भारतीय जनता पार्टी का सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाले मध्यप्रदेश में अब ऐसे नेता नहीं बचे हैं,जो रूठों को मनाने का दम रखते हों? विधानसभा के इस चुनाव में ऐसे नेता की कमी बीजेपी का हर छोटा-बड़ा कार्यकर्ता महसूस कर रहा है. टिकट वितरण के बाद बड़े पैमाने पर हुई बगावत ने बीजेपी की रीति-नीतियों में आए बदलाव को भी उजागर किया है. राज्य के लगभग हर जिले में टिकट बंटवारे से नाराज कार्यकर्ता बागी होकर चुनाव मैदान में उतर गए हैं. शुक्रवार को नामंकन पत्र दाखिल करने का अंतिम दिन था.
पंद्रह साल में बदल गया है मध्यप्रदेश बीजेपी का चेहरा
लगातार पंद्रह साल तक सरकार में रहने का बाद भारतीय जनता पार्टी का चेहरा पूरी तरह से बदल चुका है. वर्ष 2003 के चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के पास ऐसे कद्दावर नेता मौजूद थे, जो नाराज कार्यकर्ताओं और नेताओं को मनाने का काम आसानी से कर लेते थे. पिछले तीन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के संकट मोचक रहे अनिल माधव दवे की कमी इस चुनाव में काफी महसूस की जा रही है. वर्ष 2003 के चुनाव में दिग्विजय सिंह को शिकस्त देने में दवे की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दवे ने पिछले तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पार्टी के वॉर रूम को संभाला था. दवे के निधन के बाद पार्टी में उनकी जगह कोई नहीं ले पाया है.
दवे की रणनीति के कारण ही वर्ष 2008 और वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में बगावत देखने को नहीं मिली थी. कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी कमरों से बाहर नहीं आई थी. मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की पहचान उसके अनुशासित कार्यकर्ताओं से है. पार्टी में फैसले सामूहिक रूप से लिए जाने की परंपरा रही है. पार्टी ने पिछले दो चुनाव शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में लड़े थे. इन चुनावों में मिली सफलता के बाद चौहान का राजनीतिक कद पार्टी से ऊपर देखा जाने लगा है.
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चौहान के नेतृत्व में स्थानीय निकाय ही नहीं, लोकसभा चुनावों में भी पार्टी को बड़ी सफलता मिलती रही है. चुनावों में मिली सफलता के कारण ही मुख्यमंत्री चौहान की संगठन पर भी पकड़ मजबूत होती गई. वर्ष 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नरेंद्र सिंह तोमर ने भी असंतोष को थामने काफी अहम भूमिका अदा की थी. मुख्यमंत्री चौहान चाहते थे कि तोमर एकबार फिर प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनका साथ देते. लेकिन, केंद्रीय नेतृत्व ने सांसद राकेश सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी.
इससे पहले नंदकुमार चौहान प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष थे. वे संगठन मुख्यमंत्री चौहान की मर्जी से चलाते थे. संगठन महामंत्री के रूप में सुहास भगत की भूमिका भी बहुत ज्यादा प्रभावशील दिखाई नहीं दी. जबकि बीजेपी में संगठन महामंत्री का पद अध्यक्ष और मुख्यमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर माना जाता है. बाबूलाल गौर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब तत्कालीन संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी मंत्रिमंडल की बैठक में भी पहुंच जाते थे. कप्तान सिंह सोलंकी वर्तमान में त्रिपुरा के राज्यपाल हैं. बीजेपी में संगठन महामंत्री कौन बनेगा ,यह राष्ट्रीय स्वयं संघ तय करता है.
शिवराज के बराबरी पर खड़ा नहीं हो सका कोई दूसरा नेता
लगातार दो चुनाव जिताने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने पार्टी के बागी नेता बड़ी चुनौती बने हुए हैं. पार्टी में टिकट वितरण से पहले ही विरोध और बगावत के स्वर प्रदेश बीजेपी के मुख्यालय दीनदयाल परिसर में सुनाई दे रहे थे. विरोध में नारेबाजी खुलेआम चल रही थी. कोई भी नेता इस नारेबाजी को बंद नहीं करा पा रहा था. पार्टी के अधिकांश बड़े नेता या तो खुद टिकट की लाइन में खड़े थे या फिर अपने परिवार के लिए लॉबिंग कर रहे थे.
