इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शनिवार को कोलकाता में समूचे विपक्ष की जो विशाल रैली आयोजित की गई थी- वो कहीं न कहीं देशभर के अलग-अलग प्रकार के राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने में सफल तो जरूर हुई है. और ये भी तय है कि इस महारैली का आगामी चुनावों में दूरगामी असर भी होगा. सैद्धांतिक तौर पर ये बदलाव एक गेमचेंजर की तरह है जो पूरे राजनीतिक खेल को बदलकर रखने का दमखम रखता है.
इतना बड़ा महागठबंधन न सिर्फ बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है बल्कि, ये पूरे देश में एक केंद्रीय राजतंत्र की तरह जो एक अकेली पार्टी का एकछत्र राज्य चल रहा है, उसकी जगह एक संघीय ढांचे की ओर बढ़ेगा. ऐसा ढांचा जो क्षेत्रीयता, ताकतों का विखंडन और गठबंधन सरकारों के (राजनीतिक) दौर की, फिर से भारतीय राजनीति में वापसी के मार्ग प्रशस्त करेगा.
भारत में लोकतांत्रिक भागीदारी आपसी सहमति, संबंध और साझेदारी की बुनियाद पर खड़ी
बीजेपी भले ही ये दलील दे कि गठबंधन वाली राजनीति देश में एक फिर से अस्थिरता और अनिश्चितता लेकर आएगी, जिसका भारत के विकास में अच्छा असर नहीं पड़ेगा, लेकिन ये किसी भी तरह से एक मौलिक अवधारणा नहीं है. दलील देने वाले ये भी कह सकते हैं कि भारत जिस तरह से एक गैरबराबरी, विविधता और असहमतियों वाला देश है, वहां लोकतांत्रिक भागीदारी काफी हद तक आपसी सहमति, संबंध और साझेदारी की बुनियाद पर खड़ी है. भारतीय लोकतंत्र काफी हद तक इन्हीं मूल भावनाओं के सहारे खड़ा है.
लेकिन, इनमें से बहुत सारे आशय ऐसे हैं जो कुछ महत्वपूर्ण हालातों पर निर्भर करते हैं. दो दर्जन से भी ज्यादा दलों वाले इस विपक्षीय कुनबे के लिए जरूरी हो जाता है कि वो एक होकर काम करे और ऐसा करते हुए उन्हें न सिर्फ अपनी आकांक्षाओं, मतभेदों और फायदों को किनारे रखना होगा बल्कि उन्हें एक ऐसा विचार भी सामने रखना होगा जो बीजेपी के निर्णायक नेतृत्व के आह्वान को चुनौती दे सके. इतना ही नहीं उस ‘विचार’ को बीजेपी की नीति निर्धारक छवि और 2019 में मजबूत व स्थिर सरकार के देने के वायदे का भी सामना करने की क्षमता होनी चाहिए.
पिछले हफ्ते अपने ब्लॉग में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक सवाल पूछा है कि, ‘क्या भारत के प्रधानमंत्री को अपने उन विरोधियों के सामने लाचार हो जाना चाहिए, जिन्होंने बड़े ही दुखी मन से एक ‘नेता’ या ‘नेत्री’ का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है क्योंकि वे सब किसी एक (नरेंद्र मोदी) व्यक्ति को नापसंद करते हैं. या फिर, भारत को एक ऐसे प्रधानमंत्री की जरूरत है, जिसे देश की जनता का जनादेश हासिल है, और जो देश को विकास के रास्ते में ले जाने के लिए न सिर्फ सक्षम है, बल्कि लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने की भी ताकत रखता है?’
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नरेंद्र मोदी बनाम विपक्ष की लड़ाई का फायदा बीजेपी को
बीजेपी को सबसे बड़ा फायदा इस बात का है कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव को एक ऐसे चुनाव के तौर पर देखा जा रहा है जो सिर्फ नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ लड़ा जा रहा है- एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसकी निजी लोकप्रियता उसके सभी प्रतिद्वंदियों से काफी ऊपर मानी जाती है. बीजेपी की ये लगातार कोशिश चल रही है कि वो इस चुनाव को एक ऐसी लड़ाई में तब्दील कर दे, जो एक व्यक्ति पर केंद्रित राष्ट्रपति चुनाव जैसा होता है. ताकि, ऐसा करते हुए वे मोदी की लोकप्रियता का फायदा उठा सके.
