जनता के दिलों पर दस्तक दोगे तो सत्ता के दरवाजे खुद-ब-खुद खुल जाएंगे. मोदी ने दिल से दस्तक दी और सत्ता के दरवाजे खुलते चले गए.
यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे सबको चौंका गए. 325 का आंकड़ा किसी के लिए सवाल है तो किसी के लिए मलाल तो किसी के लिये मिसाल तो किसी के लिये सदमा तो किसी के लिये लहर. कहा भी जा रहा है कि इस बार राम लहर पर मोदी लहर भारी पड़ी जाहिर तौर पर खिताबी जीत का सेहरा पीएम मोदी की रिकॉर्ड तोड़ रैली और दिनरात की मेहनत और पसीना बहाने का नतीजा है.
उनके जोश और उनकी ऊर्जा ने यूपी में बीजेपी के एक-एक कार्यकर्ता में जान फूंकने का काम किया. लेकिन इस जीत के लिए एक सेहरा किसी और के सिर नहीं बांधा जाए तो वो अन्याय होगा. खुद मोदी भी जानते हैं कि बिना ‘उसके’ ये जीत मुमकिन नहीं थी. ये जीत मोदी की है तो ये मैजिक यूपी की जनता का है. तभी पीएम मोदी ने जनता को दिल से धन्यवाद दिया.
मतदान के चरण होते गए, बीजेपी मजबूत होती गई
याद कीजिए जब पहले चरण से मतदान शुरु हुआ. तमाम राजनीतिक पंडित हर चरण में कम ज्यादा मतदान पर अपनी-अपनी रायशुमारी कर रहे थे. कोई कह रहा था कि कम मतदान हुआ है जिसकी वजह से बदलाव की लहर नहीं है और न ही सत्ता विरोधी लहर है.
यानी कि यूपी में एसपी-कांग्रेस का 'साथ' सबको पसंद आ रहा है. तो कहीं ये कहा गया कि ज्यादा मतदान हुआ है जो साबित करता है कि जनता के भीतर बदलाव की बेचैनी है और वो बदलाव के लिये वोट कर रही है. लोगों का इशारा बीएसपी की तरफ था.
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सीन में बीजेपी नहीं थी क्योंकि चुनाव के महाआंकड़ेबाज जाटों का गुस्सा, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण और दलित-यादव वोटों की जन्मकुंडली लेकर भविष्य बता रहे थे. लेकिन वो जनता की नब्ज टटोलने के लिए पुराने आला का इस्तेमाल कर रहे थे जो इस बार एक्सपाइरी डेट में चला गया था.
जैसे-जैसे मतदान के चरण होते गए बीजेपी मजबूत होते चली गई. ये काम किया यूपी की जनता ने. खामोश मतदाता ने अपना वोट दिमाग में छाप रखा था जिसे खुद बीजेपी भी महसूस नहीं कर सकी थी.
लेकिन इस महाबहुमत के पीछे की कहानी बहुत से पड़ावों से गुजर कर यहां तक पहुंची है.
यूपी की जनता ने पिछले 27 साल में यूपी में छोटी पार्टियों को बड़ी पार्टी बनते देखा है. लोहिया के समाजवाद के नाम पर मुलायम को कांग्रेस के वोटबैंक का तंबू उखाड़ते देखा. यादव-मुसलमान का हिट फॉर्मूला देखा तो सोशल इंजीनियिरिंग के नाम पर दलित-ब्राम्हण गठजोड़ भी देखा.
दलितों के उत्थान की विचारधारा से पैदा हुई कांशीराम की बीएसपी को पहले समाजवादी मुलायम सिंह यादव के साथ सत्ता के सिंहासन पर साथ बैठते देखा. फिर टूटती दोस्ती के बाद सत्ता की सांप-सीढ़ी के खेल में बीएसपी को ब्राम्हणों के साथ हाथ मिलाते और बराबरी पर बिठाते देखा.
10 साल से पूर्ण बहुमत की सरकार
यूपी ने कांशीराम का अवसान देखा तो छोटे लोहिया मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक निर्वासन भी देखा. यदुवंशियों की महाभारत देखी तो अमेठी और रायबरेली के गढ़ में सिमटती कांग्रेस की कराह भी देखी.
समय के साथ हर नाम एक-एक बार अपनी सरकार के साथ यूपी की जनता के सामने आया. लेकिन पिछले दस साल में यूपी की जनता ने एक ही सरकार चुनने का काम किया है. वो तंग आ चुकी है त्रिशंकु जैसी शब्दावली से. वो आजिज आ चुकी है छह-छह महीने के फॉर्मूले वाली सरकार से.
उसने सत्ता के लिए हाथ मिलाते दलों की सिर-फुटौव्वल भी देखी है. याद कीजिए जब 1993 में कांशीराम और मुलायम सिंह ने मिलकर यूपी में सरकार बनाई. बाद में यही दोस्ती कुख्यात गेस्ट हाउस कांड के घोस्ट की तरह आज भी लोगों के जेहन से मिटी नहीं है.
यूपी की जनता ने ही देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस को यूपी में तिल-तिल मरते भी देखा है.
1980 में जो कांग्रेस 425 सीटों में 309 सीटें जीती थी उसी कांग्रेस की जमीन 85 के चुनाव से दरकना शुरु हुई और 1989 तक 94 सीटों पर फिर साल 2002 तक 25 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस का मुस्लिम और अति पिछड़ा वोट मुलायम सिंह और कांशीराम की तरफ जुड़ चुका था.
