लोकसभा चुनाव से पहले सरकार ने एक बड़ा दांव खेला है. आर्थिक रूप से पिछड़े ऊंची जाति को आकर्षित करने के लिए सरकार ने आरक्षण देने की घोषणा की है. सूत्रों के मुताबिक कैबिनेट ने आर्थिक रूप से पिछड़े ऊंची जाति के लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की मंजूरी दे दी है. सूत्रों के मुताबिक इस आरक्षण का फायदा ऐसे लोगों को मिलेगा जिनकी कमाई सलाना 8 लाख रुपए से कम है. इससे पहले गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की मांग को एससी व एसटी की सियासत करने वाले कई नेता भी जायज ठहरा चुके हैं. इन नेताओं में केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले, लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष एवं केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और मायावती भी शामिल हैं. इन लोगों ने गरीब सवर्णों को 15 से 25 फीसदी तक आरक्षण देने की बातें कही थीं.
कोई भी राज्य 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकता
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, बशर्ते, ये साबित किया जा सके कि वह लोग दूसरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं. इसे तय करने के लिए कोई भी राज्य अपने यहां पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करके अलग-अलग वर्गों की सामाजिक स्थिति की जानकारी ले सकता है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक आम तौर पर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, कोई भी राज्य 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकता. आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था के तहत एससी के लिए 15, एसटी के लिए 7.5 व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण है. यहां आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है. इसीलिए अब तक जिन राज्यों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोशिश हुई उसे कोर्ट ने खारिज कर दिया.
बीजेपी ने 2003 में एक मंत्री समूह का गठन किया था
1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया था. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था. इसके बाद बीजेपी ने 2003 में एक मंत्री समूह का गठन किया था. हालांकि इसका फायदा नहीं हुआ और वाजपेयी सरकार 2004 का चुनाव हार गई. साल 2006 में कांग्रेस ने भी एक कमेटी बनाई जिसको आर्थिक रूप से पिछड़े उन वर्गों का अध्ययन करना था जो मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के दायरे में नहीं आते हैं लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ.
साल 2007 में ब्राह्मणों को साथ लेकर मायावती सत्ता में आई थीं
सवर्ण आरक्षण के मुद्दे पर न्यूज18 के साथ इससे पहले हुई बातचीत में लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने बताया था- दलितों की सियासत करने वाली पार्टियां भी अपना दायरा बढ़ाना चाहती हैं इसलिए वे गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात कर रही हैं. सवर्णों के असंतोष में उन्हें अवसर दिख रहा होगा. साल 2007 में ब्राह्मणों को साथ लेकर मायावती सत्ता में आई थीं लेकिन दलित नेताओं की यह पहल सिर्फ कागजी और चुनावी लगती है. यह सिर्फ सवर्णों को टटोलने की कोशिश हो सकती है क्योंकि ऐसा बयान देने वाले नेता भी जानते हैं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का रास्ता अड़चनों से भरा हुआ है. इसलिए इतनी जल्दी इसे लेकर कोई भी सरकार किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकती.
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