिल्ली में केजरीवाल लड़खड़ा जाते हैं तो वह भारतीय राजनीति के विनोद कांबली बन जाएंगे.
एक ऐसे शख्स जिसने तमाम वादे किए बड़े-बड़े सपने देखे और दिखाएं लेकिन जिसमें विजन और बड़ी कामयाबी हासिल करने की क्षमता का अभाव रहा.
पंजाब की हार केजरीवाल के लिए बड़ा झटका है. अगर वह पंजाब जीत जाते तो वह उत्तर-भारत में कांग्रेस को बेदखल कर एंटी-बीजेपी स्पेस का एक बड़ा हिस्सा हासिल कर सकते थे.
आप के लिए तब भी हालात थोड़ा आसान होते अगर पंजाब में कांग्रेस की जगह पर बीजेपी या इसकी सहयोगी पार्टी जीत जाती और कांग्रेस उत्तर-प्रदेश की तरह खात्मे की ओर पहुंच जाती.
लेकिन, कांग्रेस की जीत ने यह संकेत दिया है कि राज्य में वोटर अभी भी उसे बीजेपी का ज्यादा बेहतर विकल्प मानते हैं.
कुछ इसी तरह की कहानी गोवा में हुई है. यहां भी वोटरों ने बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस को वोट दिया है.
दिल्ली में सफलता
चूंकि, दिल्ली में आप की अब तक की सफलता कांग्रेस की हार पर टिकी हुई थी और बीजेपी भी अपना वोट बचाए रखने में कामयाब रही थी ऐसे में ये हालात केजरीवाल के लिए खतरे के संकेत से कम नहीं है.
आप की दूसरी दिक्कत यह है कि केजरीवाल अब भारतीय राजनीति की आवाज के तौर पर पहचान खोने की कगार पर पहुंच गए हैं. यूपी के नतीजे बता रहे हैं कि केजरीवाल की नोटबंदी के विरोध में शुरू की गई बहस को कोई सुनने वाला नहीं है और इसका चुनावों पर कोई असर नहीं हुआ है.
पंजाब के नतीजों से पता चल रहा है कि उनके वादों और बादल फैमिली के खिलाफ धमकियों से वोटर प्रभावित नहीं हुए. गोवा में उनकी अलग तरह की राजनीति को लोगों ने नकार दिया.
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राहुल गांधी की नियति बताती है कि एक बार भारतीय वोटर किसी राजनेता को गंभीरता से लेना बंद कर दें तो कुछ भी चीज उसकी ब्रांड वैल्यू को फिर से कायम नहीं कर सकती है. एक बार किसी नेता का मजाक बनना शुरू हो जाए तो उसकी ज्ञान की बातों पर भी लोग मजाक ही उड़ाते हैं.
अपने चीख-चिल्लाहट वाले कैंपेन, भारी-भरकम वादों और डरावनी धमकियों के बावजूद केजरीवाल ने शायद खुद को देश की राजनीति का एक ऐसा ही विरोधी साबित करने की कोशिश की है.
इस नाकामी का ज्यादातर श्रेय खुद केजरीवाल को जाता है. दिल्ली में जीत के बाद से केजरीवाल ने एक लोकप्रिय आंदोलन से एक पार्टी को पैदा करने की गलती की और इसे अपना दुश्मन बना लिया.
अपनी अकड़, असुरक्षा और चाटुकारों के प्रति अपने झुकाव के चलते उन्होंने एक मेलजोल वाली सामूहिक लीडरशिप को नकार दिया और 'आप' के एकमात्र कर्ता-धर्ता और चेहरा बन गए.
संवाद में असफल
अब, चूंकि उनको लोगों ने नकार दिया है ऐसे में कोई भी अब आप के लिए बोलने को तैयार नहीं है. 2013 की 'आप' में शायद योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण शायद अभी भी वोटरों के साथ संवाद करने में सफल रहते. लेकिन, केजरीवाल की अनोखी राजनीति में उनके सभी कार्यकर्ता और नेता खुद को चुप रखने में ही भलाई समझते हैं.
केजरीवाल के साथ दिक्कत यह है कि उनका सामना एक दोबारा से खड़ी हुई बीजेपी से और उम्मीदशुदा कांग्रेस से है. उनका अपना कैडर संशय और निराशा से घिरा हुआ है.
पूरे देश में अपनी पहुंच बनाने का सपना टूटने के साथ एक छोटे से शहर के लिए लड़ाई लड़ना ज्यादा वक्त तक खुद को उत्साहित बनाए रखने के लिए काफी नहीं होता.
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केजरीवाल खुद हड़बड़ी का शिकार शख्स हैं. अब वह नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले की बजाय केवल दिल्ली के सीएम तक सीमित रह गए हैं. उन्हें अब अपने लिए अतिरिक्त ऊर्जा जुटानी होगी ताकि वह राजनीति में टिके रहें.
केजरीवाल के लिए विकल्प बेहद सीमित हैं. सबसे पहले उन्हें पार्टी को फिर से एकजुट करना पड़ेगा फिर से योजना बनानी होगी और अपने भविष्य का फिर से आकलन करना होगा.
अपनी एक ऐसे गैर-मौजूद सीएम की इमेज को तोड़ना होगा जो कि दिल्ली की सरकार चलाने के सिवाय बाकी सब कामों में बिजी है. उन्हें अपने गढ़ को मजबूत करना होगा और अपने चुनावी घोषणापत्र को पढ़ना होगा और इसी हिसाब से दिल्ली के सीएम का काम करना होगा.
उन्हें फिलहाल पीएम बनने की ख्वाहिश छोड़नी होगी. उम्मीद है कि उन्हें इससे फायदा होगा. अभी तो ऐसा लगता है कि केजरीवाल के लिए ‘सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया’ वाली बात सही साबित हो रही है.
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