ऐसे में विपक्ष के लिए ये जरूरी हो जाता है कि वो मुद्दों पर अपना ध्यान लगाता और मुद्दों पर आधारित राजनीति करता, न कि किसी एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर, तभी वो आगामी आम-चुनावों में 543 सीटों पर होने वाले मतदान को खंडित कर पाता. लेकिन, उनके ऐसा न करने और अपना पूरा ध्यान पीएम मोदी पर लगाने के कारण हुआ ये है कि वे अपनी प्रतिक्रिया से कहीं न कहीं बीजेपी की ही रणनीति की मदद कर रहे हैं न कि अपनी. मोदी को लगातार नीचा दिखाने की कोशिश में, वो मोदी को लगातार केंद्र में लेकर आ रहे हैं.
विपक्ष जिस तरह से एक लेजर बिंदु की तरह पीएम मोदी पर अपनी नजर गड़ाए हुए है, उससे हो ये रहा है कि वे आने वाले लोकसभा चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव बना दे रहे हैं, जिससे बीजेपी को भी परहेज नहीं है.
मुद्दों पर लड़ें, व्यक्ति पर नहीं
इन हालातों में, विपक्ष के लिए सबसे मुफीद चाल ये होगी कि एनडीए सरकार के किए गए वादों और उम्मीदों के बीच जो अंतर है, उसपर अपना पूरा ध्यान लगाए और जनता के बीच उसे लेकर जाएं. उन्हें चाहिए कि वे जनता को बताएं कि एनडीए सरकार की कथनी और करनी में जो अंतर है, जो वादे उन्होंने जनता से किए पर उन्हें पूरा नहीं किया, उसे विपक्ष मौका मिलने पर किस तरह से पूरा कर सकती है. इनमें से कुछ बातें हो सकता है कि चुनाव की तारीख नजदीक आने पर नजर आनी भी शुरू हो जाएंगी, लेकिन फिलहाल ये जो अतिउत्साही और असुरक्षित लोगों का कुनबा इकट्ठा हुआ है, वो लोगों/जनता को एक भी ऐसी कोई युक्ति नहीं दे पाया है, जो सकारात्मक हो. विपक्ष का अब तक कैंपेन सिर्फ एक नकारात्मक कैंपेन और सीटों को लेकर की जाने वाली जुगत ही नजर भर आ रही है.
अगर हम इस वक्त उस विवादित सवाल को भूल भी जाएं कि वो कौन है जो इस अव्यवस्थित गठबंधन का नेतृत्व करेगा- एक ऐसा भी मुद्दा सामने खड़ा है जो और ज्यादा महत्वपूर्ण है और जिसे ये नेता मानने को तैयार नहीं है. शनिवार को आयोजित की गई, ‘यूनाईटेड इंडिया’ रैली एक बेहतरीन अवसर साबित होती, कुछ विचारों को राष्ट्रीय स्तर की एक बड़ी जनता के सामने रखने और परखने के लिए.
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लेकिन, जैसा कि वित्तमंत्री जेटली ने अपने हालिया फेसबुक पोस्ट में लिखा है, ‘विपक्ष की रैली में एक भी भाषण ऐसा नहीं था जिससे ये पता चलता कि इन नेताओं के पास भविष्य के लिए कोई सकारात्मक उपाय है. उनके पूरे व्यवहार में एक किस्म की नकारात्मकता हावी थी.’
