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मध्य प्रदेश चुनाव: सवर्णों की नाराजगी से क्यों परेशान नहीं हैं शिवराज

राजनीति विज्ञान के पंडितों के बीच एक आम समझ यह कायम हो चली है कि शिवराज सिंह बड़ी खस्ताहाल पिच पर अपनी पारी खेलने उतरे हैं.

Updated On: Nov 29, 2018 06:11 PM IST

Ajay Singh Ajay Singh

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मध्य प्रदेश चुनाव: सवर्णों की नाराजगी से क्यों परेशान नहीं हैं शिवराज

इंदौर से भोपाल के सफर के दौरान मुझे राजनीति और समाजशास्त्र का आंख खोल देने वाला सबक हासिल हुआ. मैंने सफर के लिए किराए पर इनोवा गाड़ी ली थी और सबक मुझे गाड़ी के ड्राइवर रूप सिंह की बातों से मिला था. रूप सिंह ने मुझसे एक गहरी और महीन बात कही. उस बात से मुझे मौजूदा चुनाव को नई रोशनी में देखने में मदद मिली, साथ ही यह भी पता चला कि आखिर सफर पर रहने वाले पत्रकार चुनावों के बारे में ठीक-ठीक क्यों नहीं अनुमान लगा पाते.

राजनीति विज्ञान के पंडितों के बीच एक आम समझ यह कायम हो चली है कि शिवराज सिंह बड़ी खस्ताहाल पिच पर अपनी पारी खेलने उतरे हैं. इसकी ढेर सारी वजहों में एक यह भी है कि बीजेपी का परंपरागत समर्थक आधार यानी अगड़ी जातियां पार्टी से नाराज चल रही हैं. अगड़ी जातियों की नाराजगी के पीछे दलील ये दी जा रही है कि शिवराज सिंह चौहान ने दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों को प्रति कुछ ज्यादा ही झुकाव दिखाया है.

मैंने इसी बात को सवाल की शक्ल में रूप सिंह से पूछ लिया. जवाब खट से मिला, 'देखिए सर, ऐसा है कि अगड़ी जातियां तराजू के पलड़े पर चढ़े मेंढक की तरह होती हैं. वो एक पलड़े से दूसके पलड़े पर आदतन कूदती रहती हैं ताकि तराजू का संतुलन कभी सध ना सके.'

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दरअसल रूप सिंह ने अपनी बात कहने के लिए एक मुहावरे का इस्तेमाल किया था या यों कहें कि उस पर अपने मन-मुताबिक रंग-रोगन चढ़ाया था. मुहावरा है कि मेंढकों को तराजू पर तौलना नामुमकिन है. रूप सिंह ने अपनी बात समझाने की गरज से कहा, 'मुझे नहीं मालूम आप किस जाति के हैं. मैं ठाकुर हूं और मानकर चल रहा हूं कि आप भी ठाकुर हैं. लेकिन हमारे और आपके बीच किस बात में समानता है?' रूप सिंह ने सवालिया अंदाज में कहा. उन्होंने जो कुछ कहना चाहा था उसका बिल्कुल जाहिर सा हिस्सा अगर उन्होंने अनकहा ना छोड़ा होता तो उनकी बात कुछ यों सामने आती : 'तो फिर, आप क्यों उम्मीद करते हैं कि मैं भी उसी को वोट करुंगा जिसे आप ?'

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रूप सिंह सही थे. अगर मैं ठाकुर होता, जो कि मैं नहीं हूं, तो भी हमारे बीच में कोई भी बात मेल नहीं खाती. दरअसल रूप सिंह ने मुझे एक मुहावरे के सहारे समझा दिया था कि क्यों किसी को भारत के शहरी इलाकों में जाति को एकसार समूह मानकर नहीं चलना-बरतना चाहिए. यहां एकसार समूह का मतलब है- ऐसा समूह जो एक ही ढर्रे पर खाता-जीता, रहता-बरतता और वोट करता है.

शहरी इलाके में हर कोई अपने रंग-ढंग और परिवेश के मुताबिक जीता है, ऐसे परिवेश में जातिगत समानताओं पर वर्गीय-भेद ज्यादा भारी पड़ते हैं. रूप सिंह का नजरिया था कि धनी अगड़ी जातियों का एक हिस्सा तराजू के मेंढक की तरह अपने आत्म-हित में आदतन राजनीतिक संतुलन में बिगाड़ पैदा करने की कोशिश करेगा. 'जरा तुलना करें इस बरताव की मुसलमानों से, वो आपको एक ही पलड़े पर बैठे दिखाई देंगे.'

रूप सिंह बीजेपी के समर्थक हैं. लेकिन उनके सूत्रीकरण में एक अहम बात थी कि उसमें अंदरखाने मौजूद सांप्रदायिक विभाजन का स्वीकार था. सूबे में बीजेपी का संगठन बड़ी चुस्त-दुरुस्त हालत में है. सो, हिन्दुत्व ने सूबे के सियासी परिवेश में गहरे तक पैठ बना ली है. यह अकारण नहीं कि कांग्रेस के शीर्ष स्तर के नेता भी दतिया पीताम्बर पीठ से लेकर उज्जैन के महाकाल मंदिर तक दौड़ लगा रहे हैं और उनमें प्रभु के आशीर्वाद लेने की होड़ मची है. राहुल गांधी इस मजमे के अगुआ हैं, मुराद ये है कि इस मजमे के सहारे पार्टी की हिन्दू-हितैषी छवि कायम हो.