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दरअसल पिछले एक दशक में प्रदेश बीजेपी में कई कद्दावर नेता हाशिए पर चले गए. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को राजनीतिक तौर पर चुनौती देने वाला कोई नेता भी सामने दिखाई नहीं दिया. यदाकदा पूर्व सांसद रघुनदंन शर्मा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की आलोचन करते जरूर दिखाई दिए. वर्ष 2010 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा को एक आपराधिक मामले में जिस तरह से मंत्रिमंडल से हटाया गया,उसके बाद शिवराज सिंह चौहान का विरोध भी पूरी तरह से समाप्त हो गया था.
शिवराज सिंह चौहान ने पिछले 13 साल में अपने समकालीन अथवा वरिष्ठ नेताओं को बड़ी आसनी से घर बैठा दिया. राघवजी भाई और लक्ष्मीकांत शर्मा भी इनमें शामिल हैं. राघवजी भाई प्रदेश बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं. विदिशा की राजनीति में राघवजी भाई, शिवराज सिंह चौहान के विरोधी के तौर पर जाने जाते हैं. आप्राकृतिक कृत्य के एक मामले में प्रकरण दर्ज होने के बाद राघवजी भाई हाशिए पर चले गए. इसी तरह संघ के करीबी माने जाने वाले लक्ष्मीकांत शर्मा व्यापमं घोटाले में आने के बाद अपने बचाव में लग गए.
विदिशा जिले की राजनीति में इन दोनों नेताओं का बड़ा जनाधार है. लक्ष्मीकांत शर्मा को साधने के लिए उनके भाई उमाकांत को सिरोंज से टिकट दिया गया है. राघवजी भाई अपनी बेटी के लिए टिकट मांग रहे थे. शिवराज सिंह चौहान तैयार नहीं हुए. अब नाराज राघवजी भाई ने श्मशाबाद से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भर दिया. पार्टी संगठन और संघ पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पकड़ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए उत्तर प्रदेश जाना पड़ा.
संगठन में सुनने वाला होता तो गौर, सरताज के सुर तीखे न होते
इस बार के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी में कार्यकर्ताओं की नाराजगी की हवा पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और पूर्व मंत्री सरताज सिंह के कारण ज्यादा बिगड़ी. पार्टी के इन दोनों बुजुर्ग नेताओं को दो साल पहले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था. वजह बताई गई कि पार्टी ने 70 की उम्र पार कर चुके नेताओं को घर बैठाने का फैसला लिया है. कुछ दिन बाद जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भोपाल आए तो उन्होंने 70 की उम्र के फार्मूले से इंकार कर दिया. इसके बाद से ही ये दोनों नेता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को निशाने पर लिए हुए हैं. दोनों नेताओं को भरोसा था कि पार्टी उनके साथ न्याय करेगी और चुनाव लड़ने का एक और मौका देगी. पार्टी की पहली सूची देखने के बाद दोनों नेताओं का गुस्सा फूट पड़ा. दोनों नेताओं ने ही मीडिया के सामने खुलकर अपना विरोध भी जताया. गौर और सरताज सिंह को मनाने की कोशिश पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं ने भी नहीं की.
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मध्यप्रदेश के चुनाव के लिए प्रभारी नियुक्त किए गए केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और राज्य के प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे ने भी दोनों से ही दूरी बनाए रखी. सरताज सिंह से केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मोबाइल से बात की, वह बातचीत मीडिया में आ जाने से बात और बिगड़ गई. बाबूलाल गौर और सरताज सिंह के कांग्रेस से संपर्क में होने के बाद भी पार्टी नेताओं ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश नहीं की. नतीजा सरताज सिंह ने कांग्रेस का दामन थाम लिया. वे होशंगाबाद से चुनाव लड़ रहे हैं.
बगावत पूर्व सांसद और पार्टी के वरिष्ठ नेता रामकृष्ण कुसमरिया ने भी की है. उन्होंने पथरिया से पर्चा भरा है. उन्हें मनाने वाला कोई नेता भी नहीं मिल रहा है. इंदौर में कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र को टिकट देने से स्थानीय वरिष्ठ नेता ललित पोरवाल बागी हो गए हैं. यह स्थिति सौ से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में बनी हुई है. नाम वापसी की तारीख 14 नवंबर है.
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