हम उस रैली में जो कुछ भी देख पाए वो सिर्फ, ‘धर्मनिरपेक्षता की वही पुरानी व्याख्या थी,’ और इसके अलावा देश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने का आह्वान. मंच पर तो विविध और विभिन्न सिद्धातों वाले नेता थे, लेकिन उनको सुनने के बाद समझ में आया कि उनके पास उपायों और विचारों का किस प्रकार नितांत अभाव है. आख़िर, सोनिया गांधी (मल्लिकार्जुन ख़ड्गे के मार्फत), एन. चंद्रबाबु नायडू, यशवंत सिन्हा, ममता बनर्जी और अन्य, ‘लोकतंत्र और संविधान की रक्षा’, के नारे के जरिए कहना क्या चाहते हैं?
चुनाव विश्लेषक और नेता योगेंद्र यादव ने न्यूज एजेंसी पीटीआई से बात करते हुए कहा कि कोलकाता में जो विशाल समूह उमड़ता था, असल में उनके पास कोई विचारधारा या सर्वमान्य विचार था ही नहीं. ‘आखिर आपलोगों का एजेंडा क्या है? उसपर किसी तरह का कोई विचार किया ही नहीं गया था. आपलोगों ने देश में किसानों को किन समस्यायों से जूझना पड़ रहा है, उस पर कोई बातचीत की ही नहीं थी, न ही बेरोजगारी की समस्या पर ही कोई विचार-विमर्श हुआ था. मुझे ऐसा लगता है कि इस गठबंधन के पास किसी तरह की कोई दूरदृष्टि है ही नहीं.’
योगेंद्र यादव ने ममता बनर्जी के पीएम मोदी को लोकतंत्र विरोधी बुलाए जाने पर खेद और क्षोभ जताया, इसके अलावा शरद पवार, अखिलेश यादव और मायावती जिस तरह से देश से भ्रष्टाचार दूर करने की बात कर रहे हैं उसे भी एक बड़ा मजाक कहा.
यादव ने जो कुछ भी कहा है उनकी बातों में दम है. उस रैली में जिस तरह नेताओं में विचारों का अभाव दिखा, मानो वो काफी नहीं था. रही-सही कसर उन झूठे और काल्पनिक बयानों और वर्णन ने पूरा कर दिया जो सिर से बनावटी और पाखंड से भरे हुए लग रहे थे. ममता बनर्जी ने जैसे ही उस रैली में पीएम मोदी पर, ‘राजनीति में अपनी हद पार करने का आरोप लगाया’, ठीक वैसे ही खबर आई कि पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस प्रशासन ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के हेलिकॉप्टर को मालदा में लैंड करने से रोक दिया. ये वो इलाका है जहां भारतीय जनता पार्टी लगातार बढ़त बना रही है और वहां मंगलवार को बीजेपी की एक रैली का आयोजन किया जा रहा है जिसमें शामिल होने अमित शाह पहुंचे थे.
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विरोध के नाम पर गला दबाया जा रहा है
इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, मालदा की जिला प्रशासन ने, पिछले कुछ समय से लगातार भारतीय जनता पार्टी को वहां आने की इजाजत नहीं दी है. प्रशासन ने इसकी वजह वहां चल रहे, ‘सुधार कार्यों’ और ‘रख-रखाव’ का काम बताया है. लेकिन, अखबार का दावा है कि जब वे एयरपोर्ट पर पहुंचे तो पाया कि ‘हेलिपैड के आसपास का इलाका और रन-वे पूरी तरह से साफ सुथरा था और वहां किसी तरह का मरम्मत कार्य नहीं चल रहा था, न ही मरम्मत का सामान वहां पाया गया था. ये पूरी तरह से जिला प्रशासन की ओर से किए गए उन दावों के विपरीत था, जो उन्होंने बीजेपी का निवेदन अस्वीकार करते हुए अपने पत्र में लिखा है.’
संयोगवश, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पश्चिम बंगाल के उस फैसले का स्वागत किया था, जिसमें ममता सरकार ने भारतीय जनता पार्टी की ओर से राज्य में रथ-यात्रा करने की योजना पर पानी फेर दिया था. लेकिन, इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी आदेश दिया था कि बंगाल की ममता सरकार ये सुनिश्चित करे कि बीजेपी को राज्य में चुनावी रैली करने और जनसभा आयोजित करने की आजादी हो.
