लखनऊ में हुई बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती की चुनावी रैली के कुछ हिस्से टेलीविजन पर देखने के बाद मुझे करीब पच्चीस साल पहले पार्टी संस्थापक कांशीराम के साथ हुई बातचीत याद आई.
यह किस्सा मायावती के उत्तर प्रदेश की उपमुख्यमंत्री बनने के एक या दो साल पहले का है. उस समय तक मृदुभाषी और सौम्य व्यवहार के कांशीराम अविवादित रूप से पार्टी के प्रमुख थे.
मैं शायद मुख्यधारा में काम करने वाला इकलौता अंग्रेजी पत्रकार था जिसने उनसे मुलाकात की थी.
मैं एक अखबार में राजनीतिक ब्यूरो के प्रमुख के रूप में काम करता था. मैंने सारी बड़ी पार्टियों को कवर करने का जिम्मा अपने सहयोगियों को दे दिया.
खुद के लिए मैंने एक ऐसी छोटी पार्टी को चुना जिसे उस जमाने में कोई भी पत्रकार कवर नहीं करना चाहता था. इस कारण मुझे कांशीराम के साथ बहुत सारा वक्त बिताने का मौका मिला.
मायावती की रैली के बाद जो किस्सा मुझे याद आया है उस दोपहर कांशीराम अपने मुस्लिम वोट के जनसांख्यिकीय महत्व को दर्शाने के लिए आफिस की दीवार पर टंगे उत्तर प्रदेश के नक्शे के करीब ले गए.
उन्होंने नक्शे में उन जगहों को इंगित किया जहां पर मुस्लिम आबादी का हिस्सा कुल आबादी का 20 से 30 प्रतिशत या 10 से 20 प्रतिशत के बीच था.
उन्हें यह बात भी भलीभांति पता थी कि किन इलाकों में दलितों की संख्या अपेक्षाकृत बड़े पैमाने पर है.
वे 'वोट बैंक पालिटिक्स' के बारे में बहुत ज्यादा बात नहीं करते थे. वे कहते थे कि क्यों भारतीय चुनावी व्यवस्था यह मांग करती है कि अलग-अलग समुदायों के राजनीतिक दल बनें.
उनकी सियासी रणनीति बेहद साफ थी. यह इस उपमहाद्वीप के समाज और इतिहास की लंबी समझ पर आधारित थी.
यह समझ उनकी पार्टी के नाम में भी दिखती है. वे कहते थे ऐसे लोगों की आबादी 85 प्रतिशत है जो खुद को ब्राह्मण, राजपूत, बनिया और कायस्थ नहीं मानते हैं. इसलिए ये लोग बहुजन समाज हुए.
उनका कहना था इन बहुसंख्यकों को सशक्त होना चाहिए. उनका तर्क ऐतिहासिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न पर आधारित था.
उनका कहना था कि 85 प्रतिशत 'बहुजन' के सभी लोगों को एक न्यायसंगत समाज के लिए एक साथ वोट करना चाहिए.
वह एक कलम सीधी पकड़ते थे और शीर्ष की तरफ 15 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी बताते थे.
बाद में उसे क्षैतिज घुमा देते थे और कहते थे कि यह समाज को वह हिस्सा बहुजन समाज है जिसे समान तौर पर मजबूत किए जाने की जरूरत है.
वास्तव में यह आशाओं से भरी सोच थी लेकिन समाज परस्पर विरोधी बातों से भरा था.
उत्तर प्रदेश में जाट और यादवों ने जमीन पर मालिकाना हक हासिल करके हाल के वर्षों में सफलतापूर्वक राजनीतिक सत्ता हासिल की लेकिन उन्होंने दलितों को सशक्त करने का काम नहीं किया. बहुत सारी दलित जातियां भी इस सोच से इत्तेफाक नहीं रखती है.
हालांकि 1940 के दशक में जो जातियां सफाई का काम करती थी वह गांधी से जुड़ी जबकि जो जातियां चमड़े के काम में लगी हुई थी वह आंबेडकर से जुड़ाव महसूस करने लगी.
बाद में यह जातियां कांशीराम की मुख्य समर्थक रहीं (वह और मायावती चमड़े के काम से जुड़ी जाति के थे).
इसके बावजूद उनकी 'बहुजन' एकता की बात दलितों को एकजुट होने के लिए प्रेरित करती थी.
हालांकि जब कांशीराम मुझे मानचित्र दिखा रहे थे उस दौरान वह एक बात को लेकर निश्चित थे कि उनकी पार्टी बिना मुस्लिमों के समर्थन के जीत हासिल नहीं कर सकती है.
वास्तव में उन्होंने मुझसे कहा कि कोई भी पार्टी ऐसा नहीं कर सकती है. हालांकि उनके मरने के बाद 2014 में उत्तर प्रदेश में 80 में 72 सीटें जीतकर भाजपा के अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने उन्हें गलत साबित कर दिया.
अपनी रैली में मायावती ने जोर देकर मुस्लिमों से कहा कि वह भाजपा को हराने के लिए दलितों के साथ आएं. जिसे वह उंची जातियों की पार्टी बताती हैं.
वास्तव में मायावती कांशीराम से बहुत अलग तरह की नेता है. वह आसानी से राज्य सत्ता और राजनीतिक सौदों से जुड़ जाती हैं. इसका एक कारण यह हो सकता है कि उन्होंने बहुजन आइडोलॉजी के सामाजिक और एतिहासिक समझ को छोड़ दिया. उन्होंने ब्राह्मणों के सहयोग से बहुमत से जीत हासिल की है.
दूसरी तरफ उस राजनीतिक स्टाइल में भी बहुत बदलाव है जिस बहुजन सोच को कांशीराम बढ़ावा दिया करते थे.
70 और 80 के दशक में कांशीराम व उनके सहयोगी उत्तर प्रदेश और पंजाब के गांवों में साइकिल से घूमा करते थे. वह अपने समर्थकों के घर में ठहरते थे और उनकी बात लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी में सुनते थे.
मायावती ने अपने भाषण में भाजपा को राज्य की सत्ता में आने से रोकने के लिए दलित और मुस्लिम गठजोड़ की बात कही है लेकिन वह अच्छी तरह से जानती हैं कि उनकी लड़ाई भाजपा की उस सोच से है जो एंटी पाकिस्तान की बात करता है.
उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्सों में फैली अति राष्ट्रवादी सोच के बीच मायावती का यह दांव बेहतर है.
पहली बात यह है कि क्या दलित राष्ट्रवादी सोच की ओर झुकाव दिखाते हैं या फिर भाजपा नेताओं की दलित विरोधी सोच पर सहमत होते हैं.
दूसरी बात है कि क्या अतिपिछड़ी जातियां भाजपा के जाति आधारित तिरस्कार के खिलाफ वोट करती हैं.
मुस्लिम इन दोनों सवालों के जवाब को किस तरह देखता है यह तीसरी बात होगी. इन सवालों का जवाब इस देश का भविष्य तय करेगा. हो सकता है कि इस उपमहाद्वीप का भी.
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