लेकिन यह विचार बहुत दूर और देर की कौड़ी जान पड़ता है, साथ ही बहुत घिसा-पिटा भी. अगर गुजरे वक्तों की बात करें तो एक दौर ऐसा भी रहा जब कांग्रेस को भारतीय जन संघ की तुलना में कहीं ज्यादा हिन्दू-हितैषी माना जाता था. द्वारका प्रसाद मिश्र 1963-67 की अवधि में मुख्यमंत्री थे, उस वक्त के लिए तो यह बात और भी माफिक जान बैठती है. यहां तक कि इंदिरा गांधी के जमाने में भी पार्टी को हिन्दुओं ने शंका की नजर से नहीं देखा, हालांकि तब आरएसएस-बीजेएस की सूबे में अच्छी-खासी पैठ थी.

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हालात ने पलटा खाया मुख्यमंत्री पद पर दिग्विजय सिंह के दूसरी दफे काबिज होने (1998-2003) के दौरान. इसी वक्त उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का एक ऐसा चोला अपनाया जिसे अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की जुगत मान लिया गया. कांग्रेस मानकर चल रही थी कि हिन्दुत्व का खेमा तो अगड़ी जातियों का पक्षधर माना जाता है सो हाशिए के जाति समूह हिन्दुत्व के खेमे में नहीं जाएंगे जबकि ऐसा मानना कांग्रेस की बहुत बड़ी गलती थी.

दिग्विजय सिंह ने 1998 में बीजेपी के बढ़ते कदमों को बड़ी कामयाबी से रोका था. उस वक्त उन्होंने गरीबों का पक्षधर होने का रवैया अख्तियार किया और हाशिए के समूह पार्टी के खेमे में आ जुड़े थे. लेकिन इस रणनीति पर उन्होंने कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया और ऐसा करना 2003 में घाटे का सौदा साबित हुआ. तब ‘बिजली, सड़क और पानी’ का नारा लोगों की जबान पर चढ़कर बोल रहा था. हालांकि बीजेपी ने उमा भारती को मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में पेश किया लेकिन पार्टी हिन्दुत्व के एजेंडे पर सवारी नहीं गांठी. बीजेपी ने तब वोटरों को लुभाने के लिए बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने का वादा किया था. इसके बाद से कभी भी कांग्रेस सूबे के चुनाव में अपने पैर नहीं जमा पाई है.

और, भले ही सूबे में सियासी हालात मददगार जान पड़ते हों लेकिन इस बार भी ऐसे आसार नहीं कि कांग्रेस चुनावी जमीन पर अपने पैर टिका ले. इसकी वजह समझने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं. शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने ग्रामीण संकट के समाधान के लिए जी-तोड़ कोशिश की और सामाजिक विकास के मद में जी खोलकर खर्च किया. मिसाल के लिए, किसानों को संकट से उबारने के लिए सूबे की सरकार ने 600 करोड़ रुपए के प्याज खरीदे.

ऐसा ही एक उदाहरण भावांतर योजना का है. अगर बाजार में चल रहे मूल्य और घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बीच कोई अंतर है और एमएसपी बाजार-मूल्य से ज्यादा है तो किसानों को भावांतर योजना के जरिए सरकार ने कीमत की भरपाई की. इन योजनाओं में बेशक बड़े पैमाने पर अनियमितता की गुंजाइश बनी हुई थी. लेकिन, कुल मिलाकर देखें तो सामाजिक विकास के मोर्चे पर खर्चों के बढ़ने स्थानीय सौदागरों तथा किसानों को लाभ ही पहुंचा और सरकार के खिलाफ उनका गुस्सा शांत हुआ.

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साथ ही शहरीकरण ने जोर पकड़ा, सिंचाई के नेटवर्क का पूरे सूबे में विस्तार हुआ. इससे समृद्धि आई और गरीब जनता का एक बड़ा हिस्सा संकट के घेरे से बाहर निकल सका. आर्थिक परिवेश में आए इस बदलाव से सूबे की सामाजिक रंगत में भारी बदलाव आया. यहां तक कि जो अगड़ी जातियां नौकरी की तलाश में शहरी ठिकानों पर चली गई थीं उनमें अब वर्ग-भेद की भावना ज्यादा है, जातिगत निष्ठा की सोच कम. रूप सिंह ने इसी बात को मुझे अपने खूबसूरत अंदाज में समझाया था.

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लेकिन, क्या इन बातों का मतलब ये निकाला जाए कि शिवराज सिंह के लिए चुनावी दंगल एकदम से आसान साबित होने जा रहा है? दरअसल शिवराज सिंह चौहान पर अपनी ही सरकार के अविवेकी फैसलों के भारी बोझ हैं जैसे व्यापमं और सामाजिक कल्याण के मद के खर्चों में हुए अन्य घोटाले, खनन माफिया को दी गई खुली छूट तथा ऐसी ही अनेक बात उनकी राह की बाधा हैं.

इसके अलावा, इस बार बीजेपी के स्थानीय कार्यकर्ताओं तथा नेताओं की अकड़ भी कुछ बढ़ी हुई नजर आ रही है. लेकिन इन बातों के रहते, शिवराज सिंह चौहान की राह कुछ आसान है तो इसलिए कि कांग्रेस और बीजेपी के बीच भेद बिल्कुल साफ दिख रहा है .बीजेपी चुनाव जीतने के लिए जी-जान से जुटी हुई है जबकि कांग्रेस इस आस में है कि कोई चमत्कार हो और भाग्य उस पर मेहरबान हो जाए.

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