मायावती के जुड़ी एक बात है जो मुझे थोड़ा परेशान करती है, उनके पुतले के हाथ में टंगा वो लेडीज पर्स.
जहां इतने नेताओं के पुतले बनते हैं तो उनके हाथ में फूल माला होती है या किताब. कभी हाथ उठा भी रहता है मानो देश की जनता को संबोधित कर रहे हों. तो क्या मायावती के पुतले के हाथ में कुछ और नहीं हो सकता था? कोई ऐसी चीज जो संवैधानिक हक या आजादी का प्रतीक हो?
जब उत्तर प्रदेश में मायावती मुख्यमंत्री बन कर आईं, उनकी 5 साल के कार्यकाल में मैं सुनती थी कि अपराध पर जरा रोक-थाम हुई है. मगर एक दलित महिला का राज कुछ लोगों को आसानी से हजम नहीं हो रहा था. सबको उनसे ये शिकायत थी कि, वे बड़ी 'करप्ट' हैं.
कभी-कभी मैं इस बात पर सवाल भी कर बैठती. तो वे मुझे जवाब में कहते, 'भ्रष्टाचार तो चारों ओर है, साफ़ दिखता है. आपने वो पार्क देखा है, क्या जरूरत थी उसकी? और वो बड़े-बड़े हाथी! करोड़ों रूपिया बर्बाद हुआ है'.
मैं उनके जवाब पर चुप हो जाती. मन में सोचती, मंदिर-मस्जिद बनाने में भी सौ-सौ करोड़ खर्च हो जाते हैं. पार्क और हाथी बन भी गए तो क्या हो गया? रही बात भ्रष्टाचार की, तो कम से कम लोगों को पुतले दिख तो रहे हैं. सरकारी काम के नाम पे हजारों करोड़ रुपया हजम होता है और देखने जाओ तो खर्च के नाम पर एक ढेला तक नहीं. दूसरे नेताओं ने तो जमीन, पानी या खनिज छीन लेने के चक्कर में सबसे मजबूर तबके के लोगों को, आदिवासियों को बेघर कर दिया है.
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मायावती के ही राज में एक आध अच्छी सड़कें भी बनीं थी और वे सड़कें मुंबई वाली सड़कों की तरह 6 महीने में बह जाने वाली नहीं थी. जहां तक मैं समझती हूं, मायावती के कार्यकाल में लखनऊ का बहुत भला नहीं तो दूसरे नेताओं की तरह बहुत नुकसान भी नहीं कराया है.
दरअसल, जगह-जगह लगे पुतले लोगों की आंख में चुभते थे. उनका जिस तरह से मजाक उड़ाया जाता था मैं उसे यहां दोहराना नहीं चाहती हूं. लेकिन अब मैं उन पुतलों को देख कर सोचती हूं,बहनजी से गलती हो गई. उनके पुतले के हाथ में अगर पर्स न होता तो बेहतर था.
राजनीति, प्रतीकों और शब्दों का खेल है. जैसे कि, हमारी तरफ एक कहावत कही जाती है, 'जेब गर्म करना.' सब जानते हैं सरकारी अफसर और नेता लोगों की जेब गर्म की जाती है. साथ ही सब ये भी जानते हैं की मर्दों के पास जेब होती है, जो नजर नहीं आती. महिलाओं के कपड़ों में जेब कम ही होती है. लड़कियों को हाथ में पर्स थाम कर चलना पड़ता है.
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ऐसा क्यों है, ये मुद्दा ही अलग है. शलवार-कमीज, साड़ी या स्कर्ट में जेब बनाना मुश्किल नहीं है. मैं बनवा भी चुकी हूं. मैंने महसूस किया है कि इससे बहुत फर्क पड़ता है. हाथ खुल जाते हैं. लोगों से हाथ मिलाने के लिए, या कुछ थामने के लिए, किताब-कलम, कमंडल, या फिर साइकल चलाने के लिए. हाथ आजाद हो तो बहुत कुछ किया जा सकता है. खूब फैल कर बात की जा सकती है, बड़े-बड़े इशारे किए जा सकते हैं. जनता की तरफ उंगली उठाई जा सकती है. आसमान की तरफ हाथ उठा के नारेबाजी की जा सकती है.
हमारी राजनीति में नेता का जितना ऊंचा दर्जा हो, उतने ही उनके हाथ खाली दिखते हैं.
कई बार बड़े नेताओं को देख के सोचती हूं, इन्हें हर तरह की सुविधा मिली हुई है. इन्हें अपने घर-गाड़ी की चाबियां, फोन-पैसे या कपड़े-सैनिटरी पैड लेकर खुद ही नहीं चलना पड़ता है. उनके आगे-पीछे लगे लोग उनकी हर जरूरत का ख्याल रखते हैं.
मायावती के हाथ में पर्स होने की वजह क्या है, मैं नहीं जानती. खैर पुतलेबाजी से तो उन्होंने तौबा कर ही ली है. अब अगर दोबारा मौका मिलता है तो उम्मीद है बहुजन समाज पार्टी की नेता अपने हाथ खुले और आजाद रखेंगी. क्योंकि उन्हें बहुत काम करने हैं. सबसे पहला काम तो ये करें कि देश की दलित, मुसलमान और आदिवासी लड़कियों के हाथ खोल दें, इन्हीं हाथों को तो कल संविधान संभालना है.
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