यूपी में कांग्रेस और बीजेपी के विकल्प के तौर पर बीएसपी और समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला.
साल 2007 में बीएसपी ने सारे समीकरण बदल कर रख दिए और सत्ता पर काबिज हो गई. लेकिन पांच साल में बीएसपी की माया देखकर जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया.
बड़ी-बड़ी मूर्तियों के जरिये दलितों के नायकों की खोज सिर्फ पार्कों तक बने बुतों में बंद हो कर रह गई. पांच साल में घोटालों के हाहाकार में जनता की चीत्कार दब कर रह गई.
यूपी में चला बीजेपी का मोदी मैजिक
राम लहर को दबा कर दलित धारा पर बहती बीएसपी यकायक उस राजनीति के ईर्द-गिर्द सिमटने लगी जो उसकी विचारधारा नहीं थी. बीएसपी भी सेकुलरिज्म के लिबास में दूसरी पार्टियों के साथ खड़ी होकर बीजेपी विरोध में अपनी राजनीति और अवसर तलाशने लगी.
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बीएसपी ने साल 2012 में भी साल 2007 की तर्ज पर चुनाव लड़ा और नतीजा सिफर रहा. सत्ता से बीएसपी बेदखल हो चुकी थी और समाजवादी पार्टी की साइकिल लखनऊ के सियासी गलियारों में बिना ब्रेक और घंटी के दौड़ रही थी. बीएसपी के भ्रष्टाचार की गर्जना से आहत यूपी को मुलायम सिंह में भरोसा दिखा.
उसे लगा कि शायद पूर्ण बहुमत की सरकार का फैसला यूपी में विकास की इबारत लिख सके. साइकिल पर यूपी की 22 करोड़ जनता सवार हो गई. लेकिन लोहिया के समाजवाद को मुलायम ने परिवारवाद से यादव-वाद तक सिमटा दिया.
चुनाव के यादव-मुस्लिम फॉर्मूला सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर दिखने लगा. मुस्लिमों के लिये एसपी की योजनाएं शुरु हुई तो यादवों को बंपर नौकरियां. कहा जाता है कि आज़म ख़ान की सरपरस्ती में यूपी पुलिस की दम नहीं होती थी कि वो यूपी में मुस्लिम अपराधी को गिरफ्तार कर सके.
समाजवाद को कफन ओढ़ाकर यादव-वाद यूपी की तकदीर और तस्वीर बनाने का दावा करने लगा. जिस वजह से दो ही समुदायों में सिमटा समाजवाद यूपी के विकास को एक्प्रेस हाइवे पर उतारने में नाकामयाब रहा. अपराध पर लगाम नहीं कसी जा सकी तो यूपी के 300 दंगों ने समाजवादी पार्टी की सत्ता में कील ठोंकने का काम किया.
जनता ने टूटते धैर्य को बार-बार समेटा और 11 फरवरी 2017 के इंतजार में एक-एक दिन काटा.
राजनीति के साम-दाम-दंड-भेद और छल-छद्म की धुरी के बूते एसपी-बीएसपी यूपी की जनता के सपनों का सौदागर बनने का दावा कर रहे थे. इस बार समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर कहा- छोड़ो कल की बातें और कल की बात पुरानी.
लेकिन ये साथ जनता के गले नहीं उतरा. चुनाव में 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दे कर बीएसपी ने भी अपनी ही हारा-कीरी का ऐलान कर डाला. सवाल मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नहीं था बल्कि सवाल उस मंशा का था जिसे बीएसपी ने मुस्लिम खेमे में पहुंचाने का काम किया.
नतीजतन एक बार फिर यूपी में हिंदू वोटरों को पुरानी बीजेपी के नए चेहरे नरेंद्र मोदी में अपना मुस्तकबिल दिखाई दिया.
दो साल हैं बीजेपी के पास खुद को साबित करने के लिए
जाहिर तौर पर जनता जनार्दन की वोट की चोट ऐसी होती है जो दिखाई भी देती है और छिपाई भी नहीं जाती है. इसका दर्द पांच साल तक कोई भी दवा दूर नहीं कर सकती. वही दर्द उन हुक्मरानों को मिला है जिन्होंने अपने समय मिले जनमत को समझने में भूल की. लेकिन इस बार जनता ने जो मैजिक दिखाया उसके आगे हर लहर छोटी है.
जनता के विवेक ने यूपी के विकास के लिए वोट किया और उस कसौटी पर मोदी का नाम खरा उतरा. ये मौका अब बीजेपी के पास आखिरी है जिसे वो साल 2019 के मद्देनजर गंवाना नहीं चाहेगी. बीजेपी को दो साल के भीतर ही यूपी में खुद को साबित करना होगा क्योंकि उसने भी पिछले 27 साल में जिन पार्टियों को बनते देखा है इस बार चुनाव में उन्हें अर्श से फर्श पर गिरते भी देखा है.
पूर्ण बहुमत जनता की जीत है जिस पर छोटा सा भी गुमान बीजेपी को 15 साल के वनवास की याद दिलाने में देर नहीं करेगा. फिलहाल मोदी और जनता का विनिंग कॉम्बिनेशन विरोधियों के राजनीतिक वनवास का काम कर रहा है और स-ब-का के लिये सबक है.
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