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद, और इस बात पर भरोसा करते हुए कि इंडिया टुडे की न्यूज रिपोर्ट सही है, ममता बनर्जी का पीएम मोदी को बाहर करके ‘लोकतंत्र को बचाने’ का दावा करना पूरी तरह से न सिर्फ खोखला बल्कि विडंबना से भरा हुआ भी है.
ये पहली बार नहीं हुआ है कि ममता बनर्जी ने राज्य में भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की किसी रैली या सार्वजनिक मीटिंग की अनुमति नहीं दी है. संघ को इससे पहले भी कई बार ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा जब उसे राज्य में अपने कार्यक्रमों की मंजूरी पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा है.
यहां विचार करने वाली बात ये है कि जिस राजनीतिक दल का नेता, किसी दूसरे दल या नेता के खिलाफ सिर्फ इसलिए खुलकर इन कठोर रणनीतियों और योजनाओं का इस्तेमाल करता है, कि वो उनका गला दबा सके, वैसी पार्टी और उसकी नेता किसी भी हालत में राजनीति में उच्च नैतिक आचार-विचार व व्यवहार का दावा नहीं कर सकती है. खासकर, ‘लोकतंत्र और संविधान’ को बचाने का दावा.
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पिछले साल बंगाल में हुए पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसक वारदातें, बूथ-कैप्चरिंग, मतपेटियों की रिगिंग, बैलट-बॉक्स की लूट-पाट, आगजनी और हत्या की घटनाएं हुई थीं. विरोधी उम्मीदवारों पर हमला किया गया था, कथित तौर पर टीएमसी के गुंडों ने चुनाव अधिकारियों की मौजूदगी में जमकर लूटपाट मचाई, इन हमलों में बीजेपी के 13 राजनीतिक कार्यकर्ता मारे गए थे और राज्यभर में हुई हिंसा में करीब 50 कार्यकर्ता बुरी तरह से घायल हो गए थे.
पार्टियों का दीवालापन
ये सभी जानते हैं कि शनिवार को हुई इस महारैली में जब मंच से ये सुझाव दिया गया कि चुनावों में ईवीएम मशीनों की जगह मतपेटियों का इस्तेमाल दोबारा शुरू किया जाना चाहिए, तब कांग्रेस की प्रतिक्रिया कैसी थी. लेकिन, इससे ये भी पता चलता है कि ये जो विध्वंसकारी सुझाव दिया गया है, उसके पीछे इन नेताओं और इनकी पार्टियों का दिमागी दिवालियापन है. जिनके पास देश और राजनीति को लेकर न तो कोई सोच है न ही कोई रणनीति. और इसी सबकुछ ने मिलकर ‘यूनाईटेड इंडिया यानी ‘एक-भारत’ के इस जमावड़े को जन्म दिया है.
ये भी हो सकता है कि ये महागठबंधन सैद्धांतिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी की महा-रणनीति को प्रभावहीन कर दे, लेकिन वैसा करने के लिए इन नेताओं को अपनी सोच-समझ और अपनी संकुचित दृष्टि से आगे बढ़ना होगा. उन्हें सीटों के बंटवारे की गणित पर जरूरत से ज़्यादा जोर देना और कुछ स्वार्थी विचारों की उल्टियों से बचकर रहने की जरूरत है. उन्हें एक नीति निर्धारक दस्तावेज का गठन करना चाहिए, जिसमें नई योजनाओं, विचारों और युक्तियों का समावेश हो, जो एक भरोसेमंद कहानी की शुरूआत कर सके.
अगर हम उस मांत्रिक के हिसाब से शनिवार को आयोजित विपक्षी दलों की इस महारैली का विश्लेषण करें और उसकी सफलता को चिन्हित करने की कोशिश करें तो पाएंगे कि असल में इस महारैली के आयोजन ने विडंबनापूर्ण तरीके से विपक्ष के बजाय, भारतीय जनता पार्टी की ताकत को ही बढ़ाने का काम किया है.
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